सोमवार, अप्रैल 12, 2010

ek zindgi sima par sey


इक जिंदड़ी जेहड़ी बोझ बण गई

फिरोजपुर सीमा से केंद्र और राज्य की अनदेखी का शिकार गांव टेंडीवाला पाकिस्तान और सतलुज के खौफ में जीने को विवश है। चाहे पाक रेंजर्स की शरारत हो या उफनती सतलुज, इन्हें अपनी लहलहाती फसल का सर्वनाश देखना पड़ता है। इन गांवों को कोई भी सुविधा सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई है। सड़क, यातायात के साधन, सेहत, शिक्षा, नौकरी की बात छोड़ भी दें, तो उन्हें बाड़ के पार खेती करने में भी दिक्कतों का भी सामना करना पड़ता है।


कच्चे मकानों में रहने वालों को भी हिंदुस्तानी होने का गर्व है, लेकिन सरकार उनका बेड़ा गर्क कर रही है। अगर सीमा पर कोई घटना हो जाए तो कई दिनों तक बीएसएफ पहरेदारी लगा देती है जिससे उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।गांवों में अभी तक सीवरेज और पेयजल की सुविधा नहीं पहुंची है। नारकीय स्थिति में जी रहे ये गांव नित्य क्रिया के लिए अब भी खेतों में जाते हैं। जिनके पास थोड़ा बहुत पैसा है, उन्होंने अपने घर में अस्थायी शौचालय बना रखे हैं।


ऐसे घर भी अंगुलियांे पर गिने जा सकते हैं। जल निकासी नहीं होने से गंदा पानी छप्पड़ में जमा होता है। कपड़े धोने के लिए महिलाओं को नदी तक जाना पड़ता है। यहां आने पर लगता है कि जैसे वक्त ठहरा हुआ है और लोग 18वीं सदी में जी रहे हैं। गांववासियों को नहीं लगता है कि कोई राजनेता इनकी पीड़ा दूर कर सकता है।


भैणी दिलावर के राजिंदर सिंह कहते हैं कि इलाके में जन्म लेने वाले अपना टाइम पास करते हैं। किसी तरह का उत्साह नहीं बचा है। न सड़क है, न शौचालय। यह जिंदगी उनके लिए बोझ बन गई है। इन गांवों में डाक्टर बंगाली या आरएमपी जैसे झोलाछाप ही हैं। इस क्षेत्र की स्थिति इतनी बदतर है कि यहां आने के लिए कोई राजी नहीं होता है। इन गांवों से शहर जा बसे लोग कभी वापस नहीं लौटे। असुविधा के कारण कोई इस ओर रुख नहीं करता। लोगों को अपने बच्चों की शादी भी नजदीकी गांव में करनी पड़ती है। जिन लोगों को जहां पर कोई काम नहीं मिलता है, उन्हें फिरोजपुर शहर की ओर रुख करना पड़ता है।


गांव चंदीवाला का एकमात्र बीए पास राजकुमार कहता है कि इतनी मुश्किलों को पार पाकर उसने किसी तरह फिरोजपुर शहर से बीए पास की। लेकिन उसे कोई नौकरी नहीं मिली। मजबूरन उसे अपने परिवार की देखभाल के लिए पशुओं के पीछे जाना पड़ता है। अगर स्थानीय युवकों को बीएसएफ में नौकरी मिल जाए और यहां की सीमा की सुरक्षा सौंपी जाए तो लोगों का रहन-सहन का स्तर ऊंचा तो होगा ही तस्करी पर भी रोक लग सकती है। स्थानीय लोग गलत धंधे में लिप्त लोगों को बेहतर पहचानते हैं।

मंगलवार, अप्रैल 06, 2010

सीमा का हर घर ४१,५७६ रुपये का कर्जदार



भारत पाक सीमा से

पाकिस्तान की सीमा से भारत के सीमा क्षेत्रों में अन्य देशों की सीमा की तुलना में प्रतिकूलता ज्यादा है। इसका कारण पंजाब में एक लंबे दशक तक चला आतंकवाद का दौर, राज्य में अन्य समस्याएं जैसे अप्रवासी समस्या, तस्करी, अपराध, नागरिकों की हत्या आदि रहा है। इन समस्याओं पर काबू पाने के मकसद से बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती यहां पर करनी पड़ी। ५५३ किलोमीटर दूर तक फैली पाकिस्तान के साथ लगती पंजाब की सीमा के वासियों को सामाजिक-आर्थिक दिक्कतों के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक दबाव भी झेलना पड़ रहा है।

