बुधवार, जनवरी 13, 2016

रफी ने कबड्‌डी में गीदड़ की आवाज निकाल डरा दिया था

रफी साहब की थी तमन्ना, गांव में 3-4 शो करवा दो, गांव शहर बन जाएगा
फीको अपने गांव कोटला सुल्तान सिंह के लिए बहुत कुछ करना चाहता था, किसी ने नहीं दिखाई दिलचस्पी

जन्मदिन, 24 दिसंबर, 1924
मृत्यु, 31 जुलाई, 1980

आज रफी साहब का 91वां जन्मदिवस है। अमृतसर जिले के गांव कोटला सुल्तान सिंह में रफी अपने गांव के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन किसी ने कभी कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई। दूसरी बेड़ियां शादी ने ऐसी डाली कि दोबारा गांव का रूख नहीं कर सके सुर सम्राट मोहम्मद रफी। मोहम्मद रफी को गांव में फीको कहकर पुकारा जाता था। फीको बहुत शरारती था। गांव के एलीमेंट्री स्कूल से उन्होंने प्राइमरी तक की पढ़ाई की। रफी साहब पढ़-लिखने में ठीक-ठीक ही थे। कई बार स्कूल में काम नहीं करने या शरारतें करने के कारण उन्हें डांट भी पड़ती थी। जब पढ़ाई समाप्त हो गई, तो वह तीन-चार महीने ऐसे ही बिना काम के घूमा करते थे। वह बाग में फल खाते और खेत से गन्ने तोड़कर चूसते था। फीको के पिता अली मोहम्मद खाना बनाने में माहिर थे। उनमें इतनी कला था कि एक ही देग (बड़ा बर्तन) में सात रंग के चावल पका देते थे। फीको के गले में मां सरस्वती का वास था। यूं कहें तो आवाज उनकी गुलाम थी तो गलत नहीं होगा। एक बार वे कबड्डी खेल रहे थे तो उन्होंने गीदड़ की आवाज से सभी को डरा दिया था।
याद आए तो पेड़ पर नाम पढ़ लेना
समय का पासा पलटा और फीको मोहम्मद रफी के काम से दुनिया में मशहूर हो गया। वह गांव के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे। रफी के बचपन के आड़ी कुंदन सिंह (अब कुंदन सिंह हमारे बीच नहीं रहे) ने बताया था कि 1953 में जब वह अमृतसर के एलेग्जेंड्रा ग्राउंड में शो करने के लिए आए तो वे भी अपने साथियों के साथ उन्हें मिलने के लिए गए। उसकी दिनचर्या इतनी व्यस्त थी कि तीसरे दिन एक सरदारजी ने उनकी मुलाकात करवाई। सरदार जी ने रफी से कहा कि तुहाडे पिंड तों कुज बंदे मिलन आए ने। रफी ने देखा तो झट दोस्त को गले से लगा लिया और बोले कि तुम गांववाले मिलकर मेरे 3-4 शो गांव में ही करवा दो। गांव के पास इतना पैसा हो जाएगा कि हमारा गांव, गांव नहीं शहर बन जाएगा। लेकिन उस समय के सरपंच ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। रिस्पांस नहीं मिलने की सूरत में रफी वहां से लुधियाना अगले शो के लिए चले गए। रफी ने गांव की पंचायत को मुंबई घूमने का न्यौता भी दिया था। फीको और कुंदन सिंह चौथी तक एक साथ पढ़े थे। 1937 में गांव छोड़ते वक्त फीको ने एक आम के पेड़ पर अपना नाम लिखते हुए दोस्त से कहा था कि जब भी मेरी याद आए तो यहां पर आकर मेरा नाम पढ़ लेना। अब वह पेड़ भी काटा जा चुका है।
लाके दंदा च मेखां मौज बंजारा ले गया

रफी साहब ने मुंबई में अपनी दूसरी शादी बिलकिस से रचाई। उसके बाद रफी को गांव की ओर रुख करने की फुर्सत ही न मिली। साल 1972 में रफी का एक शो हुआ था। जिसमें लोगों ने रफी को उनकी पसंद का गीत गाने को कहा तो उन्होंने पंजाबी गीत, लाके दंदा च मेखां मौज बंजारा ले गया, गाकर सभी का दिल लूट लिया था। 

