सोमवार, अप्रैल 25, 2011

आर्गेनिक खेती में उन्हें दिख रहा भविष्य

एक सेहतमंद विकल्प के तौर पर उभरकर सामने आई आर्गेनिक खेती

५५०० हैक्टेयर पर लगभग ढाई हजार किसान आर्गेनिक खेती कर रहे हैं।

खेमकरण/जालंधर से चंदन स्वप्निल
सीमांत गांवों के किसान भी अब पारंपरिक खेती को छोडक़र आर्गेनिक खेती को तरजीह दे रहे हैं। बिचौलिए और खरीद एजेंसियां किसानों को आर्गेनिक खेती उपजाने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं। इसके जरिए उन्हें मेट्रो सिटी में बाजार उपलब्ध करवाया जा रहा है। बेशक बार्डर के किसान अभी उतने जागरूक नहीं है। समस्त पंजाब में अभी ५५०० हैक्टेयर पर लगभग ढाई हजार किसान ही आर्गेनिक खेती कर रहे हैं। राज्य में कुछ चुनिंदा आउटलेट्स पर यह प्रोडक्ट उपलब्ध हैं। इसके अलावा पंजाब में कुछ बड़ी कंपनियां ऑर्गेनिक थे्रड का भी निर्माण कर रही हैं। बच्चों के इनर वियर्स भी आर्गेनिक कपड़े में बन रहे हैं, इसके अलावा नॉन बीटी का भी इसमें इस्तेमाल होता है। किसानों को बाजार उपलब्ध कराने में आर्गेनिक फार्मिंग कौंसिल आफ पंजाब कुछ हद तक काम कर रही है।
पिछले लंबे अरसे से आर्गेनिक खेती से जुड़े सलाहकार डा. राजिंदर सिंह कहते हैं कि पंजाब में .५ फीसदी की दर से बाजार पनप रहा है, वहीं देश में यह १० फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है। फिलहाल पंजाब में कुल बाजार २५ करोड़ का है, जिसके अगले साल तक ५० करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। इसमें सफलता की गुंजाइश रसायनिक खेती की तुलना में अधिक है, इसमें रातों-रात किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसके लिए खेती में विविधता जरूरी है। पहले साल इसमें उत्पादन जरूर कुुछ कम मिलता है, लेकिन तीन साल में यह बराबरी पर आ जाता है। हां, थोड़ा ध्यान जरूर रखना पड़ता है, क्योंकि आर्गेनिक फसल को पेस्टीसाइड भी काफी तंग करते हैं, जिससे कोई भी बीमारी लगने की संभावना बनी रहती है। 
देश में उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्ग ही इसका खरीदार है। आर्गेनिक मार्केट जर्बदस्त उछाल पर है। हालांकि आम किसान को अपने लिए बाजार खोजने में दिक्कत पेश आ रही है। यह कहना है पर्यावरणविद उमेंद्र दत्त का। उमेंद्र आर्गेनिक फूड का पंजाब से एक्सपोर्ट का विरोध करते हुए कहते हैं कि हम यहां जहर खा रहे हैं और आर्गेनिक फूड सारा बाहर भेजा जा रहा है। सरकार को इसके लिए घरेलू बाजार तैयार करना चाहिए। लोग इसे पैसा कमाने की कोशिश कह सकते हैं। बॉयोटैक एक्सपर्ट डा. मुख्तियार सिंह कहते हैं कि नियम यही कहता है कि अगर किसान ने कैमिकल युक्त खेती बीजी है, तो इसके असर से मुक्ति पाने के लिए अगले तीन साल तक खेत खाली रखने चाहिए। पंजाब में केवल ७० फीसदी लोगों के पास ही पांच एकड़ जमीन है। यहां कृषि कभी भी राज्य प्रायोजित नहीं रही है, राज्य में अब भी अतिरिक्त जमीन की बेहद कमी के साथ-साथ तयशुदा बाजार भी उपलब्ध नहीं है। पंजाब पूरे देश का अन्नदाता है, इसे तो केंद्र ने गेहूं जोन घोषित कर रखा है। राज्य सरकार का यह ढकोसला है कि पंजाब में किसान फसली विधिधकरण को अपनाएं, जबकि असल में सरकार की यह मंशा कतई नहीं है।
डा. अमिताभ मोहन जयरथ कहते हैं कि अभी बहुत कम लोग ही ऑर्गेनिक फूड के बारे में जानकारी रखते हैं। इसके लिए कंपनियां विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए लोगों को जागरूक करके बता रही हैं कि ये सेहतमंद और सुरक्षित हैं। अगर मरीजों को ऑर्गेनिक फूड दिया जाए, तो यह बीमारी रोकने में कारगर सिद्ध होगा।
पंजाब सरकार ने निर्यात की दृष्टि से आर्गेनिक फारमर कौंसिल का गठन किया था। मकसद इसके जरिए खेती में विविध फसलीकरण को अपनाना था। इसके साथ ही बाजार उपलब्ध कराते हुए निर्यात की सुविधा दिलाना है। इस कौंसिल के साथ ११०० किसान जुड़े हुए हैं। इसके अलावा चंडीगढ़ और नई दिल्ली में एक रिटेल आउटलेट खोला गया है। डा. राजिंदर सिंह कहते हैं कि वे काफी सालों तक इसके साथ जुड़े रहे, लेकिन इस कौंसिल का काम महज कागजों तक ही सीमित रह गया है।
फायदा : आर्गेनिक फूड की डिमांड बढऩे की एक अहम वजह इसका कैंसर, डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारियों से लडऩे में भी सक्षम माना जा रहा है। ग्लोवल वार्मिंग के नजरिए इसमें किसी रसायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं होने से फायदेमंद है। गर्भस्थ शिशु के लिए यह फायदेमंद है। इससे हारमोन असंतुलन का खतरा भी नहीं है। आर्गेनिक फूड सेहतमंद, स्वादिष्ट और ताजा होता है। यह क्लोस्ट्रोल को कंट्रोल कर दिल की बीमारी के रिस्क को घटाता  है। इसमें किसी तरह का कृत्रिम रंग नहीं होता है। सर्वे में जब आर्गेनिक और गैर आर्गेनिक की तुलना की गई, तो आर्गेनिक फूड में विटामिन, आयरन, फासफोरस जैसे आवश्यक तत्वों की मात्रा काफी पाई गई।
यह है आर्गेनिक फूड
उपजाए जाने वाले ऐसे पदार्थ जिन्हें पैदा करने में किसी भी कीटनाशक या रासायनिक पदार्थ का उपयोग न हो। इसके साथ ही ऑर्गेनिक फूड जिनकी प्रक्रिया, उत्पादन से लेकर पैकेजिंग में कहीं भी रसायनिक खाद का इस्तेमाल ना हो, उसे ऑर्गेनिक फूड कहते हैं।
आम खेती यानी जहर वाली खेती : वहीं पारंपरिक खेती में किसान सामान्य उत्पादन में करीब लगभग 300 किस्म के कीटनाशक और रसायनिक खाद का इस्तेमाल करते हैं। इससे यहां मिट्टी के पानी सोखने की क्षमता कम हो जाती है। वहीं सूक्ष्म जीव और जैव विविधता भी खत्म हो जाती है। इसलिए लोग अब ऑर्गेनिक को अपना रहे हैं।
ऑर्गेनिक फूड
सभी सब्जियां, अमरूद, किन्नू, चावल, गेहूं, मूंग दाल, माह दाल, काला चना, गन्ना, टमाटर प्यूरी
ऑयल सीड्स: सरसों और कॉटन, सूरजमूखी
फाइबर : दलिया, रस, वेजीटेबल आचार

दावे सरकारी और हकीकत कोसों दूर


सीमांत गांवों के किसानों को केंद्र व राज्य सरकार की योजनाओं की नहीं है जानकारी
गांव ठरू/माछीके से चंदन स्वप्निल
राज्य और केंद्र सरकार किसानों की खुशहाली के लिए हर सुविधा मुहैया कराने के दावे करती है। लेकिन हकीकत में यहां पर ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता है। खेमकरण सेक्टर के सीमावर्ती गांवों के किसानों को किसी भी केंद्रीय योजना की कोई जानकारी नहीं है। उन्हें खेतीबाड़ी के लिए कर्ज लेने में भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। खेती से संबंधित अधिकतर योजनाएं केंद्र द्वारा प्रायोजित हैं, जो इन गांवों में अभी तक पहुंच ही नहीं सकी हैं।
ब्लाक अफसर अपने अधीनस्थ गांवों का चयन करन आधी कीमत पर बीज और जिंक सल्फेट मुहैया करवाता है। ऐसे में यहां पर गड़बड़ी के अवसर ज्यादा रहते हैं। इसमें जो किसान अफसर के संपर्क में रहता है, लाभ केवल उसी को मिलता है। केंद्र प्रायोजित ट्रेनिंग टेस्टिंग डेमोस्ट्रेशन के तहत खेतीबाड़ी विभाग किसानों को नई मशीन चलाने की ट्रेंिनंग इसलिए देता है, ताकि वह इसे बाजार से खरीदने से पहले पूरी जानकारी हासिल कर ले। लेकिन यहां पर कभी भी किसी किसान को विभाग ने ऐसा कोई डेमो पेश नहीं किया। बायो गैस महंगी होने के चलते कोई इसमें हाथ अजमाना नहीं चाहता। यहां पर किसान अब भी पराली को आग लगा देते हैं। वे धान की बिजाई के बाद सीधे गेहूं की रोपाई नहीं करते हैं।
मेंहिदीपुर के किसान सुदर्शन सिंह ने कहा कि वे लोग पहले गन्ने की बिजाई करते थे, लेकिन इस क्षेत्र में कोई भी शुगर मिल नहीं होने के चलते उन्हें गन्ने का सही रेट नहीं मिलता था। इसलिए उन लोगों ने इस क्षेत्र में गन्ने की बिजाई करना ही छोड़ दिया। वहीं हकीकत यह है कि अगर इस इलाके में गन्ने की बिजाई की जाए तो यहां काफी अच्छा उत्पादन हो सकता है। सुदर्शन ने कहा कि सरकारी योजनाएं सिर्फ दिखावे के लिए हैं। उन्हें यहां कोई भी खेतीबाड़ी अधिकारी आकर कभी नहीं बताता कि कैसे बेहतर खेती की जाए और उनके लिए सरकार ने कौन-कौन सी लाभकारी योजनाए शुरूकर रखी हैं। उन्हें अपनी फसल भी औने-पौने दाम में बिचोलियों को बेचनी पड़ती है। किसान औलख सिंहन से मैंने पूछा कि राज्य व केंद्र सरकार की ओर से किसानों को उत्साहित करने के लिए समय-समय पर किसान सिखलाई कैंप लगाए जाते हैं तो उन्होंने बताया कि यह सब केवल हवाबाजी ही है। बार्डर पर ऐसा कोई भी कैंप नही लगाया जाता। पशुधन योजना के बारे में भी उन्हें कोई जानकारी नहीं है। वे लोग तो पशुओं की खरीदारी के लिए कर्ज भी आढ़तिए से लेते हैं। जिसके एवज में उन्हें भारी ब्याज चुकाना पड़ता है। जब मैंने उन्हें अच्छी खेती के लिए जिप्सम पर मिलने वाली सबसिडी के बारे में बताया तो उन्हें इसके बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी। इन किसानों का कहना है कि वह अकसर दुकान से कोई भी खाद खरीदकर डाल देते हंै। हैरत की बात तो यह है कि इन्हें सिचाई के लिए खेती औजारों पर मिलने वाली सबसिडी के बारे में भी कोई ज्ञान नहीं है। 
यह है केंद्र का सिस्टम
किसानों के लिए अधिकांश योजना केंद्र की ओर से जारी की जाती हैं। इसके तहत दी जाने वाली सबसिडी में केंद्र और राज्य का 75 और 25 फीसदी हिस्सेदारी होती है। कुछ अन्य योजनाओं में केंद-राज्य की 90 और 10 फीसदी की भागीदारी होती है। इनमें खेती औजारों से संबंधित योजनाओं की सब्सिडी में राज्य का भी हिस्सा है। खाद व बीज केंद्रीय योजना के तहत किसानों को मुहैया कराए जाते हंै।

