किसान से बनती है तो जलता है चूल्हा
चंदन स्वप्निल
भारत- पाक सीमांत गांवों से. पंजाब के सीमावर्ती गांवों में लोगों को रोजी-रोटी के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। लोग उतनी मेहनत काम ढूंढने में नहीं लगाते जितनी किसान से सिफारिश निकालने में लगाते हैं। किसान से बनती है तो दिहाड़ी पक्की वर्ना रहो भूखा। गुरदासपुर सीमा पर पड़ते उज्ज दरिया के पार करीब 15 गांव में गिन-चुने किसान हैं। इनके आसरे ही कई घरों में चूल्हा जल पाता है।
कई मकान गुर्जरों के भी हैं, जिनके पास काफी बड़ी संख्या में पशुधन है और ये सारा काम खुद ही करते हैं। यहां का मुख्य धंधा बेशक खेतीबाड़ी है, लेकिन जो भूमिहीन हैं, उनके लिए काफी मुश्किलें हैं। यहां रोजगार का कोई और साधन नहीं होने के चलते कामकाज के लिए मूल रूप से उन्हें किसानों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। दरिया के पार गांवों में बीस हजार की आबादी रहती है। गांवों के करीब पचास फीसदी परिवारों के पास तो अपनी जमीन भी नहीं है।
गांव खोजनी चक्क के ओंकार सिंह ने बताया कि इलाके में मजदूरी के विकल्प बड़े सीमित हैं। किसान भी कई बार दुविधा में पड़ जाते हैं कि किसे काम दें और किसे नहीं। कई बार किसान चुपके से मजदूर के घर जाता है और उसे काम के लिए बुलावा दे आता है। ऐसा वह दूसरों की नाराजगी से बचने के लिए करता है। कुछ किसान रोटेशन सिस्टम अपनाते हैं। बारी- बारी से हरेक को काम मिल जाता है और सबसे रिश्ते भी बने रहते हैं।
नरेगा नहीं हो पाई लागू
कुछ किसान कंबाइन से फसल काट लेते हैं। जैसे जैसे तकनीक बढ़ रही है बेरोजगारी भी बढ़ रही है। नरेगा योजना भी यहां पूरी तरह लागू नहीं हो सकी है। इन गांवों के पास कोई बड़ा बाजार या मंडी भी नहीं है, जहां वे रोजगार की तलाश कर सकें। बहुत ज्यादा पढ़े- लिखे नहीं होने से सलांच, चौंतरा, चक्करी, ठाकरपुर, हसनपुर, शाहपुर, मम्मियां, छबे आदि सीमावर्ती गांवों में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है।
दिहाड़ी की तलाश में लंबा सफर
तरनतारन के सीमावर्ती गांव थेह कलां के लखबीर सिंह के मुताबिक, गांव में तीस फीसदी परिवारों के पास ही जमीन है। गांव के कई युवा १क्वीं पास हैं। रोजगार का दूसरा साधन नहीं होने से वे खेत मजदूरी या फिर दिहाड़ी की तलाश में 12 किमी दूर भिखीविंड चले जाते हैं। गांव खालड़ा, डलीरी, अमीषा, दोदा, कलसियां की हालत भी ऐसी है। यहां नरेगा शुरू की गई है। गांव खालड़ा के पंच स्वर्ण सिंह के मुताबिक काम के पूरे दिनों के पैसे उन्हें पीछे से ही नहीं मिलते।
फिरोजपुर के सीमावर्ती गांव टेंडीवाल के जगीर सिंह का कहना है कि पहले गांवों के लोग खेतीबाड़ी के साथ सेना और पुलिस में भर्ती हो जाते थे। इससे गांवों के कई परिवारों की स्थिति ठीक रहती थी। अब सेना और पुलिस में भर्ती कम होने जाने से उनके लिए यह आस भी खत्म हो गई है। आबादी बढ़ने से हर परिवार के पास जमीन भी घटती जा रही है और इससे पैदावार भी कम हो रही है। भूमिहीन लोगों के अलावा यहां कई ऐसे किसान भी हैं, जिनके पास महज दो बीघा जमीन रह गई है। उनके सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है।
सरकार के लिए विकल्प
> स्थानीय प्रशासन खेती की आधुनिक तकनीक से रूबरू कराए।