सोमवार, जून 22, 2015

पंजाबी फिल्मों का सुपर स्टार सतीश कौल आज इलाज और पाई पाई को मोहताज

लोग चढ़दे सूरज नूं करन सलामां, डूबदे नूं कौन पुछदा  दस्तूर है

। एक समय था जब फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश करना कठिन तो था पर उसमें टिक और भी मुश्किल था। सन 1970-71 के पास पंजाबी फिल्म जगत में रोमांच भी आया संजिंदगी भी। उन दिनों एक अति सुंदर हीरो ने फिल्मों में प्रवेश किया। वह थे कश्मीर के पंडित मोहन लाल कौल के घर 8 सितंबर 1954 को पैदा हुए सतीश कौल।
सतीश कौल छोटी उम्र में ही हिंदी फिल्म बंद दरवाजा में बतौर हीरो आ गए थे। बस फिर क्या फासले, भक्ति में शक्ति, मेरे सरताज अनेक हिंदी फिल्में और हिट पंजाबी फिल्म  मोरनी, लच्छी, दो पोस्ती, वीरा, राणों, धी रानी, भुलेखा, वेहड़ा लम्बड़ां दा, वोटी हथ सोटी के साथ अनेक फिल्में दीं। उन्होंने हिंदी पंजाबी मराठी तथा अंग्रेजी फिल्मों में भी काम किया। कौल के अच्छे दिनों में एक पंजाबी लड़की से प्यार और शादी भी हो गई। एक लड़का भी हो गया। कुछ देर के बाद दोनों का तलाक हो गया और वो साउथ अफ्रीका चली गई, जो दोबारा कभी न मिली।
सतीश का मलाल है कि उसके बाद रिश्ते तो बहुत बने पर कहीं न कहीं उसकी किस्मत या उसका खुद का कसूर था कि कहीं कामयाबी न मिली। जिंदगी की ऊंचाइयों के नीचे आसमान खाली था। न घर है ना ठिकाना। लुधियाना में एक्टिंग स्कूल खोला और लूटा दिया जो कुछ भी था। नटास के डायरेक्टर सभ्रवाल साहिब पटियाला ले आए। फिर एक चेन्नल के मालिक ने अपने एक्टिंग स्कूल का इंचार्ज बना दिया। हॉस्टल में एक दिन उन्हें चोट लग गई। उनके साथी मेहर मित्तल, गैरी संधू, प्रीति सप्रू तथा भावना भट्ट के अलावा बहुत कला प्रेमी मिलने आए और थोड़ी बहुत सहायता भी की। सतीश कौल ने सरबत दा भला ट्रस्ट का शुक्रिया किया, जो उनका इलाज करवा रहा है। आज कल सतीश कौल राजपुरा-बनूड़ के नजदीक ज्ञान सागर अस्पताल में अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं। उनके पास पुराने कपड़ों का बैग, साधारण मोबाइल फोन के अलावा बस यादें ही बची हैं।


सोमवार, नवंबर 17, 2014

वह अमृतसर में लल्ली के नाम से जानी जाती है

नामुमकिन कुछ भी नहीं है, अपना लक्ष्य तय करें और फिर आगे बढ़ जाएं। जिंदगी में मैेंने यही फॉमूर्ला अपनाया और सफल हुई। जिस काम को करने की ठान लो, उसमें सौ प्रतिशत सफलता हासिल करने का जज्बा रखो। यह कहना है लाफ्टर चैलेंज में शिरकत कर चुकी अंबरसरी कुड़ी भारती का। उनकी उपलबिधयों के लिए उन्हें गत दिनों कल्पना चावला अवार्ड से सम्मानित भी किया जा चुका है। पिछले कई साल से पंजाब नाटशाला से जुड़ी भारती  उर्फ लल्ली आज अमृतसर के साथ पूरे देश में अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं।
भारती ने बताया कि वह एक गरीब परिवार से संबंध रखती थी, जिस कारण उन्हें पढ़ाई में कई समस्याओं का सामना करना पड़ा था। उन्होंने एनसीसी भी ज्वाइन की। उनका कहना है कि जिंदगी में हार-जीत तो लगी रहती है। मैंने विपरीत परिस्थितियों में हारकर जीतना सीखा है।
उन्होंने बताया कि मैं शुरू से ही बड़ा बोलती थी, जिसके कारण मैं दोस्तों में वह हमेशा मजाक का पात्र बनी रहती थीं। भारती ने कालेज  के साथ साथ पंजाब नाटशाला में भी काम सीखना शुरू किया। इसके साथ उन्होंने कालेज के यूथ फेस्टिवल में अपनी कला का जबर्दस्त प्रदर्शन किया। इससे लोगों में उनकी छवि एक हास्य कलाकार के रूप में बन गई। इसके बाद मुझे लाफ्टर चैलेंज में काम करने का मौका मिला और मैंने अपनी आवाज और कलाकारी से एक अलग ही मुकाम हासिल किया।
लल्ली ने बताया कि आज वह अमृतसर में  लल्ली के नाम से जानी जाती हैं, वही वह दूसरे राज्यों में अमृतसरी गर्ल के नाम से भी जानी जाती हैं। उनका कहना है कि आज भी वे मनचाही कामयाबी नहीं हासिल कर पाई हैं।