फैक्ट फाइल
तरनतारन जिले में खेती का रकबा जिले में कुल 2.41 लाख हैक्टेयर भूगोलिक रकबा है। इसमें से 2.17 लाख हैक्टेयर रकबा खेती के तहत आता है। जिले का 99.9 फीसदी रकबा सिचित है। इसी में 60 फीसदी रकबा नहरों और 40 फीसदी रकबा सींचा जाता है। इस जिले में अधिकतर खेती धान, बासमती, गेहंू की होती है, जबकि मक्की, कपास, मसूर, तिल, मूंगी और सब्जियां भी उगाई जाती हैं।  
कोट्स

तरनतारन के डीसी खुशी राम से बात करने पर उनका कहना है कि यह संभव नहीं है कि सीमांत गांवों के किसानों को कोई जानकारी नहीं है। यदि किसानों ने आपसे ऐसा कहा है, तो वे असलियत छुपा रहे हैं। जिला प्रशासन ने तरनतारन में कैंप लगाया था, इसमें जिले के करीब २००० किसानों ने भाग लिया था। इसके अलावा ब्लॉक स्तर पर कैंप लगाकर किसानों को खेती से संबंधित जानकारी दी गई।

महंगाई का ये गजब खेल
किसान का दर्द : मेहनत हम करें और मलाई बिचौलिए खाएं
गांव डालकेक्या आप जानते हैं कि शरद पवार कौन हैं, जवाब नहीं। मैंने बताया कि वह केंद्रीय कृषि मंत्री हैं। इस पर किसान बग्गा ने कहा कि यह बड़ी अच्छी बात है, फिर उनके हाथ में तो सबकुछ है, उन्हें कहिए कि इस महंगाई को जरा कंट्रोल करें। हमारी फसल का हमें उचित मूल्य दें, बिचौलिए हमसे सब्जियां सस्ती खरीदकर ले जाते हैं और उसे ही बाजार में महंगे दाम पर बेचकर भारी मुनाफा कमा रहे हैं। और हम जो सब्जी उगाने वाले हैं, उन्हें तो इसकी लागत भी नहीं मिल पाती। मेहनत हम कर रहे हैं और बिचौलिए मलाई खा रहे हैं। यह दर्द केवल किसी एक बग्गा का नहीं है बल्कि इस क्षेत्र के हर किसान के साथ ऐसा ही धोखा हो रहा है। वह जो सब्जी अपने गांव में उगाता है, बाद में उसी गांव में उक्त सब्जी काफी महंगी बिकती हुई नजर आती है।
मैं जब दोपहर को गांव डालके पहुंचा। वहां मैंने एक खेत में कुछ मजदूरों को मटर बीनते हुए देखा। जब मैंने पूछा कि इसका मालिक कौन है, तभी थोड़ी देर में खेत का मालिक मनजिंदर ङ्क्षसह आ पहुंचा। उसने बताया कि दो एकड़ जमीन पर उसने मटर की बिजाई की थी। अभी मौसम उतना अच्छा नहीं है, इसलिए इस बार बंपर फसल नहीं हो सकी। इन खेतों में मटर की बिजाई पर उसने अब तक २० हजार रुपए खर्च कर डाले हैं। हर मजदूर को वह ४० किलो मटर बीनने पर ५५ रुपए की मजदूरी अदा करता है। इसके बाद मैं उसके साथ मंडी पहुंचा, जहां पर उसने मंडी में १० रुपए प्रति किलो मटर को बेचा। इसके बाद मैंने देखा कि यहां से एक ठेला पर सब्जी बेचने वाला उस मटर को १४ रुपए प्रति किलो के हिसाब से खरीदकर ले गया। उस ठेले वाले ने मंडी से २० किलो मटर खरीदा। इसके बाद वह इसे गांव डालके में बेचने चला गया। जो मटर इसी गांव के किसान ने मंडी में १० रुपए में बेचा था, वही मटर अब ठेले वाला २० रुपए प्रति किलो बेच रहा था। 


खेतीबाड़ी से संबंधित

खेतीबाड़ी से संबंधित स्कीमें मुख्यत केंद्र प्रयाजित है। इनमें से कई स्कीमों में दी जाने वाली सब्सिडी में केंद्र और राज्य का क्रमश 75 व 25 हिस्सा है, जबकि कई स्कीमों में केंद्र और राज्य का क्रमश 90 और 10 फीसदी हिस्सा है। इनमें खासकर खेतीबाड़ी टूल से संबंधित स्कीमों जिनकी सब्सिडी में राज्य का भी हिस्सा है, राज्य सरकार के अपने हिस्सा की सब्सिडी न दिए जाने के कारण इनके ला"ू करने में रुकावट आ जाती है। खाद और बीज पूरी तरह केंद्र सरकार की विभिन्न स्कीमों के तहत ही राज्य के किसानों को दिए जाते है। इसमें राज्य सरकार को कोई हिस्सा नहीं है। यही कारण है कि खाद और बीज से संबंधित इन स्कीमों में ला"ू करने में भी कोई खास रुकावट नहीं आ रही है।

बीज(100 फीसदी केंद्र की स्कीम)
इसमें जालंधर के किसानों के गेहूं, तेल, दालों के बीज सब्सिडी पर मुहैया करवाए जाते हैं।
बीजों के सब्सिडी के मामले में पिछली गेहूं की बिजाई में पांच सौ रुपए प्रति क्विंटल की छूट देकर जिले के किसानों को गेहूं का बीज उपलब्ध करवाया गया था। इसके अलावा जिले के नौ ब्लाकों में से कुछ चुनिंदा गांवों(हर ब्लाक में कुछ गांव) में सीड विलेज स्कीम लागू की गई। इसमें चुने गए हर गांव के किसानों को 21 क्विंटल गेहूं का बीज आधी कीमत पर मुहैया करवाया गया था। इस तरह ही गेहूं के लिए अब तीन सौ टन जिंक सल्फेट केंद्र की तरफ से उपलब्ध करवाया जा रहा है। जिले के नौ ब्लाकों में से हर ब्लाक 20-ग0 टन जिंक सल्फेट दिया जा रहा है। फिर आगे ब्लाक अधिकारी अपने ब्लाक के चुनिंदा गांवों को जिंक सल्फेट देंगे।
गेहूं के अलावा दालों में मटर और छोले के बीजों की किïट्टें भी केंद्र की तरफ से यहां भेजी जाती हैं, जो कि चुनिंदा गांवों के किसानों को मुफ्त दी जाती हैं। इस साल मटर के बीजों की किटें तो पहुंची है, लेकिन छोले की करीब एक हजार किट नहीं पहुंच सकी है।

 ब्लाक अधिकारियों की तरफ से चयन- आधा दाम पर बीज उपलब्ध करवाने और जिंक सल्फेट आदि उपलब्ध करवाने के लिए ब्लाक अधिकारी ही अपने ब्लाक में गांवों का चयन करते हैं। इसके लिए सही लाभपात्रों के चयन का तरीका बहुत पारदर्शिता वाला नहीं है। जिन गांवों के किसान या फिर किसान ब्लाक अधिकारियों के संपंर्क में रहते हैं, उन तक ही यह लाभ सीमित हो जाते हैं।
जालंधर जिला केंद्र के नैशनल फूड सिक्योरिटी मिशन के तहत नहीं आने के कारण इसे पंजाब के दूसरे दस जिलों जितनी सब्सिडी नहीं मिल रही है।