सीमावर्ती क्षेत्र में समस्त बाधाओं को देखते हुए यहां पर विकास की संभावनाओं की योजना पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। पड़ोसी मुल्क के रवैये के चलते यहां के वासियों की भौगोलिक स्थिति के आधार पर उनकी खास जरूरतों को तरजीह दी जाए। सीमावासियों में अप्राप्यता और असुरक्षा की भावना को दूर करना होगा। अभी तत्काल आवश्यकता इस बात की है कि सीमावासियों के दिलों में घर कर चुकी असुरक्षा की भावना को दूर किया जाए। शिक्षित-अशिक्षित कुशल और अकुशल बेरोजगारों की फौज में खासा इजाफा हुआ है। रोजगार सृजन के लिए लागू किए जा रहे कार्यक्रम वांछित नतीजे नहीं दे सके हैं। उधर मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल लगातार कहते आ रहे हैं कि पड़ोसी मुल्क की गतिविधियों से पंजाब सशंकित है।

सीमा क्षेत्र की हालत राज्य के पिछड़े इलाकों से भी ज्यादा खराब है। यहां के लोगों में तीव्र अंसतोष भरा हुआ है। सरकार इनकी सुध बिलकुल नहीं लेती। हमने जो स्थिति इस रिपोर्ट में बयान की है, वह दरअसल गुरदासपुर, तरनतारन, अमृतसर, फिरोजपुर सीमावासियों से बातचीत पर आधारित है। लोगों की शिकायतें यही हैं कि उन्हें दिहाड़ी भी बहुत कम मिलती है। गांव में गिनेचुने किसान हैं और मजदूरी पर निर्भर रहने वालों की संख्या बहुत अधिक है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि फिरोजपुर क्षेत्र को छोडक़र बाकी इलाकों में खेतीबाड़ी कोई फायदे का कायदा नहीं रहा है। यही वजह है कि अधिकतर युवा अब इस ओर रुख करना नहीं चाहते हैं। बहरहाल कुछ पढ़ेलिखे किसानों ने फ्लोरीक्लचर, हार्टिकल्चर, डेयरी फार्मिंग और एग्रो प्रोसेसिंग जैसे काम की ओर कदम बढ़ाया है। चाहे कुछ भी हो बार्डर अब भी कृषि क्षेत्र में अपना प्रभुत्व रखता है। अब भी रोजगार और आय का स्रोत काफी हद तक इसी पर निर्भर करता है।

हमें नहीं, आरक्षण की जरूरत शहरी महिलाओं को

वहीं गुरदासपुर बेल्ट में गुर्जरों की संख्या अधिक है, वे पशुपालन के माध्यम से काफी अच्छी हैसियत रखते हैं। भूमिहीन किसान पशुपालन व दुग्ध उत्पादन की ओर अग्रसर है, लेकिन उन्हें दूध की उचित कीमत नहीं मिलती है। दोधी मनमाने दाम उनसे दूध ले जाता है। कोआप्रेटिव भी उचित मूल्य अदा नहीं करती है। बार्डर क्षेत्र की एक खासियत दिखी कि यहां की महिलाएं मर्दों के बराबर मेहनत करती हैं, चाहे वह खेत, पशुपालन हो या घर हो। उनसे पूछने पर कि क्या उन्हें आरक्षण चाहिए, तो वे कहती हैं कि उन्हें इसकी क्या जरूरत है, यहां तो वे हर काम में मर्दो को चुनौती देती हैं, आरक्षण की जरूरत शहरी महिलाओं को होगी।