गुरुवार, सितंबर 11, 2014

पंजाब में ऐसा लॉ एंड ऑर्डर किस काम का


सीमावर्ती राज्य होने के कारण नशीले पदार्थों की तस्करी और आतंकवादी गतिविधियों पर ब्रेक लगाने में पंजाब पुलिस फिसड्डी ही साबित हुई है।
पंजाब पुलिस के पास ७० हजार से ज्यादा जवान है, फिर भी राज्य में लॉ एंड ऑर्डर की स्थिति बेकाबू है। एक तरफ जहां पुलिस को अंदरूनी रूप से राज्य में चल रही आंतकी गतिविधियों की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, वहीं बढ़ रही नशीले पदार्थों की तस्करी रोक पाने में पुलिस पूरी तरह से नाकाम रही है। बॉर्डर के साथ लगता राज्य होने के कारण पंजाब में नशीले पदार्थों की तस्करी और आतंकवादी गतिविधियां खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। जिस प्रदेश में लॉ एंड ऑर्डर की स्थिति सही नहीं है, वहां का पूरा ढांचा ही पटरी से खिसक जाता है। विकास में बाधा भी इसी कारण आती है। उद्योग, टूरिज्म पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। सबसे बड़ी कमी है कि पुलिस अपना भरोसा पब्लिक कायम नहीं कर पाई है।
लगातार खराब होती स्थिति
राज्य में लॉ एंड ऑर्डर की स्थिति लगातार खराब हो रही है। लुधियाना में दो माह पहले हुए डीएसपी हत्याकांड में परिजनों को ही पुलिस पर विश्वास नहीं रहा है। डीएसपी का परिवार मामले की सीबीआई जांच कराने की मांग कर रहा है। सबसे बड़ी कमी है कि पुलिस प्रशासन लोगों में भरोसा ही कायम नहीं कर सका। किसी भी अधिकारी की जिम्मेदारी तय नहीं है। अगर कोई अधिकारी सख्ती करके काननू व्यवस्था को लागू करने की कोशिश भी करता है तो उसका तबादला हो जाता है या फिर सस्पेंड कर दिया जाता है। मजे की बात यह है कि साल में एक एसएसपी का तीन या चार बार तबादला हो जाता है, जाहिर है कि ऐसे में वह काम कैसे कर सकता है। ज्यादातर बड़े पुलिस अधिकारी नेताओं या मंत्रियों की पसंद पर तैनात किए जाते हैं। अधिकारी कानून के तहत काम नहीं करके जैस नेता कहते हैं, उस तरह से काम करते हैं। अधिकारी अगर काननू के तहत अपने स्तर पर काम करने की कोशिश भी करते हैं, उनको खुड्डेलाइन लगा दिया जाता है।
आतंक के लिए विदेश से आता है पैसा
पंजाब में बेशक अब आतंकी गतिविधियां समाप्त हो चुकी हैं, लेकिन विदेशों में बैठे पूर्व आतंकी अंदरूनी रूप से इसे फिर से शुरू करने के लिए बढ़ावा देने में जुटे हुए हैं। हाल ही में लुधियाना, पठानकोट और अन्य जगहों से पकड़े गए आतंकवादियों से पूछताछ के दौरान यह तथ्य सामने आया है कि पंजाब में फिर से आतंकवादी गतिविधियां शुरू करने के प्रयास जारी हैं। इसके लिए बेरोजगारों को निशाना बनाया जा रहा है।
नशीले पदार्थों की तस्करी
पाकिस्तान की ओर से पंजाब में नशीले पदार्थों की तस्करी पर पुलिस लगाम नहीं लगा पा रही। सप्ताह में एक या दो बार हेरोइन की तस्करी के मामले सामने आ रहे हैं। बॉर्डर के साथ लगते इलाके के लोग भी तस्करी में शामिल है। इसके अलावा राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जमू-कश्मीर और चंडीगढ़ से नशीले पदार्थों की तस्करी से नशे का जाल फैलता जा रहा है। पंजाब में नशीले पदार्थों की खपत ज्यादा होने के कारण इसे नशीले पदार्थों की बड़ी मंडी माना जा रहा है। यहां तक कि पंजाब के ज्यादातर गांवों में लोग घर में ही शराब बना रहे हैं। इस पर रोक लगाने में पुलिस नाकाम साबित हुई है।
कोई नहीं मानता ट्रैफिक नियम
राज्य में ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं के बराबर होता है। हालांकि हर शहर में ट्रैफिक पुलिस के कर्मचारी तैनात रहते हैं। लगभग हर चौक पर ट्रैफिक लाइट की व्यवस्था है और ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करने वालों का चालान काटने का भी प्रावधान है। लेकिन राज्य में यही देखने में आया है कि अधिकतर लोग ट्रैफिक नियमों का पालन ही नहीं करते। ट्रैफिक पुलिस भी राज्य में यातायात नियमों का सख्ती से पालन कराने में नाकाम साबित हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण पुलिस के प्रयासों में कमी को ही माना जा सकता है। ट्रैफिक नियम तोडऩे वाले लोगों पर पुलिस पूरी तरह से शिकंजा नहीं कस पा रही है। कर्मचारी चालान काटने के बजाय रिश्वत लेकर काननू तोडऩे वालों को छोड़ देते हैं।