खाद(100 केंद्र की तरफ से सप्लाई होती है)
जालंधर जिले में लगने वाले फसलों की जरुरत मुताबिक खाद की पूरी मात्रा केंद्र की तरफ से ही भेजी जाती है। खेतीबाड़ी विभाग यहां पर लगने वाले फसलों गेहूं, मक्की, आलू, धान आदि की जरुरत मुताबिक अपने डिमांड तैयार करने के राज्य सरकार को भेज देते हैं और फिर राज्य की तरफ से केंद्र से अपने जरुरत की खाद मंगवाई जाती है। खेतीबाड़ी अधिकारियों और किसानों मुताबिक केंद्र की तरफ से भेजी जाने वाली खाद की सप्लाई आम तौर पर उन्हें बिजाई के समय मिल जाती है। खाद का डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम ठीक है।

टूल
किसानों को आधुनिक किस्म के टूल खरीदने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए केंद्र प्रायोजित कई स्कीमें है। इन स्कीमों के तहत टूल खरीदने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी में 75 फीसदी हिस्सा केंद्र का और 25 फीसदी हिस्सा राज्य सरकार का है। कई टूल में यह हिस्सा 90 और 10 फीसदी है। राज्य के अपना हिस्से सब्सिडी न देने पर कई बार इन स्कीमों के लागू करने में रुकावट आ जाती है। जालंधर जिले में पिछले साल 265 किसानों इन स्कीमों के तहत आधूनिक औजारों का लाभ उठाया है।

स्कीमें
...  माईक्रो मैनेजमेंट वर्क प्लान (केंद्र प्रायोजित)
इसमें किसानों को नई तकनीक औजार खरीदने के लिए सब्सिडी दी जाती है।
ट्रेनिंग टैस्टिंग डैमोस्ट्रेशन(टीटीडी)(केंद्र प्रायोजित)
इसमें खेतीबाडी विभाग किसानों को नई मशीनरी की डैमोस्ट्रेशन देता है।इसमें खरीदने के लिए कोई सब्सिडी नहीं दी जाती है। विभाग किसानों को नए मशीनरी को चलाने की ट्रेंिनंग इसलिए देता है, ताकि वह इसके बारे पूरी तरह जानकारी लेकर ही इसे मार्कीट में खरीदे। नए मशीनरी को किसानों के प्रयोग के लिए भी मुहैया करवाया जाता है और इसमें किसानों से मशीनरी चलाने के लिए सस्टेंनएवल चार्जेस वसूल किए जाते हैं। जालंधर मे पिछले साल इस स्कीम के तहत लेजर लेवरलर्ज किसानों के सामने रखे गए थे, ताकि पैड्डी के दौरान आ रही लेबर की मुश्किल से इनके जरिए पार पाया जा सके।

बायो गैस स्कीम
- इसमें खेतीबाड़ी विभाग किसानों को सिर्फ तकनीकी सहायता ही देते है। सब्सिडी कोई नहीं दी जाती है। पंजाब एनर्जी डिवैलपमेंट एजैंसी, जो कि पंजाब सरकार का ही एक विभाग है, इसके तहत सब्सिडी दे रहा है। हालांकि इसकी कीमत ज्यादा होने के कारण यह किसानों व गांवों में ज्यादा पापुलर नहीं हो रहा है।

4.  अग्र्रीकल्चर प्रोडक्शन पैट्रन एडजस्टमेंट स्कीम
पिछले करीब पांच सालों में चल रही इस स्कीम में किसानों की खेतीबाड़ी की नई विधियों व नई मशीनरी के इस्तेमाल से खेतीबाड़ी के ढंगों में बदलाव पर जोर दिया जा रहा है। ताकि इससे बढिय़ा पैदावार और लागत में भी कमी आए। इसके तहत जालंधर में 80 एकड़ में गेहूं की बिजाई की गई है। पहले किसान धान के बाद बची उसके अवशेष की सफाई करने के बाद उसे आग लगा देते थे, इससे प्रदूषण काफी फैलता था। अब इस स्कीम के तहत धान की कटाई के बाद उसकी पराली को साफ करने की बजाए उसमें ही गेहूं की बिजाई की गई है। पिछले साल गेहूं की बिजाई के इस प्रयोग से पैदा हुई गेहूं की फसल भी अ'छी है।

आतमा(एग्र्रीकल्चर टैक्नोलॉजी मैनेजमेंट एजैंसी)
इसमें भी किसानों को नई टैक्नोलाजी खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस स्कीम के तहत दी जाने वाली सब्सिडी में 90 फीसदी केंद्र और 10 फीसदी राज्य सरकार का होता है। किसानों को नई मशीनरी खरीदने के लिए तैयार  करने के लिए पहले खेतीबाड़ी कैंप लगाए जाते हैं, मशीनरी का प्रदर्शन किया जाता है और इसके अलावा दूसरे राज्यों व राज्य में ही यहां नई मशीनरी का बढिय़ा इस्तेमाल हो रहा है, वहां पर किसानों को लेकर जाया जाता है। साल 200ग से यह स्कीम जालंधर में लागू हुई थी, हालांकि इससे कुछ बढिय़ा परिणाम सामने आए हैं, लेकिन बदलाव की प्रक्रिया काफी धीमी है।

इस स्कीम के तहत किए प्रयासों से जालंधर में हल्दी की खेती की शुरुआत हुई है। फिशरी के लिए नई टैक्नीक लाई गई हैं। कमर्शियल डेयरी को बढ़ावा मिला है।
मार्कीटिंग की स्कीमें
इनके अलावा घी, शहद आदि उत्पादों की मार्कीटिंग के लिए भी केंद्र सरकार की सब्सिडी आ रही हैं, लेकिन इन उत्पादों की मार्कीटिंग अभी तरीके से हो नहीं पा रही है।

यहां पीढ़ी कुदेसन के सहारे बढ़ती है

पता नहीं यहां दुल्हन कब आएगी?
यहां शादी कभी नहीं हो सकती!

सीमांत गांवों में कई बेरोजगार कुंवारे शादी के इंतजार में उम्रज़दा हो गए

किस्सा : तलाश एक अदद दुल्हन की
पंजाब के इन सीमांत गांव में घूमते हुए मुझे अनायास ही जतिंदर बराड़ का लिखा नाटक कुदेसन याद आ गया। कुदेसन को पढऩे के बाद यही लगता है कि जैसे वो दास्तां इन्हीं गांव से ली गई है। यहां के किसान अक्सर बिहार या यूपी अपने पशु बेचने जाते हैं और वहां से किसी की लडक़ी को ले आते हैं, जिसे वे अपनी बहू के रूप में अपना लेते हैं। वहीं कुछ लोग इतंजार में ही अपनी उम्र पार कर जाते हैं।
खेमकरण सेक्टर से चंदन स्वप्निल
सरकार के दावे बड़े लंबे-चौड़े हैं और उनकी पोल यहां पर आकर देखने से खुल जाती है। बार्डर के ये गांव अब भी विकास की राह से कोसों दूर हैं। तरक्की के नाम पर चंद गांवों में ही कुछ पक्की सडक़ें दिख जाती हैं। सीमा से सटे यह गांव देश की बात तो दूर रही अपने राज्य पंजाब से ही कटे नजर आते हैं। दूर-दूर तक यहां नजर पड़ती है, केवल लहलहाती फसल और उनमें गिनी-चुनी कोठीयां या कच्चे मकान दिखते हैं। यहां पर खेतीबाड़ी ही आय का मुख्य साधन है। अधिकतर युवक पढ़ाई के मामले में बारहवीं से आगे बढऩे की हिम्मत हार जाते हैं। इन बेरोजगार युवकों के सामने अपनी खेतबाड़ी या मजदूरी करना ही अंतिम विकल्प बचता है।
दूरदराज तक बसे इन गांवों में बिजली भी जरूर पहुंच गई है। गिने-चुने लोगों के पास मोबाइल फोन भी है। मकान बेशक कच्चे हों, लेकिन छत पर डिश टीवी लगा हुआ जरूर मिलेगा। इससे इतर इनके घर वालों के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने युवा हो चुके बेटों के लिए एक अदद बहू की तलाश जैसे सपना ही रह गई है। अधिकतर गांवों में ‘कुदेसन’ ही इनकी पीढ़ी को आगे बढ़ा रही है। 5० वर्षीय कुलबीर कौर का बेटा बारहवीं पास करके पिछले छह साल से घर की खेती में हाथ बंटा रहा है। उनकी एक बड़ी बेटी थी, जिसे उन्होंने शहर में ब्याह दिया है। कुलबीर अपने लंबे-चौड़े गबरू को देखकर यही चिंता सताती रहती है कि पता नहीं उसकी पुत्रवधु आएगी भी या नहीं। कुलबीर उलाहना देते हुए कहती है कि लोग यहां से तो कुड़ीयां ब्याह कर ले जाते हैं। लेकिन सीमांत गांव पर बसे होने के चलते उन्हें कोई अपनी बेटी देना नहीं चाहता। इसकी सबसे बड़ी वजह पड़ोसी मुल्क द्वारा हमले का खौफ और इन गांव में आए दिन तस्करी की खबरें भी इनके लिए परेशानी खड़ी कर देती हैं। जिसके चलते यहां ना तो उतना विकास हो पाया है ना ही कोई काम धंधा ढंग से पनप पाया है। इसलिए लोग अपनी बेटियों को इन गांवों में भेजना ही नहीं चाहते हैं। यह समस्या केवल गांव माछीके की कुलबीर की ही नहीं है बल्कि बार्डर के हर गांव की यही हकीकत है।
जब मैंने कुदेसन से यहां बात करनी चाही तो कोई भी बात करने के लिए तैयार नहीं हुई। लोगों ने दबी जुबान में यह जरूर कबूला कि हां, जब वे लोग बाहर अपनी फसल या पशुधन बेचने जाते हैं, तो वहां से किसी बाहरी लडक़ी को दुल्हन बनाकर ले आते हैं।  इस क्षेत्र में तीस फीसदी युवा शादी के इंतजार में बुढ़ापे की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। उनके लिए शादी जैसे एक हसीन ख्वाब ही रह गई है। लगभग 50 वर्षीय सुरिंदर सिंह ने बताया कि उसकी जवानी शादी के इंतजार में ही बीत गई। अब वह आसपास छोटे बच्चों को खेलते देखकर ही खुश हो जाता है। इस उम्र में आकर उसकी शादी करने की तमन्ना भी खत्म हो गई है। वह कहता है कि रब मेहर करे, जो उनके साथ हुआ वह किसी और के साथ ना बीते।
इन किसानों के घरों में ट्रैक्टर, पीटर रेहड़ा और एक मारूति 800 कार भी दिख जाएगी। जमीन भी इनके पास काफी है। कुछ गिनचुने घरों में एसी भी लगे हुए हैं। लेकिन इक पंजाबण का साथ उनकी दिली ख्वाहिश ही रह गई है। गुरलाल सिंह बारहवी पास है। दूसरे गबरूओं की तरह उसे भी पत्नी का इंतजार है। पढ़ाई करने के बाद उसे कहीं कोई काम नहीं मिला, तो वह मजदूरी की सोच रहा है। उसकी उम्मीद आज भी जवां है कि शायद कहीं से कोई उसके लिए रिश्ता लेकर आएगा।
इन कुंवारों के लिए यही कहा जा सकता है कि
‘रोज ये पंछी आते हैं मेरे दर पे दस्तक देने/
उन बेचारे ख्वाबों का क्या करें, जो तुम्हारी याद दिलाते हैं/
इन आंखों तले हमने भी एक ख्वाहिश छुपा रखी है।’