टीचर राम कुमार का कहना है कि इस क्षेत्र में सरकार को चाहिए कि रोजगार के साधन मुहैया कराए। सीमांतवासियों में बेहतरी की उम्मीद जगाए, कम से कम ५० किलोमीटर के दायरे में किसान अपना माल बेच सके। ऐसी व्यवस्था होगी, तो उसे आय बढिय़ा होगी। यहां पर लोग खेतीबाड़ी से इतर पोलट्री व्यवसाय और मछली पालन भी कर रहे हैं। लेकिन सही धंधे के बारे में उचित जानकारी नहीं होने के चलते निर्माता को खास फायदा नहीं मिल पा रहा है। यहां पर कोई प्रशिक्षण शिविर भी नहीं लगाए जाते। यह अच्छा मजाक है कि उसे अपनी ही बनाई हुई वस्तु बाद में महंगे दाम पर खरीदनी पड़ती है।

नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन २००३ की रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब के ६५.४० फीसदी किसान कर्ज के भार तले दबा है। बार्डर में प्रति घर के हिसाब ४१५७६ रुपये का कर्जा है। रिपोर्ट के मुताबिक ७६ फीसदी लोग साहूकारों से कर्ज लेते हैं। गैर सीमांत क्षेत्रों की तुलना में यहां पर कर्ज की मार झेलते लोगों की संख्या अधिक है। इसकी वजह भी किसान यही बताते हैं कि उन्हें खेतीबाड़ी में सरकारी एजेंसियों की तरफ से सुविधाएं नहीं मिलती हैं, उनकी कागजी कार्यवाही बड़ी लंबी-चौड़ी होती हैं। तयशुदा अवधि में रियायती दर पर कर्ज उपलब्ध हो, ताकि वह कमीशन एजेंटों और सूदखोराों के जाल से बच सके, जो उससे मनमानी ब्याज दर वसूलते हैं। कर्ज की मार का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे अपनी फसल की लागत निकालने में भी सक्षम नहीं हैं, जिससे कि वे अपनी घर की जरूरतें पूरी कर सकें।

कर्ज के बोझ और गरीबी की मार के चलते ये लोग कुपोषण का भी शिकार होकर रह गए हैं। बीज बदलाव में भारी दिक्कतें हैं। कुछ अन्य मामलों में उन्हें बहुत दूर की यात्रा तय करनी पड़ती है। इनमें से अधिकतर की जानकारी शून्य है। वे डब्ल्यूटीओ, उदारीकरण और एमएसपी(मार्केट सेलिंग प्राइस) भी नहीं जानते। नई खेती तकनीक की भी बहुतों को जानकारी नहीं है। यहां का किसान बेशक शिक्षा और सेहत पर काफी खर्च करता है, लेकिन उसका नतीजा सिफर ही है।

पंचायती व्यवस्था तो है, लेकिन सरपंच के हाथ भी बंधे हुए हैं, उसे जो मदद मिलती है, उससे इन इलाकों का संपूर्ण विकास संभव नहीं है। इन गांवों में पंचायती व्यवस्था अब भी अपने प्रारंभिक दौर से गुजर रही है। सरपंच कहते हैं कि उनके अधिकार क्षेत्र का दायरा बढ़ाया जाए। उनका अधिकतर समय बीडीओ से एनओसी लेने में ही व्यर्थ हो जाता है। ग्राम सभा के प्रतिनिधियों को भी पंचायती कार्यप्रणाली की सुचारू रूप से जानकारी नहीं है। पंचायत इतनी सक्षम नहीं है कि वह अपने स्तर पर लघु योजनाएं बनाकर उन्हें लागू कर सकें। जाहिर है कि जमीनी स्तर पर आधारभूत योजनाएं यहां से गायब दिखती हैं।

हाकम, साडा कच्चियां ईंटां दा घर वे...



