सोमवार, सितंबर 19, 2011

पूंजी नियंत्रण क्या है?


देश में विदेशी पूंजी का प्रवाह कर्ज और इक्विटी के तौर पर होता है।इस कर्ज और इक्विटी को कुछ खास क्षेत्रों में इजाजत होती है। यानि इस संबंध में प्रतिबंधित नियम बनाए जाते हैं। पहले बंद अर्थव्यवस्था वाले  पूंजी पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा देते थे।

लेकिन 1980 के दशक के बाद से कई देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए खोलना शुरू किया।पूंजी पर नियंत्रण थोड़ा कम किया गया।बाहर से विदेशी पूंजी को लाने के लिए सुविधा प्रदान की गई।इससे ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम के साथ अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण हो सका।


पूंजी प्रवाह क्या है?
भुगतान संतुलन जो किसी देश का बाहरी बैलेंस शीट होता है के नजरिये से देखें तो विदेशी मुद्रा का प्रवाह दो हिस्सों में बंटा होता है। पहला करंट अकाउंट यानि चालू खाता और दूसरा पूंजी खाता प्रवाह।चालू खाते में प्रवाह वस्तुओं और सेवाओं के लेनदेन से पैदा होता है और यह स्थायी प्रकृति का होता है। विभिन्न तरह के कर्ज और इक्विटी निवेश में पूंजी खाते का प्रवाह जरूरी होता है।हालांकि इसे उल्टा भी किया जा सकता है।यही वजह है कि नीति-निर्माता पूंजी के प्रवाह पर पर नजदीकी निगाहें बनाए रखते हैं।


भारत में पूंजी प्रवाह कितने तरह के हैं?
भारत में कॉरपोरेट और कारोबारी समूह की ओर लिए जाने वाले विदेशी कर्ज, अनिवासी भारतीयों के डिपोजिट और संस्थागत विदेशी निवेशकों की ओर से स्टॉक मार्केट में किए जाने वाले निवेश की वजह से देश में विदेशी मुद्रा आती है। इसके अलावा सरकार की ओर से लिए जाने वाले कर्ज और छोटी अवधि के लोन लेने की वजह से देश में विदेशी मुद्रा यानि पूंजी आती है।


भारत में पूंजी हद तक हटा है?
भारत पूंजी और चालू खाते में होने वाले लेनदेन पर नियंत्रण के जरिये पूंजी नियंत्रण करता है।केंद्रीय बैंक इसके लिए स्थायी करंसी का मूल्य निर्धारित करता है।हालांकि 1991 में जब भारतीय अर्थव्यवस्था के ढांचे में परिवर्तन हुआ तो रुपये को चालू खाते में पहली बार परिवर्तनीय किया गया।1994 में एक बड़ा परिवर्तन किया गया।सरकार ने फॉरेन पोर्टफोलियो इनवेस्टमेंट को मंजूरी दे दी। समय के साथ एफडीआई और विदेशी बाजार से कर्ज लेने के नियम में परिवर्तन किया गया।


दोबारा पूंजी नियंत्रण की बात क्यों उठ रही है?
दरअसल अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी की मात्रा ज्यादा होने से तरलता बढ़ जाती है। बाजार में तरलता ज्यादा होने से परिसंपत्तियों में बुलबुला बनने लगता है।सस्ता ऋण मिलने की वजह से मुद्रा का इस्तेमाल सटोरिया गतिविधियों में होने लगती है।इससे स्थानीय मुद्रा पर असर पड़ता है।इस समय कई उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं बाहरी पूंजी के बेहतर प्रवाह के असर का सामना कर रही हैं।

इसलिए पूंजी प्रवाह पर नियंत्रण की बात उठ रही है।इसके लिए विदेशी पूंजी पर टैक्स लगाने जैसे उपाय आजमाए जाते हैं।भारत में भी पूंजी प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए टैक्स लगाने की बात उठी है।लेकिन अभी इस पर नीति-निर्माताओं में सहमति नहीं बन पाई है।और न ऐसी स्थिति ही आई है।

क्या होता है परिसंपत्ति बुलबुला?