सामूहिक विवाह में कभी खुलती है किस्मत
हर साल अमृतसर में रोटरी क्लब या अन्य सामाजिक संस्थाएं साल में दो-तीन बार सामूहिक विवाह समारोह का आयोजन करती हैं। इसमें उन लड़कियों की शादी करवाई जाती है, जो काफी निर्धन होती हैं। ऐसे में अधिकतर लडक़े सीमांत गांवों से आते हैं, जो बिना दहेज के इन्हें ब्याहकर ले जाते हैं।
फैक्ट
सीमांत गांवों में कुंवारे ३० फीसदी

ऐसे तो न चल पाएंगे हैल्थ सेंटर


कहीं हैल्थ सेंटर बंद, तो कहीं डाक्टर हीं नहीं आया
चंदन स्वप्निल
खेमकरण/पट्टी/वल्टोहा
डाक्टर ने कहा मैं कल आऊंगा
खेमकरन शाम 7.01 बजे
फोटो खेमकरण
सब-तहसील के एकमात्र कम्यूनिटी हैल्थ सेंटर (सीएचसी) में लाइट गई हुई थी। मेन गेट से प्रवेश करते ही अंदर दरवाजे के ठीक सामने एक नर्स और एक सफाई कर्मचारी बैठे आग सेक रहे थे। मैं उनके पास गया और कहा कि सीने में बड़ी जोर से दर्द हो रहा है, डाक्टर को दिखाना है। ड्यूटी पर उपस्थित नर्स ने बताया कि डाक्टर साहिब अस्पताल के राउंड पर गए हुए हैं। लेकिन जब मैंने वहां घूमकर देखा, तो सिर्फ चारो ओर अंधेरा था, लेकिन डाक्टर कहीं नजर नहीं आया। मेरे बार-बार पूछने पर नर्स ने साफ कह दिया कि डाक्टर तो अभी नही मिलेंगे, वह अपनी कोठी (क्र्वाटर) में चले गए है। इस बीच वहां मौजूद क्लास फोर स्टाफ ने रजिस्टर में ड्यूटी पर मौजूद डाक्टर एसएस दर्दी से मोबाइल फोन पर मेरी बात करवाई। उधर से डाक्टर ने जवाब दिया कि वह अभी नही आ सकते, आप कल सुबह आकर मिलें।
हमने अपनी पड़ताल में पाया कि इस प्राइमरी हैल्थ सेंटर कम सीएचसी में कुल 30 बैड मंजूर किए गए हैं, लेकिन अभी केवल 15 ही बैड मौजूद हैं। जिस पर एक भी मरीज नहीं आया दिखा। बिजली गुल थी, लेकिन जनरेटर होते हुए भी उसे चालू नहीं किया गया था। यहां पर कुल छह स्टाफ नर्स है। जिनमें से चार सुबह, एक शाम और एक रात कीपाली में ड्यूटी देती हंै। जहां तक डाक्टरों की बात है तो दो आर्थो, एक सर्जन, एक हार्ट स्पैशलिस्ट, दो एमबीबीएस और एसएमओ नियुक्त किए गए हैं। हैरत की बात यह है कि यदि यहां कोई छोटी-मोटी इमरजैैंसी भी आ जाए तो अटैंड करने के लिए डाक्टर अस्पताल में नही अपने घर पर मौजूद होते है। गांव वालों ने बताया कि कुछ दिनों पहले किसी को कुत्ते ने काट लिया था उसे फस्र्ट ऐड से लेकर उपचार तक देने के लिए कोई डाक्टर नहीं आया, नतीजतन उसे शहर लेकर जाना पड़ा। अकसर यहां देखने में आया है कि रात की पाली का डाक्टर अपनी कोठी में अराम फरमाता है। गांव वालों का कहना है कि यदि कोई उनके साथ बड़ी घटना हो जाए तो उन्हें खड़े पैर इलाज करवाने के लिए अमृतसर की और भागना पड़ता है, जो कि यहां से 90 किलोमीटर दूर है।
नौकरी पाने की खातिर कोई भी नर्स बार्डर पर आ जाएगी
अनौपचारिक बातचीत में नर्स ने बताया कि उसे अभी दो महीने ही हुए हैं, यहां पर ज्वाइन किए हुए। यह पूछने पर कि क्या वह यहां गांव में ही ड्यूटी करते रहना पसंद करेगी, तो उसने कहा कि बेशक वह इसी गांव की रहनेवाली है, लेकिन वह पीजीआई में जाकर काम करना चाहती है। मैंने कहा कि यदि आपके जैसे युवा भी गांव छोडक़र शहर चले जाएंगे, तो फिर गांवों में कौन काम करेगा, इस पर वह हंसते हुए बोली कि मैं चली जाऊंगी तो कोई और आकर ज्वाइन कर लेगी। मैंने कहा कि गांवों में तो कोई ड्यूटी करना ही नहीं चाहता है, खासकर बार्डर बेल्ट में तो स्थिति काफी गंभीर है। वह बोली कि इतनी नर्से पढ़ाई करके बेरोजगार हैं, कोई भी नौकरी पाने की खातिर यहां आ जाएगी।

लाइव अस्पताल-2
तंग मत करो, सोने दो
वल्टोहा शाम 7.30 बजे
फोटो वलटोहा
प्राइमरी हैल्थ सेंटर के एकछोटे से दरवाजे से होते हुए हम जैसे ही अंदर मेन गेट के पास पहुंचे, गेट देखकर बड़ी हैरानी हुई। सेंटर के प्रवेश दरवाजे को बाहर से चिटकनी लगी हुई थी। खिडक़ी से झांकर अंदर देखा, तो अंदर चारपाई पर कोई लेटा हुआ था। जब हमने काफी देर तक दरवाजा खटखटाया, इधर-उधर आवाजें लगाई तो अंदर से आवाज आई तंग मत करो, सोने दो।
आखिरकार दरवाजे की कुंडी खोलकर हम अंदर पहुंचे। चारपाई पर रजाई ओढ़े एक बुजुर्ग सोया हुआ था। हमने जब उसे जगाया तो उसने फिर वही कहा कि सोने दो, कोई नहीं है यहां। वह चौकीदार था और शराब के नशे में सो रहा था। बार-बार पूछने पर उससे पता चला कि यहां इस वक्त कोई डाक्टर नहीं है। हम जैसे ही वहां से वापस जाने लगे, तो उस चौकीदार ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि ठंड बहुत है, दरवाजा बाहर से बंद कर देना। जिस तरह से दरवाजा पहले बाहर से बंद था, हमने उसे वैसे ही बंद कर दिया। दुकानदार सरवन सिंह ने बताया कि वैसे तो यह हैल्थ सेंटर सुबह नौ बजे खुलता है और 5 बजे से पहले ही बंद हो जाता है। बेहतर होगा आप दिन में यहां आइए। वही कुछ और लोगों का कहना था कि बेशक यह सेंटर नया बना है, लेकिन यह खुलता ही नही है। हम अगले दिन दोपहर दो बजे फिर उसी अस्पताल में पहुंचे, तो देखा कि दरवाजा पहले दिन की तरह ही बंद था। जाहिर है कि फिर यहां पर डाक्टर के तो मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
सरकारी तो दूर अच्छा निजी अस्पताल भी नहीं है
जो सबसे अहम सवाल उठता है कि यह विधान सभा क्षेत्र है और यहां से सबसे तेजतरार माने जाने वाले विधायक प्रो. विरसा सिंह वल्टोहा चुनाव जीते हंै। वल्टोहा की कुल आबादी 7 हजार है। मौजूदा विधायक भी यहीं के निवासी हैं। बेशक कहने को यहां एक सरकारी हैल्थ सेंटर है और वह भी बंद रहता है। इसके अलावा यहां पर कोई बहुत अच्छा प्राइवेट अस्पताल भी नही है। अगर किसी को इमरजैंसी मेें डाक्टर की जरूरत पड़े, तो उसे बेहतर इलाज की तलाश में अमृतसर पहुंचने में करीब डेढ़ घंटा लग जाएगा। जाहिर है तब तक मरीज दम भी तोड़ सकता है।
कोट्स
वल्टोहा का सरकारी हैल्थ सेंटर का बंद रहना और खेमकरन में डाक्टर का घर में आराम फरमाने पर मैं कड़ा नोटिस लूंगा। जल्द ही मामले की जांच कर उक्त डाक्टरों के खिलाफ उपर्युक्त कारवाई की जाएगी।
-प्रो.विरसा सिंह वल्टोहा, विधायक वल्टोहा क्षेत्र