ग्राउंड रिपोर्ट : सीमा का दर्द : कब बनेंगे ये पक्के घर



गांव थेह कलां सीमा का अंतिम गांव



पूरे गांव में जिधर भी नजर पड़ती थी, सिवाय दो-चार घर छोडक़र सभी मकान कच्चे हैं। सरकार के खोखले दावों की सीरत का प्रत्यक्ष प्रमाण ये गांव है थेह कलां। साक्षरता की बात पूछने पर सरपंच मुस्कुरा उठती है। कहती है कि कुछ दसवीं पास युवा हैं, जो मजदूरी कर रहे हैं। तरनतारन जिले के सीमावर्ती लोगों के पास जनकल्याण स्कीमों का लाभ भी नाममात्र ही पहुंचा है। भास्कर टीम का दूसरे दिन पड़ाव तरनतारन जिले के सीमावर्ती गांवों में था। सीमा के साथ लगते गांव थेह कलां, खालड़ा, दोंदा, कलसियां, अमीषा गांवों का दौरा किया तो वहां की हालत बड़ी हैरानीजनक दिखी।



इन गांंवों के ज्यादातर लोग आर्थिक तौर पर कमजोर होने के कारण अपना लिए नया घर या टूटे घर की रिपयेर करने में भी असमर्थ हंै। आजादी के इतने लंबे फासले के बाद भी गांव थेह कलां के सिर्फ चार परिवारों को घर निर्माण के लिए और दो परिवारों को घर की मरम्मत के लिए ग्रांट हासिल हुई है। इस त्रासदी का बखान गांव की चालीस वर्षीय महिला सरपंच लखबीर कौर और उसके पति दलबीर सिंह खुद ही करते हैं। उनके मुताबिक उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी नहीं सुना कि इससे पहले किसी को घर बनाने के लिए कोई सरकारी मदद मुहैया कराई गई। उक्त मामलों में भी ग्रांट के लिए 2007 में आवेदन किया था और अब इनके लिए राशि मिली है। गांव में 93 परिवार हैं और इनमें से 60 परिवारों की अर्थिक हालत काफी कमजोर हैं। सरपंच का कहना है कि इस स्कीम में ज्यादा घर लिए जा सकते हैं, उन्हें स्कीम के दायरे में लाया नहीं जा रहा है।

इसके नजदीकी गांव खालड़ा मेंं भी आठ परिवारों को ही घर बनाने के लिए ग्रांट मिली है, जबकि दो परिवारों को घर मरम्मत करवाने के लिए। इस गांव में 250 परिवार हैं, इनमें पचास फीसदी से ज्यादा परिवारों के पास जमीन नहीं है और इनकी हालात काफी खस्ता है। गांव की महिलाएं अमरजीत कौर और तरविंदर कौर बताती हैं कि सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिलने से वे लोग अपने पेट काटकर किसी तरह गुजारे लायक घर बनाने में लगे हुए हैं। ऊपर से महंगाई इतनी बढ़ गई हैं कि दाल रोटी ही मुश्किल से जुट रही है।



इन गांववासियों की रोजी-रोटी का साधन मजदूरी और दिहाड़ी पर ही निर्भर करती है। महज चंद गिनेचुने ही खेतीहर किसान हैं। इनके लिए जैसे अपनी तमाम जिंदगी में एक पक्का मकान बनाना ख्वाब जैसा ही है, जो शायद ही कभी पूरा हो सके। यदि हाकिम की मेहर हुई तो इन कच्चे घरों की किस्मत परत सकती है। यही गरीबी कुछ इस कदर मुंह चिढ़ाए खड़ी है कि ये अपने खस्ताहाल मकानों की मरम्मत करवाने में भी खुद को सक्षम नहीं पाते हैं। वे कहते हैं कि परिजनों के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जाए, तो यही उनके लिए बड़ी उपलब्धि होती है। गांव दोंदा, कलसियां, अमीषा की हालत भी इस तरह ही है। घर बनाने में आर्थिक मदद देने के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने ही योजनाएं चला रखी हैं, लेकिन जो अभी तक यहां का सफर नहीं तय कर पाई हैं। लोगों का कहना है कि सरकार को इस बजट में घर बनाने और दूसरी जनकल्याणकारी योजनाओं के फंड में इजाफा करते हुए उसका दायरा दीर्घकाल तक बढ़ाना चाहिए। इन योजनाओं को सही भावना के साथ लागू करने पर भी काम होना चाहिए।