बढ़ रही हैं आपराधिक वारदातें
राज्य में आपराधिक वारदातें भी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। राज्य में ज्यादातर हत्याएं और मारपीट की वारदातें जमीन के झगड़ों के चलते होती हैं। इसके अलावा चोरी और लूटपाट के इरादे से भी हत्याओं के काफी केस सामने आ रहे हैं। चोरी और लूटपाट के मामलों में कई गैंग भी पुलिस की पकड़ में आ चुके हैं। बड़े शहरों लुधियाना, जालंधर, अमृतसर और पटियाला आदि में छीनाझपटी की वारदातें में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पुलिस की ढीली चाल के कारण आपराधिक तत्वों में पुलिस का खौफ ही नहीं रहा है।
शराब तस्करी और गांवों में बनती देसी शराब
पंजाब में हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और चंडीगढ़ से शराब महंगी है। यही कारण है कि इन राज्यों से आए दिन भारी मात्रा में शराब की तस्करी हो रही है। राज्य के ज्यादातर गांवों में लोग घरों में देसी शराब तैयार करते हैं। तरनतारन के एरिया में सडक़ों के किनारे सरेआम शराब निकाले का सामान बेचा जाता है। मालवा में ज्यादातर लोग भुक्की का नशा करते हैं। यहां पर राजस्थान से भारी मात्रा में भुक्की की तस्करी हो रही है। एक और किसान कर्ज से दुखी होकर आत्महत्या कर रहे हैं तो दूसरी ओर नशा नहीं मिलने पर दुखी होकर भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या अकाली दल की, लेकिन नशे की तस्करी पर रोक नहीं लग पाई। उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल युवाओं को नशे से दूर करने के लिए खेलों को बढ़ावा देने की बात तो करते हैं, लेकिन नशे की तस्करी रोकने के बारे में उनके पास कोई अभी ठोस नीति नहीं है।
लगातार बढ़ता चोरी-हत्या का ग्राफ
यही नहीं पंजाब में चोरी, छीनाझपटी और हत्याओं का ग्राफ भी लगातार बढ़ता जा रहा है। पुलिस की कार्यप्रणाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लुधियाना में डीएसपी मर्डर मामले में उसके हाथ आज तक सुराग नहीं लग पाया है। डीएसपी की एक फरवरी २०१२ को लुधियाना के पास एक फार्महाउस में एक महिला के साथ हत्या कर दी गई थी। हर रोज शहरों में दुकानों के ताले टूटने, पेट्रोल पंप लूटने और महिलाओं से चेन और पर्स छीनने की घटनाएं आम हो चुकी हैं।
पुलिस कर्मचारियों का रवैया ठीक नहीं
सबसे बड़ी कमी यही है कि पुलिस कर्मचारियों का लोगों के साथ व्यवहार ही ठीक नहीं है। आम आदमी पुलिस के नाम से खौफ खाता है। शिकायत दर्ज कराने पुलिस स्टेशन जाने वाले लोगों को डराने धमकाने के मामले अकसर सामने आ रहे हैं। पुलिस से तंग आकर पुलिस स्टेशनों में आत्महत्याओं के मामले बढ़ रहे हैं। पुलिस हिरासत में मौतों का सिलसिला जारी है।
तस्करों से पुलिस-नेताओं की साठगांठ
ऐसे कितने ही मामले सामने आ चुके हैं कि पुलिस और नेताओं की तस्करों से मिलीभगत से ही तस्करी का धंधा चला रहा है। बॉर्डर एरिया में सबसे ज्यादा नशे का काराबोर है। यहां नेताओं के डर से पुलिस अधिकारी तस्करों का साथ देना ही सही मानते हैं। पुलिस की ढीली कार्यशैली के कारण ही तस्कर भी बरी हो जाते हैं।
अपना ही एक्ट लागू नहीं कर पाई सरकार
पुलिस प्रशासन में सुधार के लिए पंजाब सरकार ने पुलिस एक्ट २००८ तैयार किया था। इससे व्यवस्था सेसुधार की एक उम्मीद जगी थी। हैरानी की बात है कि सरकार अपने ही एक्ट को अब तक लागू नहीं कर पाई। एक्ट लागू क्यों नहीं हो पाया? सरकार की क्या मजबूरी है? ये तो सरकार की बता सकती है, लेकिन बेलगाम काननू व्यवस्था का खमियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है।