लाइव अस्पताल-3
आई स्पेशलिस्ट के जिम्मे इमरजैंसी
पट्टी रात 8.19 बजे
फोटो पटटी
हम काफी तंग गलियों से होते हुए सिविल अस्पताल पहुंचे। इमारत को देखकर यह यकीन कर पाना मुश्किल हो रहा था कि यहां पर कोई सिविल अस्पताल भी होगा। इमारत काफी गंदी और टूटी-फूटी थी। लोगों से पूछकर हम अस्पताल में दाखिल हुए तो देखा कि ड्यूटी पर उपस्थित डाक्टर का कैबिन बंद है। किसी ने बताया कि डाक्टर ऊपर वार्ड में राउंड पर गए हैं। हम जब वार्ड में पहुंचे तो यह देखकर थोड़ी राहत मिली कि चलों, यहां कोई डाक्टर तो देखभाल के लिए मौजूद है। आई स्पेशलिस्ट डा. आशीष गुप्ता इमरजैंसी का जिम्मा संभाल रहे थे। वार्ड में कई मरीज काफी गंभीर हालत में भर्ती नजर आए। डा. गुप्ता ने बताया कि पट्टी की अबादी लगभग 40 हजार है और यहां आने वाले अधिकतर मरीज ग्रामीण या आसपास के इलाकों से पहुंचते है। अभी यहां पर 50 बैड हैं और जल्द ही 30 बैड और जुड़ेंगें। इमारत भी नई बन रही है। चूंकि अभी सर्दियों का मौसम है, ऐसे में बिजली कट बहुत लग रहे हंै। इस सूरतेहाल में लगातार एक ही जनरेटर को चला पाना संभव नही हो पाता। इस वजह से इलाज करने में थोड़ी दिक्कत जरूर पेश आती है। यहां पर मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। अगर रात के वक्त कोई इमरजैंसी केस आए जाए, तो हैरान होने की जरूरत नहीं है यदि उसे आई स्पेशलिस्ट या कोई डाक्टर अटैंड कर रहा हो।
फैक्ट
प्राइवेट अस्पताल ६०
ग्रामीण डिसपेंसरी ६२
लिंगानुपात ८८८/१०००
आबादी ११,९१,४०३
पीएचसी ३
सीएचसी ९
ग्रामीण अस्पताल २
सिविल अस्पताल २
अल्ट्रासाउंड सेंटर १९

कोरियर के जरिए पहुंचती है नशे की खेप

पंजाब में हैरोइन की नाममात्र खपत, बार्डर से पहुंचती है दिल्ली-मुंबई

भारत-पाक सीमा गांव गज़ल से
शाम के छह बजने को हैं, चारों ओर धुंध पसर चुकी है। मैं डिफेंस ड्रेन के ऊपर खड़ा हूं। मेरे दाएं और बाएं ओर गांव के अधकच्चे मकान हैं। मेरे सामाने यहां से महज आधा किलोमीटर दूर सीमा पर लगी फैंसिंग नजर आ रही है। अभी कुछ लोग एक वृद्धा का दाह-संस्कार का लौटे हैं, जो बेहतर इलाज के इंतजार में दम तोड़ चुकी है। यह वही गांव है, यहां १६ जनवरी की मध्य रात्रि को सुरक्षा बलों ने पांच पैकेट हैरोइन के बरामद किए थे। फायरिंग में धुंध का फायदा उठाकर दो तस्कर वापस पाकिस्तान भागने में सफल रहे थे।
मैंने गांववासियों से यह जानने की कोशिश की कि आखिर तस्कर कैसे इतनी ऊंची बाढ़ को पार कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि इसी गांव के कुछ लोग खेती करने उस पार आते-जाते रहते हैं। सीमा के उस पार पाकिस्तानी गांव लगते हैं। पाक के गांववासी भारतीयों को लालच देकर फंास लेते हैं, इसी के चलते वह कोरियर बनकर नशे की खेप को इस पार पहुंचाते हैं। अधेड़ दिखने वाले गुरदीप ने बताया कि बाहरी क्षेत्र के लोग मिलीभगत कर नशे की खेप भारत में पहुंचा देते है। लेकिन कई बार वह लोग सुरक्षा बलों को देखकर नशे की खेप को पास में लगते खेतों में फेंक कर फरार हो जाते है। ऐसी हरकत में कई बार बीएसएफ व पुलिस खेत मालिक को ही दोषी बनाकर पेश कर देती है, जोकि सरासर गलत है।
ऐसे होता है खेप पहुंचाने का खेल
गांव के ही एक तस्कर ने बताया कि हेरोइन और स्मैक आदि की खेप पहुंचाने के पहले भारतीय युवक (तस्कर) पाकिस्तानी सिम से फोन कर उधर बैठे तस्करों से संपर्क कर लेते हंै। उसी बातचीत के जरिए खेप पहुंचाने का समय तय होता है। फैंसिंग के पार खेतों की देखभाल करने गए भारतीय किसान को  पाकिस्तानी पैसे का लोभ दिखाकर उसे वहां का सिम दे देत हैं। दरअसल वह सिम उन्हें किसी और ने नहीं बल्कि पाकिस्तान में बैठे तस्करों ने उपलब्ध कराया होता है। खेती से लौटते समय वे लोग सिम इस तरह से छुपा लेते हैं, जो चैकिंग के दौरान पकड़ में नहीं आते। कई बार तो इनकी सैटिंग इतनी जबर्दस्त होती है कि उधर से इनके  खेत में ही निर्धारित स्थान पर सिम रखा हुआ मिलता है। सिम मोबाइल में डालते ही एक्टीवेट हो जाता है। और यही पाकिस्तानी सिम तस्करी को अंजाम तक पहुंचाने के लिए इनके संपर्क का जरिया बनता है। इसके बाद तय दिन और स्थान पर माल पहुंचाने की बात हो जाती है। यह सब सेटिंग हो जाने के बाद वे लोग (भारतीय तस्कर) बिना नंबर और मडगार्ड वाली मोटरसाइकिल का इस्तेमाल करते हैं। जाते समय वे लोग इस बाइक को डिफेंस ड्रेन में छुपा देते हंै। खेप पहुंचाने के लिए तस्कर रात का वक्त ही मुनासिब समझते हैं। भारतीय तस्कर सर्च लाइट को धता बताते हुए, जिस वक्त नशे की खेप सीमा पार से इस ओर फेंकी जाती है, तब इधर मौजूद भारतीय तस्कर अंधेरे का फायदा उठाते हुए अपनी बाइक स्टार्ट करता है और माल को सबंधित थाना क्रास करवा देता है। इसके एवज में उसे कोरियर के तौर पर एक बार खेप पहुंचाने के पचास हजार से एक लाख रुपए तक अदा किए जाते हैं। तस्कर ने बताया कि पाकिस्तान से अपने आका से मिले निर्देश के मुताबिक संबंधित थाने को क्रास करते ही आगे एक और व्यक्ति कोरियर के रूप में उसका इंतजार कर रहा होता है। वह सारी खेप उसे थमाकर और उधर से संबंधित कोरियर वाला उसकी पेमैंट अदा कर देता है। अब यह दूसरे कोरियर की जिम्मेदारी होती है कि वह कार या किसी अन्य वाहन में ऐसी जगह नशे की खेप को छुपाए, जो चैकिंग में पकड़ में न आए। संबंधित दूसरा कोरियर को उक्त माल सुरक्षित दिल्ली या मुंबई तय स्थान पर पहुंचाना होता है। इस तरह से यह सारी नशे की खेप पंजाब से निकलते हुए दिल्ली और मुंबई जा पहुंचती है।
फैक्ट : ७० फीसदी नशे का शिकार
जहां तक तरनतारन जिले में नशाखोरी का सवाल है, तो देखने में यह आया है कि यहां पर अधिकतर लोग स्मैक, देसी शराब, कैप्सूल, इंजैक्शन जैसे सस्ते नशे
के आदि है। इनमें से बहुत कम लोग हैं, जो हैरोइन जैसा महंगा नशा करते हंै।

इन्हें चाहिए जिंदगी की संजीवनी


चंदन स्वप्निल
किस्सा : व्यापारी जो रिक्शा चलाने लगा
जालंधर के एक व्यापारी ने बताया उनका कारोबार कोलकाता के बड़े बाजार तक फैला हुआ है। उनका छोटा भाई था। कुछ समय के लिए वह नई दिल्ली पढ़ाई करने गया था। वहां पता नहीं हॉस्टल में कैसी संगत उसे मिली कि वह स्मैक जैसे खतरनाक नशे का आदि हो गया। जब हमें पता चला तो वह घर में ही छुप-छुपकर पीने लगा। हमने उसे नशामुक्ति केंद्र में भर्ती कराया, जब वो थोड़ा ठीक होकर आ गया तो उसकी शादी कर दी। शादी के कुछ दिन सही गुजरे, लेकिन फिर उसने वही क्रम अपना लिया। उसकी इस लत से तंग आकर उसकी पत्नी तलाक देकर चली गई।  वह अपने नशे की पूर्ति के लिए घर में ही चोरी करने लगा। जब हमने उसका ध्यान रखना शुरू किया, तो वह घर से ही भाग गया। दो साल पहले पता चला कि वह दिल्ली में रिक्शा चला रहा था, तब हम उसे वहां से पकडक़र लाए और नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कराया। लेकिन यहां पर भी वह ज्यादा दिन तक नहीं टिका और फिर से भाग खड़ा हुआ और अभी तक उसका कुछ पता नहीं चला है। उसकी वजह से शहर में हमारी बदनामी अलग से हुई।
 फोटो---अस्पताल