सेहत भी बीमार

तरनतारन जिले के सीमावर्ती गांवों में सेहत सुविधाओं की स्थिति भी गुरदासपुर के सीमांत गांवों जैसी ही दिखती है। गांव खालड़ा की आबादी करीब दो हजार हैं। गांव के पंच स्वर्ण सिंह मुताबिक यहां पर डिस्पैंसरी तो बना रखी है, लेकिन डाक्टर कोई नहीं बैठता। इस तरह ही पंद्रह दिन में एक बार गांव थेह कलां और दोंदा गांव में मोबाइल डिस्पैंसरी अपना एक चक्र लगा जाती है, जोकि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। आम तौर पर इन गांववासियों को इलाज के लिए भिखीविंड या अमृतसर जाना पड़ता है। गांववासी कहते हैं कि यहां पर सेहत केंद्रों में डाक्टरी सलाह के साथ पर्ची में महंगी दवाएं लिखी हुई मिल जाती हैं, जिन्हें खरीदने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाते हैं। खालड़ा के युवक निशान सिंह का कहना है कि सरकार को बजट में सेहत, शिक्षा और रोजगार के लिए विशेष प्रावधान रखना चाहिए।

इन गांवों का दौरा

थेह कलां(आबादी६००), अमीषा(७००), दोंदा(६००), कलसियां(९००), खालड़ा(२०००)।

इनसे बातचीत

अमरजीत कौर, निशान सिंह, तरविंदर कौर, सवर्ण, सरपंच लखबीर कौर, दलबीर सिंह, स्वर्ण सिंह।

शनिवार, अप्रैल 03, 2010

किसान से बनती है तो जलता है चूल्हा

किसान से बनती है तो जलता है चूल्हा

चंदन स्वप्निल
भारत- पाक सीमांत गांवों से. पंजाब के सीमावर्ती गांवों में लोगों को रोजी-रोटी के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। लोग उतनी मेहनत काम ढूंढने में नहीं लगाते जितनी किसान से सिफारिश निकालने में लगाते हैं। किसान से बनती है तो दिहाड़ी पक्की वर्ना रहो भूखा। गुरदासपुर सीमा पर पड़ते उज्ज दरिया के पार करीब 15 गांव में गिन-चुने किसान हैं। इनके आसरे ही कई घरों में चूल्हा जल पाता है।


कई मकान गुर्जरों के भी हैं, जिनके पास काफी बड़ी संख्या में पशुधन है और ये सारा काम खुद ही करते हैं। यहां का मुख्य धंधा बेशक खेतीबाड़ी है, लेकिन जो भूमिहीन हैं, उनके लिए काफी मुश्किलें हैं। यहां रोजगार का कोई और साधन नहीं होने के चलते कामकाज के लिए मूल रूप से उन्हें किसानों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। दरिया के पार गांवों में बीस हजार की आबादी रहती है। गांवों के करीब पचास फीसदी परिवारों के पास तो अपनी जमीन भी नहीं है।


गांव खोजनी चक्क के ओंकार सिंह ने बताया कि इलाके में मजदूरी के विकल्प बड़े सीमित हैं। किसान भी कई बार दुविधा में पड़ जाते हैं कि किसे काम दें और किसे नहीं। कई बार किसान चुपके से मजदूर के घर जाता है और उसे काम के लिए बुलावा दे आता है। ऐसा वह दूसरों की नाराजगी से बचने के लिए करता है। कुछ किसान रोटेशन सिस्टम अपनाते हैं। बारी- बारी से हरेक को काम मिल जाता है और सबसे रिश्ते भी बने रहते हैं।


नरेगा नहीं हो पाई लागू


कुछ किसान कंबाइन से फसल काट लेते हैं। जैसे जैसे तकनीक बढ़ रही है बेरोजगारी भी बढ़ रही है। नरेगा योजना भी यहां पूरी तरह लागू नहीं हो सकी है। इन गांवों के पास कोई बड़ा बाजार या मंडी भी नहीं है, जहां वे रोजगार की तलाश कर सकें। बहुत ज्यादा पढ़े- लिखे नहीं होने से सलांच, चौंतरा, चक्करी, ठाकरपुर, हसनपुर, शाहपुर, मम्मियां, छबे आदि सीमावर्ती गांवों में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है।

