सोमवार, अप्रैल 25, 2011

यहां पीढ़ी कुदेसन के सहारे बढ़ती है

पता नहीं यहां दुल्हन कब आएगी?
यहां शादी कभी नहीं हो सकती!

सीमांत गांवों में कई बेरोजगार कुंवारे शादी के इंतजार में उम्रज़दा हो गए

किस्सा : तलाश एक अदद दुल्हन की
पंजाब के इन सीमांत गांव में घूमते हुए मुझे अनायास ही जतिंदर बराड़ का लिखा नाटक कुदेसन याद आ गया। कुदेसन को पढऩे के बाद यही लगता है कि जैसे वो दास्तां इन्हीं गांव से ली गई है। यहां के किसान अक्सर बिहार या यूपी अपने पशु बेचने जाते हैं और वहां से किसी की लडक़ी को ले आते हैं, जिसे वे अपनी बहू के रूप में अपना लेते हैं। वहीं कुछ लोग इतंजार में ही अपनी उम्र पार कर जाते हैं।
खेमकरण सेक्टर से चंदन स्वप्निल
सरकार के दावे बड़े लंबे-चौड़े हैं और उनकी पोल यहां पर आकर देखने से खुल जाती है। बार्डर के ये गांव अब भी विकास की राह से कोसों दूर हैं। तरक्की के नाम पर चंद गांवों में ही कुछ पक्की सडक़ें दिख जाती हैं। सीमा से सटे यह गांव देश की बात तो दूर रही अपने राज्य पंजाब से ही कटे नजर आते हैं। दूर-दूर तक यहां नजर पड़ती है, केवल लहलहाती फसल और उनमें गिनी-चुनी कोठीयां या कच्चे मकान दिखते हैं। यहां पर खेतीबाड़ी ही आय का मुख्य साधन है। अधिकतर युवक पढ़ाई के मामले में बारहवीं से आगे बढऩे की हिम्मत हार जाते हैं। इन बेरोजगार युवकों के सामने अपनी खेतबाड़ी या मजदूरी करना ही अंतिम विकल्प बचता है।
दूरदराज तक बसे इन गांवों में बिजली भी जरूर पहुंच गई है। गिने-चुने लोगों के पास मोबाइल फोन भी है। मकान बेशक कच्चे हों, लेकिन छत पर डिश टीवी लगा हुआ जरूर मिलेगा। इससे इतर इनके घर वालों के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने युवा हो चुके बेटों के लिए एक अदद बहू की तलाश जैसे सपना ही रह गई है। अधिकतर गांवों में ‘कुदेसन’ ही इनकी पीढ़ी को आगे बढ़ा रही है। 5० वर्षीय कुलबीर कौर का बेटा बारहवीं पास करके पिछले छह साल से घर की खेती में हाथ बंटा रहा है। उनकी एक बड़ी बेटी थी, जिसे उन्होंने शहर में ब्याह दिया है। कुलबीर अपने लंबे-चौड़े गबरू को देखकर यही चिंता सताती रहती है कि पता नहीं उसकी पुत्रवधु आएगी भी या नहीं। कुलबीर उलाहना देते हुए कहती है कि लोग यहां से तो कुड़ीयां ब्याह कर ले जाते हैं। लेकिन सीमांत गांव पर बसे होने के चलते उन्हें कोई अपनी बेटी देना नहीं चाहता। इसकी सबसे बड़ी वजह पड़ोसी मुल्क द्वारा हमले का खौफ और इन गांव में आए दिन तस्करी की खबरें भी इनके लिए परेशानी खड़ी कर देती हैं। जिसके चलते यहां ना तो उतना विकास हो पाया है ना ही कोई काम धंधा ढंग से पनप पाया है। इसलिए लोग अपनी बेटियों को इन गांवों में भेजना ही नहीं चाहते हैं। यह समस्या केवल गांव माछीके की कुलबीर की ही नहीं है बल्कि बार्डर के हर गांव की यही हकीकत है।
जब मैंने कुदेसन से यहां बात करनी चाही तो कोई भी बात करने के लिए तैयार नहीं हुई। लोगों ने दबी जुबान में यह जरूर कबूला कि हां, जब वे लोग बाहर अपनी फसल या पशुधन बेचने जाते हैं, तो वहां से किसी बाहरी लडक़ी को दुल्हन बनाकर ले आते हैं।  इस क्षेत्र में तीस फीसदी युवा शादी के इंतजार में बुढ़ापे की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। उनके लिए शादी जैसे एक हसीन ख्वाब ही रह गई है। लगभग 50 वर्षीय सुरिंदर सिंह ने बताया कि उसकी जवानी शादी के इंतजार में ही बीत गई। अब वह आसपास छोटे बच्चों को खेलते देखकर ही खुश हो जाता है। इस उम्र में आकर उसकी शादी करने की तमन्ना भी खत्म हो गई है। वह कहता है कि रब मेहर करे, जो उनके साथ हुआ वह किसी और के साथ ना बीते।
इन किसानों के घरों में ट्रैक्टर, पीटर रेहड़ा और एक मारूति 800 कार भी दिख जाएगी। जमीन भी इनके पास काफी है। कुछ गिनचुने घरों में एसी भी लगे हुए हैं। लेकिन इक पंजाबण का साथ उनकी दिली ख्वाहिश ही रह गई है। गुरलाल सिंह बारहवी पास है। दूसरे गबरूओं की तरह उसे भी पत्नी का इंतजार है। पढ़ाई करने के बाद उसे कहीं कोई काम नहीं मिला, तो वह मजदूरी की सोच रहा है। उसकी उम्मीद आज भी जवां है कि शायद कहीं से कोई उसके लिए रिश्ता लेकर आएगा।
इन कुंवारों के लिए यही कहा जा सकता है कि
‘रोज ये पंछी आते हैं मेरे दर पे दस्तक देने/
उन बेचारे ख्वाबों का क्या करें, जो तुम्हारी याद दिलाते हैं/
इन आंखों तले हमने भी एक ख्वाहिश छुपा रखी है।’

सामूहिक विवाह में कभी खुलती है किस्मत
हर साल अमृतसर में रोटरी क्लब या अन्य सामाजिक संस्थाएं साल में दो-तीन बार सामूहिक विवाह समारोह का आयोजन करती हैं। इसमें उन लड़कियों की शादी करवाई जाती है, जो काफी निर्धन होती हैं। ऐसे में अधिकतर लडक़े सीमांत गांवों से आते हैं, जो बिना दहेज के इन्हें ब्याहकर ले जाते हैं।
फैक्ट
सीमांत गांवों में कुंवारे ३० फीसदी

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