नशामुक्ति केंद्र जालंधर जिले का एकमात्र नशा छुड़ाओ केंद्र है। जल्द ही जिले का दूसरा सरकारी नशामुक्ति केंद्र गांव कैरों में खुलने जा रहा है। कुछ साल पहले तक पुलिस ने युवकों में बढ़ती नशे की लत को देखते हुए जिले में पांच प्राइवेट नशामुक्ति केंद्र खोले थे, लेकिन वे केंद्र लोगों के लिए लूट का केंद्र बन गए थे। जिसके चलते एक-एक कर वे बंद होते चले गए। हुआ यंू कि जिले में तत्कालीन एसएसपी नरेंद्र भार्गव ने पांच प्राइवेट नशामुक्ति केंद्र खोले थे। ये केंद्र किसी का भी नशा छुड़ाने में विफल रहे थे, बल्कि इन केंद्रों ने लोगों से मरीजों को ठीक करने के लिए मनमाने पैसे वसूलने शुरू कर दिए थे। इससे लोगों का इनसे मोहभंग हो गया, नतीजतन ये बंद हो गए।
तरनतारन नशामुक्ति केंद्र में इस वक्त कुल सात मरीज भर्ती हैं। मैं जब यहां पहुंचा तो स्टाफ नर्स ने मुझसे पूछा कि क्या नया मरीज है? क्या स्मैक पीते हो? मेरे यह बताने पर कि मैं दैनिक भास्कर से हूं और यहां पर नशामुक्ति केंद्र का जायजा लेने आया हूं। इतना सुनते ही वो खिलखिला कर हंसते हुए बोलीं, माफ करना, दरअसल यहां पर केवल नशा पीडि़त ही आते हैं। नर्स परमिंद्र ने बताया कि इस केंद्र में अधिकतर मरीज भिखीविंड, झब्बाल, पट्टी और खेमकरण से आते हैं। यहां पर कुल १० बेड हैं। किसी भी मरीज को दस दिन के लिए भर्ती किया जाता है, जिसके एवज में दो हजार रुपये फीस ली जाती है। ट्रीटमेंट के दौरान मरीज को दवा के साथ काउंसिलिंग भी की जाती है। दस दिन के बाद मरीज का फालोअप  किया जाता है। यहां पर अपना इलाज करा रहे नवे वरियां गांव के गुरदेव, भगूपुर गांव के जरनैल सिंह, हरिंदरपाल सिंह, बोहडू गांव के चरणजीत सिंह, सरहाली के बलविंदर सिंह ने बताया कि उन्हें कुछ बेहतर महसूस हो रहा है। इसके अलावा वे धीरे-धीरे नशे की गिरफ्त बाहर निकलने का प्रयास कर रहे हैं।
इस तरह बनाते हैं शिकार
बार्डर क्षेत्र में अधिकतर युवा स्मैक, कैप्सूल, इंजैक्शन जैसे नशे के आदि हो चुके हैं। नशे का धंधा करने वाले पहले इन बेरोजगार युवकों को अपनी महफिल में शामिल कर फ्री में पुडिय़ा सप्लाई करते हैं। जब उन्हें लगने लगता है कि अब ये लोग इसके आदि हो चुके होते हैं, तो वे उस युवक से सुविधानुसार सौ से दौ सौ रुपये प्रति पुडिय़ा वसूलना शुरू कर देते हैं। देखने को यह मिला कि इन गांवों में एक नशेड़ी कम से दिन में तीन बार तो पुडिय़ा या इंजैक्शन लेता है। पुलिस और एनजीओज का सर्वे मानें तो करीब ७० फीसदी परिवार नशे की चपेट में हैं। इनमें से अधिकतर ने एकदूसरे की संगत में रहकर नशा करना सीखा। कैप्सूल का नशा मुख्य रूप से वे लोग करते हैं, जब उनके लिए स्मैक जैसे महंगे नशे को खरीद पाना संभव नहीं हो पाता है।
नशा पीडि़तों की दास्तां
झब्बाल के सोनू ने बताया कि उसने स्मैक, कैप्सूल, बूट पॉलिश, आयोडैक्स से लेकर हर तरह का नशा किया। उसके नशे की लत के कारण उसकी पारिवारिक स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती चली गई। आठ साल पहले उसकी शादी हुई थी, जिससे उसके दो बेटियां भी हैं। उसकी नशे की लत इतनी बढ़ गई कि वह घर के बर्तन तक बेचकर आने लगा। हारकर उसकी पत्नी और मां उसे तरनतारन के नशामुक्ति केंद्र लेकर आई। वहां पर लगभग एक साल लगातार इलाज करवाया। बीच-बीच में वह फिर से अपने दोस्तों की संगत में नशा शुरू कर देता। हारकर घरवालों ने उसे बांधकर रखना शुरू कर दिया और साथ में डाक्टर के कहे अनुसार रोजाना दवाई देते रहे। इस तरह अब उसने दो साल से नशे से तौबा कर रखी है। अब वह खेतीबाड़ी के जरिए अपनी दोनों बेटियों का भविष्य संवारना चाहता है। वह कहता है कि अगर आपको कोई फ्री में भी स्मैक की पुडिय़ा दे तो उसे न लें, क्योंकि पहले वो आपको फ्री में पिलाएंगे बाद में लत पड़ जाने पर उसके लिए मनमानी कीमत वसूलेंगे।
तौबा..तौबा...
बादल सैणी (परिवर्तित नाम) बुरी संगत में पडक़र मैं नशे का आदि हो गया था। पहले मैं घरवालों से छुपकर पीता था, लेकिन जब घरवालों को पता चल गया तो मैं खुलआम नशा करने लगा। इसके चलते मेरी आए दिन घरवालों से लड़ाई हो जाती थी। एक दिन मेरे घरवालों ने मुझे जबर्दस्ती नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती करा दिया। उस वक्त तरनतारन जिले में प्राइवेट नशामुक्ति केंद्र हुआ करते थे, जोकि मरीज को ठीक करने के एवज में भारी कीमत वसूलते थे। मुझे एक दिन नशे की तलब जगी और मैं वहां से भाग निकला। काफी दिन मैं इधर-उधर भटकता रहा, एक दिन मेरे घरवालों ने मुझे ढूंढ निकाला और कमरे में ले जाकर विस्तर के साथ संगल लगाकर बांध दिया। फिर मुझे वे लोग सिविल अस्पताल के नशामुक्ति केंद्र ले गए, वहां पर काफी लंबा इलाज चला और अब मैंने पिछले १० महीने से नशे को हाथ भी नहीं लगाया है। अब मैं बीएड की तैयारी में जुट गया हूं। मेरी तमन्ना स्कूल टीचर बनकर आज की पीढ़ी को नशे के खिलाफ जागरूक करना है।
लोगों के पैसे लेकर भाग गया
भिखीविंड के इंद्रजीत (परिवर्तित नाम) की दास्तां बड़ी दर्दनाक है। इंद्रजीत की मां गुरशरण कौर की आंखें लगभग भर आती हैं, जब वो अपने एकमात्र बेटे को याद करती हैं। वह बताती हैं कि करीब चार साल पहले इंद्र ने दिल्ली की एक लडक़ी से लव मैरिज की थी। शादी के कुछ दिन तक बड़ा ठीकठाक चलता रहा, इंद्र अपने कम्प्यूटर सेंटर पर बैठा करता था। यहीं पर उसकी दोस्ती कुछ बुरी संगत वालों से हो गई। बकौल गुरशरण हमें यह पता ही नहीं चला कि कब उनका बेटा नशे की चपेट में आ गया। वो कई दफा बिन बताए घर से गायब रहने लगा। एक दिन वह कई चला गया। हमने सोचा कि फिर लौट आएगा, सात-आठ दिन बीतने के बाद एक व्यक्ति हमारे घर आया और कहने लगा कि इंद्रजीत ने उससे दो लाख रुपये उधार लिए थे, कह रहा था कि कि कुछ कप्यूटर पाट्र्स खरीदने है। इसके बाद गुरशरण ने कई जगह तलाशा लेकिन उसका कहीं कोई पता नहीं चला। दरअसल इंद्रजीत कई लोगों से इसी तरह से पैसे लेकर नशे में उड़ा चुका है, जिन लोगों ने उसे पैसे दिए थे, वे बार-बार मुझसे तकादा करने आते हैं। मुझे नहीं पता मेरा बेटा कहां और किस हालत में है। उसकी पत्नी भी अपने मायके वापस चली गई है।
कई बार छोड़ा नशे को
फोटो---
गांव धरमकोट सिंह के ३६ वर्षीय सतपाल सिंह ने बताया कि वह पिछले आठ दिन से तरनतारन के नशामुक्ति केंद्र में जाकर अपनी दवा ले रहा है। वह दिन में तीन बार इंजैक्शन लगाने का आदि है। ये इंजैक्शन पहले उसे दस रुपये में उपलब्ध था, जो अब ४० रुपये में मिलता है। गांव की मित्र मंडली की संगत में ही उसने स्मैक लेनी शुरू की थी, जब स्मैक खरीदने की उसकी हैसियत नहीं रही तो उसने इंजैक्शन लगाने शुरू कर लिए। उसकी दो बेटियां हैं, जो दूसरी और पांचवीं कक्षा में पढ़ती हैं। गत पांच साल में उसने नशे की लत में लाखों रुपये फूंक डाले। इसके चलते उसकी अक्सर घर में लड़ाई होती रहती है। इससे उसे बड़ी आत्मग्लानि महसूस हुई और उसने किसी से नशामुक्ति केंद्र के बारे में सुन रखा था। वहां जाकर वह दवाई लेने लगा, इसका असर यह होने लगा कि वह दो-चार महीने के लिए नशे से तौबा कर लेता था, लेकिन स्थायी तौर पर कभी इसको सलाम नहीं कर पाया। पत्नी कंवलजिंद्र कौर कहती है कि वह अपने पति को काफी समझाती है कि आप कोई काम भी नहीं करते हो। बुढ़ापे में पिता ही खेतीबाड़ी करके घर चला रहे हैं। वह अपने पति को नशे की जद से बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहित करती है। इसके चलते वह कई बार उस पर पाबंदी भी लगा देती है। उसे उम्मीद है कि इस ट्रीटमेंट से वह ठीक हो जाएगा। सतपाल कहता है कि इस अंचल में नशे की जड़ सभी मंत्री और नेता हैं। नेताओं ने अपना तस्करी का कारोबार बढ़ाने के लिए सभी ठेके बंद करा दिए। वे धड़ल्ले से अफीम का कारोबार बढ़ा रहे हैं। नए-नए में नशा छोडऩा आसान है, लेकिन जब अधिक अभ्यस्त हो जाते हैं तो फिर इसे छोडऩा बढ़ा मुश्किल होता है।
पहले फ्री पिलाकर बनाते हैं शिकार
पंजाबी में एक कहावत है खेती खसमा सेती, खेती के ऊपर पति है और यह भी मेहनत मांगती है। और हमारे युवाओं ने अपने ख्वाब बड़े लंबे-चौड़े पाल लिए हैं, उसे पूरा करने के लिए मेहनत करने की हिम्मत उनमें नहीं बची है। यह कहना है बार्डर क्षेत्र में नशे के खिलाफ लोगों को जागरूक करने में जुटी सरहदी लोक सेवा समिति के प्रदेश महामंत्री राजीव नेब का। राजीव बताते हैं कि बेरोजगार मेहनत कर नहीं सकते और नशा ही करना उन्हें आसान दिखता है। कुछ जमीदारों का जब कारोबार अच्छा चल निकला, तो गांव में अपनी शान दिखाने के लिए देसी से अंग्रेजी शराब पीनी शुरू कर दी और इतनी पीने लगे कि उसकी ज़द में समा गए। नशा बढऩे की जड़ शौक में एक दूसरे को पिलाने से शुरू होती है। नशे की टोली के भी अपने उसूल हैं, जो टोली आज नशा करने बैठती है, वह अगले दिन की बैठकी की जगह तय करके ही उठती है। राजीव बताते हैं कि पहले नशे की खेप अफगानिस्तान से पाकिस्तान समुद्री राह के जरिए भारत पहुंचती थी, लेकिन वहां पर सख्ती अधिक होने के चलते अब यह खेप पंजाब सीमा से पहुंचती है। सुरक्षा एजेंसियों और जनता में अविश्वास घर कर गया है। इस तस्करी के लिए दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराते हैं। हम यह भूल गए हैं कि हम इसके खिलाफ संघर्ष करना चाहते हैं या बदलना। ऐसे रोंके : केंद्र सरकार का विकास के लिए काफी धन आता है, जो बिना खर्चे वापस चला जाता है। दरअसल हमारे नेता खुद इसमें लिप्त हैं, तो कैसे यह काम रुक सकता है।
फैक्ट : शिकार
हैरोइन ३ फीसदी
स्मैक  २७ फीसदी
इंजैक्शन, कैप्सूल ६० फीसदी