दिहाड़ी की तलाश में लंबा सफर


तरनतारन के सीमावर्ती गांव थेह कलां के लखबीर सिंह के मुताबिक, गांव में तीस फीसदी परिवारों के पास ही जमीन है। गांव के कई युवा १क्वीं पास हैं। रोजगार का दूसरा साधन नहीं होने से वे खेत मजदूरी या फिर दिहाड़ी की तलाश में 12 किमी दूर भिखीविंड चले जाते हैं। गांव खालड़ा, डलीरी, अमीषा, दोदा, कलसियां की हालत भी ऐसी है। यहां नरेगा शुरू की गई है। गांव खालड़ा के पंच स्वर्ण सिंह के मुताबिक काम के पूरे दिनों के पैसे उन्हें पीछे से ही नहीं मिलते।


फिरोजपुर के सीमावर्ती गांव टेंडीवाल के जगीर सिंह का कहना है कि पहले गांवों के लोग खेतीबाड़ी के साथ सेना और पुलिस में भर्ती हो जाते थे। इससे गांवों के कई परिवारों की स्थिति ठीक रहती थी। अब सेना और पुलिस में भर्ती कम होने जाने से उनके लिए यह आस भी खत्म हो गई है। आबादी बढ़ने से हर परिवार के पास जमीन भी घटती जा रही है और इससे पैदावार भी कम हो रही है। भूमिहीन लोगों के अलावा यहां कई ऐसे किसान भी हैं, जिनके पास महज दो बीघा जमीन रह गई है। उनके सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है।

सरकार के लिए विकल्प


> स्थानीय प्रशासन खेती की आधुनिक तकनीक से रूबरू कराए।


> सहायक धंधे, गैर सरकारी प्रयासों से स्थापित किया जाए।


> आसपास बड़े बाजार या मंडी व्यवस्था लागू की जा सकती है।


> दसवीं पास युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित किया जाए।

शुक्रवार, अप्रैल 02, 2010

गान से गन का मुकाबला करने वाले भूपेन हजारिका

 



संगीत उनका प्यार है, संगीत ही उनकी पूजा और संगीत से बंदूक का मुकाबला करना उनका मकसद। यह उस संगीतकार, फिल्मकार, गीतकार, साहित्यकार, पत्रकार और राजनेता का परिचय है, जिसे दुनिया डॉ. भूपेन हजारिका के नाम से जानती है। गायक पाल रॉबसन से गीतों को सफलतापूर्वक सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाने की शिक्षा पाने वाले हजारिका के बारे में पूत के पांव पालने में दिखने की कहावत फिट बैठती है। उन्होंने बालपन से संगीत का जो सुर छेड़ा उसे जीवन में कभी नहीं छोड़ा। दस साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला गीत लिखा और उसे गाया। शुरूआती दिनों में उनका जीविकोपार्जन संगीत से ही होता था। उन पर नौ बच्चों के लालन-पालन और उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी थी। उन्हें महान जन गायकों की अंतिम कड़ी में गिना जाता है। लेकिन वह सिर्फ संगीत से बंधे नहीं रहे बल्कि लेखन, फिल्म निर्माण और निर्देशन, राजनीति, समाज सुधार और साहित्यिक गतिविधियां भी उनके जीवन का हिस्सा हैं।
दिल्ली के गंधर्व महाविद्यालय में शास्त्रीय संगीत का गायन करने वाले ओपी राय ने हजारिका के बारे में कहा कि उन्होंने लोक संगीत को लोकप्रिय बनाया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में प्राध्यापक डॉ. जीसी पांडे ने भूपेन हजारिका की तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने संगीत को नया मुकाम दिया और संगीत की खोती आभा को नवजीवन प्रदान किया है। पांडे ने कहा कि हजारिका का संगीत पूर्वोत्तर में तो लोकप्रिय है ही देश के अन्य हिस्सों में भी उसके कद्रदान हैं। हजारिका ने 1992 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिलने पर संगीत की ताकत के बारे में कहा था, जब मैं विधायक था तब मैं अपने गान (गीत) का इस्तेमाल गन (बंदूक) के तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ करता था। उन्होंने यह साक्षात्कार असम: इट्स हेरिटेज एंड कल्चर पुस्तक के लेखक चंद्र भूषण को दिया था जिन्होंने अपनी किताब में इसे प्रकाशित भी किया है।