संपत्ति अपने आप में एक ऐसी चीज है जो किसी भी समय आपके काम आ सकती है। लोग केवल अपने उपयोग के लिए ही संपत्ति की खरीद नहीं करते हैं बल्कि निवेश करने के लिए भी संपत्ति खरीदते हैं। पिछले कुछ समय से सोने की कीमतों में काफी तेजी देखी जा रही है, जिसके चलते जिन लोगों ने पहले ही सोने में निवेश कर दिया था उन्हें काफी लाभ हुआ है।



लेकिन कई बार संपत्ति की कीमत में अचानक से ही बढ़ोतरी होने लगती है तब इस बात की आशंका पैदा हो जाती है कि कहीं यह बढ़ोतरी कृत्रिम (एसेट बबल) तो नहीं है। मतलब कि कहीं यह अचानक से ही गायब तो नहीं हो जाएगी। उदाहरण के लिए सोने की कीमतों को लेकर भी जानकारों के बीच इस बात को लेकर बहस चल रही है कि सोने की कीमतों में आ रहा अप्रत्याशित उछाल वास्तविक है या फिर ये केवल एक एसेट बबल है।
क्या होता है परिसंपत्ति बुलबुला?
एसेट बबल यानि परिसंपत्ति बुलबुले का अर्थ यह है कि जब किसी संपत्ति या वस्तु की कीमत उसकी वास्तविक कीमत से ज्यादा बढऩे लगती है या फिर उसके दाम कीमत के मुकाबले सेंटिमेंट के हिसाब से चलने लगते हैं।



लेकिन फिर अचानक ही उसकी कीमतों में भारी गिरावट आ जाती है जिससे उसके दाम काफी नीचे आ जाते हैं तो इसे एसेट बबल का फूटना कहते हैं। यह पूंजी बाजार ,आर्थिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में हो सकता है। परिसंपत्ति बुलुबुला की अवधि तो कम होती है लेकिन यह संबंधित संपत्ति की कीमतों पर अपना असर ज्यादा लंबे समय तक छोड़ता है।




परिसंपत्ति बुलबुला बनने के उदाहरण बताएं?
सबसे बड़ा परिसंपत्ति बुलबुला 20वीं सदी के दूसरे दशक के दौरान अमेरिकी शेयर बाजार में आया था। उस समय अमेरिका में आर्थिक तरक्की और समृद्धि का दौर चल रहा था। लेकिन 1929 में अमेरिकी शेयर बाजार का यह करिश्मा टूटा और वैश्विक मंदी की शुरूआत हो गई। कहा जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध के शुरू होने में इस वैश्विक मंदी का भी योगदान रहा था जिसमें लाखों लोग मारे गए थे।



इसी तरह का एक बुलबुला बीसवीं सदी के अंत में भी आया था। इसकी शुरुआत 1990 में हुई थी। इस बबल के दौरान वैश्विक स्तर पर मार्केट में तेजी दर्ज की गई लेकिन 2000 में यह बबल फूटा और दामों में तेजी के साथ कमी दर्ज की गई। इस तरह 2008 के दौरान अमेरिका में हाउसिंग बुलबुला पैदा हुआ और जो आखिरकार सब-प्राइम संकट में तब्दील हो गया है। इसकी वजह से पूरी दुनिया की इकोनॉमी में उथल-पुथल मच गई।




परसंपत्ति बुलबुला को कैसे पहचानेंगे?
परिसंपत्ति बुलबुले की पहचान करने का कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक तरीका नहीं है। इसका पता तब ही चलता है जब यह फूट जाता है। शुरुआती दौर में तो इसका पता करना बहुत ही मुश्किल होता लेकिन बाद में कुछ संकेतों से इसे पहचाना जा सकता है। जब संपत्ति की कीमत लगातार बढऩे लगे तो यह बात समझ लेनी चाहिए कि क्यों बिना रुके संपत्ति की कीमत बढ़ रही है।



संपत्ति की कीमत बढऩा आम बात है लेकिन जब इसमें बिना रुके हद से ज्यादा बढ़ोतरी होने लगे तो यह बात फिर गौर करने लायक हो जाती है कि कहीं यह परिसंपत्ति में बन रहा बुलबुला तो नहीं है जो कभी भी फूट सकता है।

क्या है रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया महंगाई थामने के लिए हमेशा रेपो और रिवर्स रेपो रेट बढ़ाता है। आइए हम बताते हैं कि क्या हैं ये दोनों।

रेपो रेट वह दर है जिस पर रिजर्व बैंक कमर्शियल बैंकों को ऋण देता है। यह ऋण अल्प अवधि के लिए होता है। जब रेपो रेट बढ़ाया जाता है तो ऋण महंगे हो जाते हैं। रिजर्व बैंक इस हथियार का इस्तेमाल बाज़ार में ब्याज दरों को ऊंचा रखने के लिए करता है। जब ब्याज दरें घटानी हो तो रेपो रेट भी घटा दिया जाता है।

इसी तरह रिवर्स रेपो रेट वह दर है जिस पर रिजर्व बैंक को कमर्शियल बैंकों ऋण देता है। यह ऋण भी अल्प अवधि के लिए होता है। इसमें बढ़ोतरी का मतलब यह होता है कि रिजर्व बैंक बैंकों से ऊंची दरों पर धन लेना चाहता है। इससे बैंक रिजर्व बैंक को ज्यादा से ज्यादा धन देना चाहते हैं। ऐसा करके रिजर्व बैंक बाज़ार में तरलता बढ़ने से रोकता है।

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