रसोई गैस चाहिए, पर अब भी दिल्ली दूर है

सिलेंडर के लिए ५० किलोमीटर का फासला
पहाड़ी और सीमावर्ती इलाकों में गैस दूर की बात

गुरदासपुर सीमा से
आजादी के छह दशक कहने को विकास के लिए एक लंबा पड़ाव। लेकिन गुरदासपुर के सीमावर्ती गांवों में बेशक विकास के कुछ छींटे यहां पर पड़े हैं, लेकिन मूलभूत समस्याएं जस की तस कायम हैं। एजेंसी से रसोई गैस का सिलेंडर मिलना, जैसे इनके लिए अब भी सपना है। पूरे गुरदासपुर जिले में २५ गैस एजेंसिया हैं, जिसमें ३,२१,९७५ कनेक्शन धारक हैं।
जयंतीपुर से डलहौजी की सीमा तक 150 किलोमीटर के दायरे में फैले गुरदासपुर जिले के एक तिहाई हिस्से में अब भी गैस एजेंसियां नहीं खुली हैं। यहां के लोगों को ब्लैक में ६०० से ७०० रुपये में सिलेंडर खरीदना पड़ता है। खासकर सीमा से सटे इलाके उज्ज दरिया पार, ढींडा, खोजकीचक्क, बमियाल, नरोटजैमल सिंह, सरोक, सलांच आदि गांववासियों को करीब ५० किलोमीटर दूर जाकर एजेंसी से सिलेंडर लाना पड़ता है। कुलविंदर सैनी के मुताबिक इसकी वजह इन इलाकों में गैस एजेंसी का नहीं होना है। यही नहीं इन्हें चूल्हा जलाने के लिए कोयला और लकड़ी के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ती है। अकसर चुनावों के दौरान नेता वोट पाने की खातिर उनलोगों से गैस एजेंसी खुलवाने का वादा कर जाते हैं।
सीमा पर स्थित डेरा बाबा नानक धार्मिक नजरिए से काफी महत्वपूर्ण कसबा है। हैरत की बात यह है कि यहां पर भी कोई गैस एजेंसी नहीं है। लोगों को कलानौर या गुरदासपुर जाना पड़ता है। सीमांत इलाका घरोटा में भी कोई गैस एजेंसी नहीं है। यहां के लोग दीनानगर(दूरी 22 किलोमीटर) या गुरदासपुर गैस लेने जाते हैं। कसबा दुनेरा पठानकोट से 40 किलोमीटर दूर है। पहाड़ी इलाका होने के चलते लोगों को पठानकोट तक यह दूरी तय करने में करीब दो घंट लग जाते हैं। इस इलाके में होम डिलीवरी भी एजेंसियों के लिए काफी टेढ़ी खीर है।
नियमानुसार ५० किलोमीटर के दायरे में दूसरी गैस एजेंसी खोलने के लिए इलाकाई
सांसद को लोकसभा में यह मामला उठाना होता है। इसके बाद केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय संबंधित कंपनी को एजेंसी खोलने की प्रक्रिया शुरू करती है। हैरत की बात यह है कि पूर्व सांसद विनोद खन्ना और मौजूदा सांसद प्रताप सिंह बाजवा ने भी कभी यह सवाल लोकसभा में नहीं उठाया। यहां के निवासियों का कहना है कि सांसद ने कभी उनकी इस समस्या को समझने का प्रयास ही नहीं किया। जाहिर है कि रसोई गैस के लिए अभी दिल्ली दूर ही है।

सूचना क्रांति तो दूर रही अखबार भी नहीं पहुंचता



भारत-पाक सीमांत गांवों से

खुशहाल कहे जाने वाले पंजाब राज्य के सीमावर्ती गांवों में ऐसे हजारों लोग जिनकी सुबह कभी अखबार से शुरू ही नहीं हुई। देश में सूचना क्रांति की धूम है और यह क्रांति अखबार के रूप में सीमावर्ती गांवों में अभी तक पहुंच नहीं सकी है। इन गांवों में शिक्षा का प्रसार काफी कम होने के कारण ज्यादातर लोगों की अखबार पढऩे में भी दिलचस्पी नहीं है। अगर इन गांवों के कुछ लोग अखबार पढऩे में दिलचस्पी रखते भी हैं, तो हॉकर इसमें कोई रुचि नहीं दिखाता। क्योंकि चंद अखबार भेजने के लिए सीमावर्ती गांवों में जाना उनके लिए काफी मुश्किल है।
फिरोजपुर का सीमावर्ती गांव टेंडीवाला की आबादी करीब २०00 है। यहां किसी के घर अखबार नहीं आता। गांव के 35 वर्षीय जगीर सिंह कहते हैं कि उनकी हम उम्र वालों ने तो गांव में अखबार लाने की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, लेकिन अब अपने बच्चों के लिए अखबार लगाने की जरूर सोच रहे हैं, ताकि उनके बच्चे सूचना का अभाव में न रह सकें। उन्हें सरकार की नीतियों और समाज में आ रहे बदलावों के बारे में अवगत होना बहुत जरूरी है। वह बताते हैं कि उनके गांव तक हाकर नहीं आता है। इसलिए वे लोग सोच रहे हैं कि सुबह उनके घरों से दूध ले जाने वाले दोधियो पर यह कंडीशन लगाएं कि अगर उन्हें गांव से दूध चाहिए तो गांव के लिए अपने साथ अखबार जरूर लेकर आएं।
तरनतारन जिले के सीमांत वासियों ने दोधियों को ही अखबार लाने की जिम्मेदारी दे रखी है। टेंडीवाला के साथ लगते गांव कालूवाल में भी अखबार नहीं आता है।
गुरदासपुर के सीमावर्ती गांवों की भी यही स्थिति है। ४०० आबादी वाले गांव सलांच के लोगों की सुबह भी अखबार के साथ शुरू नहीं होती। गांव में दो-तीन युवक ही दसवीं पास हैं और उन्हें अखबार की जरूरत महसूस नहीं होती। गांव चौंतरा में सिर्फ सरपंच के घर ही अखबार आता है। इसकी वजह उनका बीए पास होना है। सलांच के 45 वर्षीय तारा सिंह बताते हैं कि गांव में मनोरंजन के लिए कई लोगों ने टीवी खरीद रखे हैं, लेकिन आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण वह टीवी भी नहीं ले सका है। उसके बच्चे उसके भाई के घर टीवी देखने जाते हैं। हालांकि कई बार उसका दिल भी टीवी देखने को करता है, लेकिन भाई की बहुओं के कारण वह वहां टीवी देखने भी नहीं जा पाता। ऐसे कई परिवार हैं,  जिनका पास टीवी भी नहीं है।
सीमावर्ती गांवों के लोगों की सीमित मोबिलिटी होने के कारण यहां के ज्यादातर लोगों को सीधे तौर पर दूसरे जिलों में आ रहे बदलाव के बारे जानकारी नहीं मिल पाती है। गांवों के कई लोग डीटीएच सेवा जरिए बाहर की दुनिया से जुड़े हुए हैं। इसी से मनोरंजन और जानकारी हासिल करते हैं।