देश के अग्रणी निर्माता-निर्देशकों में शुमार हजारिका उन चुनिंदा शख्सियतों में हैं जिन्होंने असमी सिनेमा को भारत और विश्व मंच पर स्थापित किया। फिल्मों में बाल कलाकार के तौर पर अपना फिल्मी करियर शुरू करने वाले हजारिका की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह 1967 से 1972 तक निर्दलीय के तौर पर विधानसभा के लिए चुने जाते रहे। पहली बार वह असम में फिल्म स्टूडियो के निर्माण और फिल्मों से एक साल तक मनोरंजन कर हटाने के वादे पर चुनाव में विजयी हुए थे। उन्होंने अपने प्रयास से अपनी तरह का पहला राज्य स्वामित्व वाला स्टूडियो देश में बनवाया। यह गुवाहाटी में स्थापित हुआ। भूपेन दा के नाम से लोकप्रिय हजारिका सत्यजीत रे के फिल्म आंदोलन से भी जुड़े रहे। इसी आंदोलन से जुड़ाव का नतीजा रहा कि वह बड़े-बड़े फिल्मकारों को असम की ओर आकर्षित करने मे कामयाब हुए। लेखक और कवि के तौर पर उन्होंने हजारों गीत लिखे हैं और लघु कथाओं, निबंध, यात्रा वृत्तांत पर उनकी 15 प्रमुख पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पत्रकारिता भी हजारिका से अछूती नहीं रही। वह लोकप्रिय मासिक पत्रिकाओं अमर प्रतिनिधि और प्रतिध्वनि के संपादक भी रहे हैं। 1977 में पद्मश्री से सम्मानित हजारिका की तीन फिल्मों..शकुंतला, प्रतिध्वनि और लोटी गोटी को सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुआ है। वह कभी ऐतिहासिक फिल्में बनाने के हामी नहीं रहे बल्कि संगीत प्रधान फिल्में उनकी पसंद हैं। असम के सादिया में 1926 में पैदा हुए भूपेन हजारिका ने 1942 में गुवाहाटी से इंटर पास किया और बी.ए की शिक्षा लेने के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय चले गए। वहीं उन्होंने राजनीति विज्ञान में एम.ए की उपाधि हासिल की। इसके बाद उन्होंने न्यूयार्क जाकर कोलंबिया विश्वविद्यालय से जनसंचार में पीएचडी की। हिन्दी फिल्म जगत भी हजारिका की प्रतिभा के दर्शन कर चुका है। 1986 में बनी कल्पना लाजमी निर्देशित फिल्म एक पल का निर्माण करने के साथ-साथ उन्होंने इस फिल्म की संगीत रचना भी की। डिम्पल कापडि़या को दक्ष अभिनेत्री के तौर पर स्थापित करने वाली हिन्दी फिल्म रूदाली के वह एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर और संगीत रचनाकार थे। एफ.एफ हुसैन की गजगामिनी के संगीत में भी उनका योगदान रहा।
उन्होंने 2000 में हिन्दी फिल्म दमन के लिए संगीत रचना की। उनकी संगीत रचना वाली एक अन्य फिल्म क्यों 2003 में आई। उनकी चर्चित फिल्मों में एरा बतार सुर (1956), शकुंतला (1961), प्रतिध्वनि (1967), लोटी गोटी (1967), चिक मिक बिजुरी (1969), मन प्रजापति (1978), स्वीकारोक्ति (1986), सिराज (1988), चमेली मेमसाब (1975), एक पल (1986), रूदाली (1983) शामिल हैं। 
 

dr महेश परिमल

  साभार संवेदनायों के पंख

यहां खाकी बदनाम :- नशा तस्करों से मोटी रकम वसूलने वाले सहायक थानेदार और सिपाही नामजद, दोनों फरार

यहां खाकी बदनाम :- नशा तस्करों से मोटी रकम वसूलने वाले सहायक थानेदार और सिपाही नामजद, दोनों फरार एसटीएफ की कार्रवाई में आरोपियों से...