> सहायक धंधे, गैर सरकारी प्रयासों से स्थापित किया जाए।
> आसपास बड़े बाजार या मंडी व्यवस्था लागू की जा सकती है।
> दसवीं पास युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित किया जाए।
कई मकान गुर्जरों के भी हैं, जिनके पास काफी बड़ी संख्या में पशुधन है और ये सारा काम खुद ही करते हैं। यहां का मुख्य धंधा बेशक खेतीबाड़ी है, लेकिन जो भूमिहीन हैं, उनके लिए काफी मुश्किलें हैं। यहां रोजगार का कोई और साधन नहीं होने के चलते कामकाज के लिए मूल रूप से उन्हें किसानों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। दरिया के पार गांवों में बीस हजार की आबादी रहती है। गांवों के करीब पचास फीसदी परिवारों के पास तो अपनी जमीन भी नहीं है।
गांव खोजनी चक्क के ओंकार सिंह ने बताया कि इलाके में मजदूरी के विकल्प बड़े सीमित हैं। किसान भी कई बार दुविधा में पड़ जाते हैं कि किसे काम दें और किसे नहीं। कई बार किसान चुपके से मजदूर के घर जाता है और उसे काम के लिए बुलावा दे आता है। ऐसा वह दूसरों की नाराजगी से बचने के लिए करता है। कुछ किसान रोटेशन सिस्टम अपनाते हैं। बारी- बारी से हरेक को काम मिल जाता है और सबसे रिश्ते भी बने रहते हैं।
नरेगा नहीं हो पाई लागू
कुछ किसान कंबाइन से फसल काट लेते हैं। जैसे जैसे तकनीक बढ़ रही है बेरोजगारी भी बढ़ रही है। नरेगा योजना भी यहां पूरी तरह लागू नहीं हो सकी है। इन गांवों के पास कोई बड़ा बाजार या मंडी भी नहीं है, जहां वे रोजगार की तलाश कर सकें। बहुत ज्यादा पढ़े- लिखे नहीं होने से सलांच, चौंतरा, चक्करी, ठाकरपुर, हसनपुर, शाहपुर, मम्मियां, छबे आदि सीमावर्ती गांवों में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है।
दिहाड़ी की तलाश में लंबा सफर
तरनतारन के सीमावर्ती गांव थेह कलां के लखबीर सिंह के मुताबिक, गांव में तीस फीसदी परिवारों के पास ही जमीन है। गांव के कई युवा १क्वीं पास हैं। रोजगार का दूसरा साधन नहीं होने से वे खेत मजदूरी या फिर दिहाड़ी की तलाश में 12 किमी दूर भिखीविंड चले जाते हैं। गांव खालड़ा, डलीरी, अमीषा, दोदा, कलसियां की हालत भी ऐसी है। यहां नरेगा शुरू की गई है। गांव खालड़ा के पंच स्वर्ण सिंह के मुताबिक काम के पूरे दिनों के पैसे उन्हें पीछे से ही नहीं मिलते।
फिरोजपुर के सीमावर्ती गांव टेंडीवाल के जगीर सिंह का कहना है कि पहले गांवों के लोग खेतीबाड़ी के साथ सेना और पुलिस में भर्ती हो जाते थे। इससे गांवों के कई परिवारों की स्थिति ठीक रहती थी। अब सेना और पुलिस में भर्ती कम होने जाने से उनके लिए यह आस भी खत्म हो गई है। आबादी बढ़ने से हर परिवार के पास जमीन भी घटती जा रही है और इससे पैदावार भी कम हो रही है। भूमिहीन लोगों के अलावा यहां कई ऐसे किसान भी हैं, जिनके पास महज दो बीघा जमीन रह गई है। उनके सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है।
सरकार के लिए विकल्प
> स्थानीय प्रशासन खेती की आधुनिक तकनीक से रूबरू कराए।
> सहायक धंधे, गैर सरकारी प्रयासों से स्थापित किया जाए।
> आसपास बड़े बाजार या मंडी व्यवस्था लागू की जा सकती है।
> दसवीं पास युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित किया जाए।
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