चार माह का राशन जमा करना मजबूरी उनकी


गुरदासपुर उज्ज दरिया से

उज्ज दरिया के उस पार २० हजार की आबादी वाले करीब १५ गांव पड़ते हैं। यहां के लोगों की मांग थी कि दरिया पर एक पुल का निर्माण किया जाए, क्योंकि बारिश के दिनों में इस इलाके के सभी गांव करीब चार महीने के लिए हर तरह के संपर्क से कट जाते हैं। इसे देखते हुए अब यहां पर पुल निर्माण का काम शुरू हुआ है। इस इलाके में गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वाले लोगों की संख्या अधिक है। रोजगार की समस्या तो उनके सामने है। वहीं मूलभूत समस्या भी कम नहीं है। उज्ज दरिया के वासियों को सेहत समस्या से लेकर आम परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है। यहां पर अधिकतर घरों में अब भी लकड़ी वाला चूल्हा ही जलता है। लोगों को यहांरसोई गैस सिलेंडर ६०० से ७०० रुपए ब्लैक में मिलता है।  पुल बनने के बाद अमृतसर से जम्मू जाने वालों के लिए दूरी कम हो जाएगी। यही नहीं अमरनाथ यात्रा के दौरान ट्रैफिक कंजेशन हो जाने पर उसे इस ओर से निकाला जा सकेगा।
ढिंडा गांव के सरपंच कुलदीप सिंह अपना दर्द कुछ इस तरह जाहिर करते हैं कि उज्ज दरिया पर पुल बनना तो शुरू हो चुका है, अब देखना यह है कि यह कब तक बनकर तैयार होता है। फिलहाल अस्थायी पुल से ही काम चलाना पड़ रहा है, लेकिन बारिश के दिनों में यह पुल भी हटा लिया जाता है। बारिश आएगी और रावी नदी अपना कहर फिर बरपाएगी। हर बार की तरह इस दफा भी उन्हें करीब चार महीने का राशन पहले ही भंडार करके रखना पड़ेगा। यहां जिंदगी की गुजर- बसर बेहद मुश्किल है। इन गांवों में कोई डाक्टर भी मौजूद नहीं है। जिले से संपंर्क टूटने पर इलाज के लिए भी कोई विकल्प नहीं रह जाता। इस समय दौरान वे किसी कामकाज  से भी नहीं जा सकते हैं।
वह कहते हैं कि बमियाल के उज्ज दरिया के इस पार १५ गांव पड़ते हैं। सरकारी मदद नाममात्र ही मिलती है। किसानों के पास रोजगार मिल जाए तो ठीक हैं, नहीं तो मजदूरी के लिए भी बमियाल के पार जाना पड़ता है। इधर गांववासी छोटे-मोटे काम जैसे लोहार, बढ़ईगिरी का काम करके गुजर बसर करते हैं। इस इलाके में एकमात्र कठुआ वाली ही लोकल बस आती है या फिर कोई ऑटोरिक्शा वाला भूल भटके इधर आ जाता है, तो उन्हें आने-जाने में आसानी हो जाती है। हां, यह पुल बन जाने का उन्हें बड़ा फायदा मिलेगा। कम से कम वे रोजगार के लिए बाहर जा सकेंगे साथ ही राशन जमा करने से निजात मिल जाएगी।
गांव धनवाल की श्रेष्ठा देवी ने बताया कि अगर कोई दरिया के तेज बहाव को किश्ती से पार करने की कोशिश करता है, तो उसे सांप के डंसने की आशंका बनी रहती है। उनके इलाके में कई मौतें हो चुकी हैं। कुछ महीने पहले ही एक महिला इस तेज बहाव में बह गई थी और उसकी लाश  पाकिस्तान पहुंच गई थी। उज्ज दरिया पर पिछले साल से करीब दस करोड़ रुपए की लागत से स्थायी पुल बनना शुरू हो चुका है। यह पुल इस साल में पूरा होने की उम्मीद है। इस पुल के बनने से सालों से रावी का कहर झेल रहे लोगों को काफी राहत मिलेगी।
ये हैं गांव
धनवाल, दोस्तपुर, सरोश, मलोहत्र, कोट भट्टियां, खोजकी चक्क, खोजकी चक्क छोटा, ढिंडा, सिंबल, सकोल, कोटली जवाहर, पलाह छोटा, पलाह बड़ा, कलोत्र आदि मुख्य गांव हैं।

रोजगार के नहीं है साधन


कोई तकनीकी योजना नहीं होने से यहां पर रोजगार का साधन ही नहीं पनप सका है। मजदूरी है इनकी रोजी-रोटी की आस।
गांवों में नहीं पहुंची बीपीएल स्कीम : सरपंचों ने बताया कि उनके गांवों को बीपीएल के लिए लाभपात्र में शामिल ही नहीं किया गया।
१९७५ में मैंने बीए पास की थी। दरअसल देखा जाए तो सीमा पर बहुत ज्यादा दिक्कतें नहीं हैं। हमने अपनी ख्वाहिशों का दायरा बढ़ा लिया है। अब घरवालों को मोबाइल, वाशिंग मशीन, बाइक सबकुछ चाहिए। लेकिन इन सबके लिए यहां पर पैसा जुटाना काफी मुश्किल है। हमारे लिए यहां पर सिवाय खेतीबाड़ी के आय का और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। युद्ध की आशंका के बादल सदा मंडराते रहते हैं, यही वजह है कि इधर सडक़ें भी कच्ची हैं।
सरपंच निशान सिंह, गांव चौंतरा, गुरदासपुर

इस गांव में सरकार को चाहिए कि वह पक्के मकान बनाकर दे। छप्पड़ भी विवाद की जड़ हैं, उसे निपटाया जाए। कारगिल युद्ध के दौरान यह गांव उजड़ गए थे, जो फिर दोबारा बसाए गए हैं। अभी तक गांव में ५० शौचालय बनाए गए हैं। वल्र्ड बैंक का प्रोजेक्ट मिला है, गांव में पानी की टंकी लगवाने के लिए। लेकिन गांव की पंचायत के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपनी हिस्सेदारी इसमें दे सके। गांव से केवल १३ हजार रुपए जमा हुए हैं और १२ हजार जुट नहीं पा रहे हैं, ऐसे में यह प्रोजेक्ट भी इस गांव के हाथ से फिसल जाएगा।
सरपंच लखबीर कौर, थेह कलां
गृहिणी तरविंदर कौर कहती है कि महंगाई ने उनकी कमर तोडक़र रख दी है। सस्ता राशन कहीं भी नहीं मिलता है। ऐसे में वे दाल का स्वाद भूल ही गए हैं। गांव डलीरी में सबकी रसोई मजदूरी पर ही चलती है।
बारिश में तबाह होती है फसल
गट्टी राजोके और इसके साथ लगते सभी गांव दरिया की जमीन पर बसे हैं। अधिकतर लोगों ने गिरदवारी करवा रखी है। बारिश के दिनों में दरिया उफान पर होता है और इसके साथ लगती सारी फसल तबाह हो जाती है। इन गांवों में लोगों को नित्य क्रिया भी खेतों में जाकर निपटानी पड़ती है, यहां पर कोई भी शौचालय सरकार ने नहीं बनवाया है।



गलती सर्वशिक्षा अभियान की, भुगतते बच्चे :


गांव टेंडीवाला के प्राइमरी स्कूल में टीचर बच्चों को पढ़ाता है कि जन गन मन..हमारा राष्ट्रगान है, लेकिन इसे राष्ट्रगीत भी कहा जाता है। जब टीचर को बताया कि वह बच्चों को गलत जानकारी दे रहे हैं, तो वे सर्वशिक्षा अभियान की ओर से प्रकाशित किताब का हवाला देते हुए दिखाते हैं कि इसमें जो लिखा गया है, हम वही पढ़ा रहे हैं। अब इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां पर शिक्षा का कैसा स्तर है और जो बच्चे यहां से पढ़ लिखकर निकलेंगे, उनका ज्ञान भी कैसा होगा।

एक तस्वीर यह भी : खुशहाल जमींदार
यहां का किसान काफी खुशहाल दिखता है। हरित क्रांति का भरपूर फायदा मिला है। जमींदार मोटरसाइकिल पर सवार होकर आता है। इस क्षेत्र में दो तरह के किसान हैं, पहला सुस्त दूसरा चुस्त। सुस्त किसान गेहूं जैसी फसल लगाकर अराम फरमाता है। इसमें कोई तीन से चार बार पानी लगाना पड़ता है। दूसरा किसान अपने खेत में तीन प्यालियां बनाकर तीन तरह की सब्जियां उगाता है।
 जमींदार तरसेम सिंह मोटरसाइकिल पर सवार होकर आता है। अपने साथ चाय बनाने के लिए लाया दूध नीम के पेड़ के नीचे रखता है। दोपहर की रोटी वह पेड़ की एक डाल के साथ बांधकर टांग देता है। बिजली की तार पर कुंडी डालकर मोटर को चालू करता है। हुसैनीवाला बार्डर के गांवों पर जिधर नजर पड़ती थी, उधर लहलहाती फसल नजर आती थी।
इस क्षेत्र में दो तरह के किसान हैं, पहला सुस्त दूसरा चुस्त। सुस्त किसान गेहूं जैसी फसल लगाकर अराम फरमाता है। इसमें कोई तीन से चार बार पानी लगाना पड़ता है। दूसरा किसान अपने खेत में तीन प्यालियां बनाकर तीन तरह की सब्जियां उगाता है। इसके लिए तरसेम जैसे किसानों को खूब मेहनत करनी पड़ती है। वह सुबह ही आकर जहां खेत में जुट जाता है, फिर शाम ढलते ही जैसे ही बीएसएफ की सीटी बजती है, अपना काम खत्म कर घर के लिए रुखसत हो जाता है। महीने भर में उसकी फसल तैयार हो जाएगी और उसका अपनी लागत से तिगुना फायदा मिल जाएगा। अभी उसने बैंगनी, खीरा बीज रखा है और कुछ दिनों बाद उसके यहां खीरा इतना पैदा हो जाएगा कि उसे रोज २५ मजदूर लगाकर इसे तोडक़र मंडी में बेचने जाना पड़ेगा।

उस पार खेती, बर्बाद कर जाते हैं पाकिस्तानी सूअर : कई किसानों की खेती फेंसिंग के उस पार है। जब बीएसएफ गेट खोलती है, तो वे उस पार जाते हैं। उनकी फसल को कई बार उस पार सूअर नष्ट कर जाते हैं।

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