शुक्रवार, नवंबर 29, 2013

यार, 5 रुपये और दो, सिगरेट भी तो पीनी है ऐसे थे साहिर लुधियानवी


माना के हम जमीं को न गुलजार कर सके
कुछ खाक तो कम कर गए, गुजरे जिधर से हम

अब्दुल हई यानी साहिर लुधियानवी 8 मार्च 1920 को जमीदार फजल मुहम्मद के घर जन्मे। लेकिन पिता का घर का ऐशो आराम नसीब न हुआ। अब्दुल की मां ने उनके जन्म के बाद ही उनके पिता से जायदाद में अपना हिस्सा मांगा। नतीजतन पिता ने साहिर की मां को अपने घर से निकाल दिया। पिता के रवैये ने साहिर को इतना एकाकी, तन्हा और डरा-सहमा बना दिया कि उन्होंने अपनी एक अलग ही दुनिया बना ली। ये दुनिया थी, उनकी सोच, नज्मों की और मोहब्बतों की। जोकि इस दुनिया से काफी इतर थी। साहिर जितने खुशमिजाज दोस्त माने जाते थे, असल में वह उससे कहीं ज्यादा भावुक इंसान थे।
उनकी भावकुता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पढ़ाई के दौरान एससीडी गवर्नमेंट कॉलेज फार ब्वायज की एक दीवार को अपने गम का साथी बनाया था। वे घंटों दीवार पर बैठते और रो कर अपने मन में छुपे गुबार को निकाल देते।  साहिर को प्रकृति से भी प्यार था। उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में कॉलेज में एक पौधा लगाया था। जो आज एक बड़ा पेड़ बनकर उनकी निशानी के रूप में वहां मौजूद है। कॉलेज के दिनों में उन्हें जगराओं के पास रहने वाली ईशर कौर से मोहब्बत हो गई थी। जवानी की दहलीज पर रखे शुरुआती कदमों के साथ जवां होती उनकी मोहब्बत के पैगाम उस समय कामरेड मदन गोपाल ही ईशर कौर तक पहुंचाते थे। लेकिन जब इस प्यार की खबर फाउंडर प्रिसिंपल एसीसी हारवे को लगी, तो उन्होंने साहिर को कॉलेज से निकाल दिया। ये वाक्या 1941 का है। उस वक्त साहिर बीए फस्र्ट ईयर के स्टूडेंट थे। इसका जिक्र भी साहिर ने कुछ यूं किया था-
'गर यहां के नहीं तो क्या,
यहां से निकाले तो हैं।
लेकिन वो साहिर की दुनिया थी, नज्मों की, मोहब्बतों की और यकीनन दोस्तों की भी। साहिर शाम के वक्त अपने दोस्त अजायब चित्रकार, सत्यपाल, प्रेम वारभटनी जो मलेरकोटला से आते थे और कृष्ण अदीब को अपनी नज्में सुनाया करते थे। यूं तो ये सभी दोस्त मिलनसार थे, लेकिन साहिर इनमें खुद को शायद कभी-कभी आर्थिक रूप से कमजोर मानते थे। अपनी महबूबा को कभी कोई कीमती तोहफा न देने का गम भी शायद इन्हें सालता था। इसका जिक्र साहिर ने कुछ यूं किया है -
'बना के ताज महल इस शंहशाह ने,
हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक।
यह भी सच्चाई है कि उस वक्त तक खुद साहिर ने कभी ताजमहल नहीं देखा था। इस नज्म को सुनकर साहिर के दोस्तों ने उसे 20 रुपये दिए और ताजमहल देखकर आने को कहा। इस पर साहिर का जवाब था, 'अरे यार, 5 रुपये और दो, सिगरेट भी तो पीनी है।Ó खैर जिंदगी यूं ही चल रही थी कि एक दिन नया मोड़ आया, जो ले गया उन्हें मुंबई। साहिर अपनी अम्मी सरदार बेगम के साथ मुंबई आए।
साहिर के मुबंई में रहते हुए ही ईशर कौर अपना सब कुछ छोडक़र वहां आ गई, लेकिन हफ्ते भर में उन्हें वापस आना पड़ा। साहिर ने वहां करीब डेढ़ साल संघर्ष किया। इस दौरान उनकी अम्मी ने उन्हें वहां से वापस चलने को भी कहा। लेकिन साहिर न माने, एक दिन अचानक उनकी मुलाकात एसडी बर्मन से हुई। एसडी बर्मन ने कहा, 'मैं धुन छेड़ूंगा, तुम अभी बोल बनाओ...Ó साहिर ने गीत लिखा, 'ये ठंडी हवाएं, लहरा के आएं..,Ó जिसे लता मंगेश्कर ने गाया था। उनका पहला गाना ही हिट रहा। इसके बाद साहिर ने जो किया, वो दुनिया के सामने है। हालांकि मुंबई में भी लता मंगेशकर, अमृता प्रीतम के साथ उनके प्रेम संबंधों के किस्से काफी सुने गए। लेकिन उन्होंने खुद अपना नाम किसी के साथ नहीं जोड़ा।
साहिर किसी की मदद में पीछे नहीं रहते थे और उसूलों के भी पक्के थे। उन्होंने अपनी सौतेली बहनों को अपने पास रखा था, आजादी की जंग में जिस शख्स ने उनकी अम्मी को रिफ्यूजी कैंप में बचाया था। जब उसे मदद की जरूरत थी, तो उसे मुंबई में अपने घर पर रखा। लेकिन जब उस इंसान ने मांगे ज्यादा कर दीं, तो उसे घर से निकाल दिया। एक बार जावेद अख्तर को उन्होंने 200 रुपये दिए थे। जावेद उन्हें ये उधार वापस करने की जब भी बात करते, साहिर उन्हें चुप करवा देते। लेकिन 1980 में जब साहिर को उनकी इंतकाल के बाद दफनाया जा रहा था, तो जावेद भी उन्हें अंतिम विदाई देने आए थे। और जब जावेद वापस जा रहे थे। कहते हैं कि एक शख्स जावेद के पास आया और कहा कि मैं जा यहां से जा रहा हूं, मेरी जेब खाली है, मुझे 200 रुपये दे दो। वो कौन था? कहां से आया था? ये कोई नहीं जानता।

