शुक्रवार, अप्रैल 02, 2010

गान से गन का मुकाबला करने वाले भूपेन हजारिका

 



संगीत उनका प्यार है, संगीत ही उनकी पूजा और संगीत से बंदूक का मुकाबला करना उनका मकसद। यह उस संगीतकार, फिल्मकार, गीतकार, साहित्यकार, पत्रकार और राजनेता का परिचय है, जिसे दुनिया डॉ. भूपेन हजारिका के नाम से जानती है। गायक पाल रॉबसन से गीतों को सफलतापूर्वक सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाने की शिक्षा पाने वाले हजारिका के बारे में पूत के पांव पालने में दिखने की कहावत फिट बैठती है। उन्होंने बालपन से संगीत का जो सुर छेड़ा उसे जीवन में कभी नहीं छोड़ा। दस साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला गीत लिखा और उसे गाया। शुरूआती दिनों में उनका जीविकोपार्जन संगीत से ही होता था। उन पर नौ बच्चों के लालन-पालन और उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी थी। उन्हें महान जन गायकों की अंतिम कड़ी में गिना जाता है। लेकिन वह सिर्फ संगीत से बंधे नहीं रहे बल्कि लेखन, फिल्म निर्माण और निर्देशन, राजनीति, समाज सुधार और साहित्यिक गतिविधियां भी उनके जीवन का हिस्सा हैं।
दिल्ली के गंधर्व महाविद्यालय में शास्त्रीय संगीत का गायन करने वाले ओपी राय ने हजारिका के बारे में कहा कि उन्होंने लोक संगीत को लोकप्रिय बनाया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में प्राध्यापक डॉ. जीसी पांडे ने भूपेन हजारिका की तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने संगीत को नया मुकाम दिया और संगीत की खोती आभा को नवजीवन प्रदान किया है। पांडे ने कहा कि हजारिका का संगीत पूर्वोत्तर में तो लोकप्रिय है ही देश के अन्य हिस्सों में भी उसके कद्रदान हैं। हजारिका ने 1992 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिलने पर संगीत की ताकत के बारे में कहा था, जब मैं विधायक था तब मैं अपने गान (गीत) का इस्तेमाल गन (बंदूक) के तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ करता था। उन्होंने यह साक्षात्कार असम: इट्स हेरिटेज एंड कल्चर पुस्तक के लेखक चंद्र भूषण को दिया था जिन्होंने अपनी किताब में इसे प्रकाशित भी किया है।

देश के अग्रणी निर्माता-निर्देशकों में शुमार हजारिका उन चुनिंदा शख्सियतों में हैं जिन्होंने असमी सिनेमा को भारत और विश्व मंच पर स्थापित किया। फिल्मों में बाल कलाकार के तौर पर अपना फिल्मी करियर शुरू करने वाले हजारिका की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह 1967 से 1972 तक निर्दलीय के तौर पर विधानसभा के लिए चुने जाते रहे। पहली बार वह असम में फिल्म स्टूडियो के निर्माण और फिल्मों से एक साल तक मनोरंजन कर हटाने के वादे पर चुनाव में विजयी हुए थे। उन्होंने अपने प्रयास से अपनी तरह का पहला राज्य स्वामित्व वाला स्टूडियो देश में बनवाया। यह गुवाहाटी में स्थापित हुआ। भूपेन दा के नाम से लोकप्रिय हजारिका सत्यजीत रे के फिल्म आंदोलन से भी जुड़े रहे। इसी आंदोलन से जुड़ाव का नतीजा रहा कि वह बड़े-बड़े फिल्मकारों को असम की ओर आकर्षित करने मे कामयाब हुए। लेखक और कवि के तौर पर उन्होंने हजारों गीत लिखे हैं और लघु कथाओं, निबंध, यात्रा वृत्तांत पर उनकी 15 प्रमुख पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पत्रकारिता भी हजारिका से अछूती नहीं रही। वह लोकप्रिय मासिक पत्रिकाओं अमर प्रतिनिधि और प्रतिध्वनि के संपादक भी रहे हैं। 1977 में पद्मश्री से सम्मानित हजारिका की तीन फिल्मों..शकुंतला, प्रतिध्वनि और लोटी गोटी को सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुआ है। वह कभी ऐतिहासिक फिल्में बनाने के हामी नहीं रहे बल्कि संगीत प्रधान फिल्में उनकी पसंद हैं। असम के सादिया में 1926 में पैदा हुए भूपेन हजारिका ने 1942 में गुवाहाटी से इंटर पास किया और बी.ए की शिक्षा लेने के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय चले गए। वहीं उन्होंने राजनीति विज्ञान में एम.ए की उपाधि हासिल की। इसके बाद उन्होंने न्यूयार्क जाकर कोलंबिया विश्वविद्यालय से जनसंचार में पीएचडी की। हिन्दी फिल्म जगत भी हजारिका की प्रतिभा के दर्शन कर चुका है। 1986 में बनी कल्पना लाजमी निर्देशित फिल्म एक पल का निर्माण करने के साथ-साथ उन्होंने इस फिल्म की संगीत रचना भी की। डिम्पल कापडि़या को दक्ष अभिनेत्री के तौर पर स्थापित करने वाली हिन्दी फिल्म रूदाली के वह एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर और संगीत रचनाकार थे। एफ.एफ हुसैन की गजगामिनी के संगीत में भी उनका योगदान रहा।
उन्होंने 2000 में हिन्दी फिल्म दमन के लिए संगीत रचना की। उनकी संगीत रचना वाली एक अन्य फिल्म क्यों 2003 में आई। उनकी चर्चित फिल्मों में एरा बतार सुर (1956), शकुंतला (1961), प्रतिध्वनि (1967), लोटी गोटी (1967), चिक मिक बिजुरी (1969), मन प्रजापति (1978), स्वीकारोक्ति (1986), सिराज (1988), चमेली मेमसाब (1975), एक पल (1986), रूदाली (1983) शामिल हैं। 
 

dr महेश परिमल

  साभार संवेदनायों के पंख

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