मंगलवार, अप्रैल 06, 2010

हाकम, साडा कच्चियां ईंटां दा घर वे...



ग्राउंड रिपोर्ट : सीमा का दर्द : कब बनेंगे ये पक्के घर



गांव थेह कलां सीमा का अंतिम गांव



पूरे गांव में जिधर भी नजर पड़ती थी, सिवाय दो-चार घर छोडक़र सभी मकान कच्चे हैं। सरकार के खोखले दावों की सीरत का प्रत्यक्ष प्रमाण ये गांव है थेह कलां। साक्षरता की बात पूछने पर सरपंच मुस्कुरा उठती है। कहती है कि कुछ दसवीं पास युवा हैं, जो मजदूरी कर रहे हैं। तरनतारन जिले के सीमावर्ती लोगों के पास जनकल्याण स्कीमों का लाभ भी नाममात्र ही पहुंचा है। भास्कर टीम का दूसरे दिन पड़ाव तरनतारन जिले के सीमावर्ती गांवों में था। सीमा के साथ लगते गांव थेह कलां, खालड़ा, दोंदा, कलसियां, अमीषा गांवों का दौरा किया तो वहां की हालत बड़ी हैरानीजनक दिखी।



इन गांंवों के ज्यादातर लोग आर्थिक तौर पर कमजोर होने के कारण अपना लिए नया घर या टूटे घर की रिपयेर करने में भी असमर्थ हंै। आजादी के इतने लंबे फासले के बाद भी गांव थेह कलां के सिर्फ चार परिवारों को घर निर्माण के लिए और दो परिवारों को घर की मरम्मत के लिए ग्रांट हासिल हुई है। इस त्रासदी का बखान गांव की चालीस वर्षीय महिला सरपंच लखबीर कौर और उसके पति दलबीर सिंह खुद ही करते हैं। उनके मुताबिक उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी नहीं सुना कि इससे पहले किसी को घर बनाने के लिए कोई सरकारी मदद मुहैया कराई गई। उक्त मामलों में भी ग्रांट के लिए 2007 में आवेदन किया था और अब इनके लिए राशि मिली है। गांव में 93 परिवार हैं और इनमें से 60 परिवारों की अर्थिक हालत काफी कमजोर हैं। सरपंच का कहना है कि इस स्कीम में ज्यादा घर लिए जा सकते हैं, उन्हें स्कीम के दायरे में लाया नहीं जा रहा है।

इसके नजदीकी गांव खालड़ा मेंं भी आठ परिवारों को ही घर बनाने के लिए ग्रांट मिली है, जबकि दो परिवारों को घर मरम्मत करवाने के लिए। इस गांव में 250 परिवार हैं, इनमें पचास फीसदी से ज्यादा परिवारों के पास जमीन नहीं है और इनकी हालात काफी खस्ता है। गांव की महिलाएं अमरजीत कौर और तरविंदर कौर बताती हैं कि सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिलने से वे लोग अपने पेट काटकर किसी तरह गुजारे लायक घर बनाने में लगे हुए हैं। ऊपर से महंगाई इतनी बढ़ गई हैं कि दाल रोटी ही मुश्किल से जुट रही है।



इन गांववासियों की रोजी-रोटी का साधन मजदूरी और दिहाड़ी पर ही निर्भर करती है। महज चंद गिनेचुने ही खेतीहर किसान हैं। इनके लिए जैसे अपनी तमाम जिंदगी में एक पक्का मकान बनाना ख्वाब जैसा ही है, जो शायद ही कभी पूरा हो सके। यदि हाकिम की मेहर हुई तो इन कच्चे घरों की किस्मत परत सकती है। यही गरीबी कुछ इस कदर मुंह चिढ़ाए खड़ी है कि ये अपने खस्ताहाल मकानों की मरम्मत करवाने में भी खुद को सक्षम नहीं पाते हैं। वे कहते हैं कि परिजनों के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जाए, तो यही उनके लिए बड़ी उपलब्धि होती है। गांव दोंदा, कलसियां, अमीषा की हालत भी इस तरह ही है। घर बनाने में आर्थिक मदद देने के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने ही योजनाएं चला रखी हैं, लेकिन जो अभी तक यहां का सफर नहीं तय कर पाई हैं। लोगों का कहना है कि सरकार को इस बजट में घर बनाने और दूसरी जनकल्याणकारी योजनाओं के फंड में इजाफा करते हुए उसका दायरा दीर्घकाल तक बढ़ाना चाहिए। इन योजनाओं को सही भावना के साथ लागू करने पर भी काम होना चाहिए।



सेहत भी बीमार

तरनतारन जिले के सीमावर्ती गांवों में सेहत सुविधाओं की स्थिति भी गुरदासपुर के सीमांत गांवों जैसी ही दिखती है। गांव खालड़ा की आबादी करीब दो हजार हैं। गांव के पंच स्वर्ण सिंह मुताबिक यहां पर डिस्पैंसरी तो बना रखी है, लेकिन डाक्टर कोई नहीं बैठता। इस तरह ही पंद्रह दिन में एक बार गांव थेह कलां और दोंदा गांव में मोबाइल डिस्पैंसरी अपना एक चक्र लगा जाती है, जोकि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। आम तौर पर इन गांववासियों को इलाज के लिए भिखीविंड या अमृतसर जाना पड़ता है। गांववासी कहते हैं कि यहां पर सेहत केंद्रों में डाक्टरी सलाह के साथ पर्ची में महंगी दवाएं लिखी हुई मिल जाती हैं, जिन्हें खरीदने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाते हैं। खालड़ा के युवक निशान सिंह का कहना है कि सरकार को बजट में सेहत, शिक्षा और रोजगार के लिए विशेष प्रावधान रखना चाहिए।

इन गांवों का दौरा

थेह कलां(आबादी६००), अमीषा(७००), दोंदा(६००), कलसियां(९००), खालड़ा(२०००)।

इनसे बातचीत

अमरजीत कौर, निशान सिंह, तरविंदर कौर, सवर्ण, सरपंच लखबीर कौर, दलबीर सिंह, स्वर्ण सिंह।

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