लोधियाना किला, ऐसे बना लुधियाना



15वीं सदी में शहर के सतलुज के किनारे एक रणनीति के तहत दिल्ली के शासक सिकंदर लोधी ने किले का निर्माण कराया। तब इस क्षेत्र में डकैतों को काफी आतंक था। यहां के लोगों ने उस समय दिल्ली के शासक लोधी से मदद मांगी थी। उसने अपने दो सेनापतियों के साथ सिपाहियों को भेजा। उन्हीं लोगों ने इस किले का निर्माण कराया थ।
यह 5.6 एकड़ में फैला हुआ था। मगर अब इसके अधिकांश भाग पर लोगों को कब्जा है। इसे सतलुज नदी के किनारे बनाया गया था। मगर बाद में सतलुज ने अपना रास्ता बदल लिया। उसके बाद अवैध ढंग से कब्जा करने वालों की किस्मत खुल गई। उन्होंने इसके बड़े भाग पर कब्जा कर लिया। जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई कब्जा करने वालों की संख्या भी बढ़ती गई। सुल्तान लोधी ने किले में रहने के लिए अपने दो जनरल, यूसुफ खान और निहंग खान प्रतिनियुक्त किए थे। किले तक पहुंचने के लिए ग्रैंड ट्रंक रोड और किले के सामरिक महत्व के रूप में विकसित पथ भी इसके साथ जुड़ा।
किले लोधी के लिए और बाद में अन्य मुस्लिम शासकों के बाद उसे मजबूत स्थिति प्रदान की है. इसके महत्व को स्वीकार करते हुए महाराजा रणजीत सिंह ने। उन्होंने सतलुज नदी की दूसरी तरफ एक बहुत मजबूत गढ़ बनाया. 19 वीं सदी की शुरुआत में महाराजा रणजीत सिंह ने दिल्ली में कमजोर मुस्लिम शासन का फायदा उठाया और किले की बहुत प्रतिरोध के बिना नियंत्रण स्थापित कर लिया। अपने शासन के पतन के साथ किला चुपचाप ब्रिटिश सेना के हाथों में पारित कर दिया।
किला न केवल ब्रिटिश शासन के दौरान, यहां तक कि आजादी के बाद जब भारतीय सेना की सिख रेजीमेंट को यहां तैनात किया गया था। उन्होंने कुछ दशकों तक इसे अच्छी तरह सेे संभाले रखा. लेकिन इसके प्रस्थान के बाद खाली किला देखरेख के अभाव में गिरने लगा। रखरखाव और मरम्मत के अभाव की वजह से जगह-जगह से ढहने लगा है। नतीजतन, कई स्थानों पर किले की संरचना पूरी तरह से गायब हो गई है। वर्तमान में यहां केवल बाहरी दीवार के खंडहर, दो बड़े प्रवेश द्वार की एक सुरंग जो सतलुज के नीचे से फिल्लौर तक जाती है, कुछ जीर्ण बैरकों के अलावा कुछ नहीं है।
महाराजा रणजीत सिंह ने एक बड़ी और रहस्यमय सुरंग खोदी थी, जो सतलुज नदी के उस पार अपने आवासीय महल के साथ लोधी फोर्ट फिल्लौर शहर में जुड़ा हुआ है। अब सिर्फ सुरंग का प्रवेश द्वार दिखता है, जबकि पथ मलबे और अन्य अपशिष्ट पदार्थ से अवरुद्ध हो चुका है।
स्थानीय निवासियों ने इसकी बाहरी दीवारों पर खुदाई कर दी है। इसके चारों तरफ बने घरों से पता ही नहीं चलता कि बीच में कोई किला है। इसके मुख्य द्वार पर भी कोई ऐसा बोर्ड नहीं है, जो ऐतिहासिकता को प्रमाणित करे। यहां कोई बोर्ड हस्ताक्षर या किले में जगह के इतिहास के बारे में ऐसा कुछ नहीं लिखा है, जो यहां आने वालों को बताए कि इस स्थान की महत्ता क्या है?

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