क्या करना चाहिए सरकार को : एक्सपर्ट
पुलिस पर राजनीतिक दबाव खत्म कर दिया जाए। पुलिस के काम में राजनीतिक हस्तक्षेप बंद हो जाए तो राज्य के हालात और बेहतर हो सकते हैं। पुलिस को हर क्षेत्र में राजनीति से दूर रखना होगा। कई मामलों में पुलिस अधिकारियों को राजनीतिज्ञों से सीधे हुक्म मिलने लगते हैं। इस तरह पुलिस की कमांड तोडऩा मौजूदा समय के साथ-साथ भविष्य के लिए भी खतरनाक है। पुलिस राजनीति से दूर रहकर काम करे, तो अच्छा रहेगा, नहीं तो राजनीतिज्ञों को और बढ़ावा मिलेगा।
पंजाब पुलिस की छवि में सुधार लाने के लिए एक तो थानों का माहौल खुशनुमा बनाना होगा, ताकि वहां जाने में किसी को डर न लगे। पिछले करीब 30 साल में थानों के माहौल में कुछ सुधार तो हुआ है, लेकिन अभी सिर्फ समाज के मजबूत वर्ग के लोग ही थानों में बिना डर के जा रहे हैं। कमजोर वर्ग के लोग अब भी थानों में जाने से डरते हैं। इसलिए थानों के माहौल में अभी और सुधार लाने की जरूरत है। पुलिसकर्मियों और अधिकारियों की गैरहाजिरी पर भी रोक लगानी होगी। शराब पीना गुनाह नहीं है, लेकिन ड्यूटी के दौरान शराब पीना गुनाह है। इस पर भी शिकंजा कसा जाना चाहिए।
मौजूदा समय में पंजाब पुलिस के सामने नशीले पदार्थों की तस्करी, एनआरआईज की प्रॉपर्टी की हिफाजत, साइबर क्राइम, राजनीतिक झगड़े, आतंकवाद को दोबारा सिर उठाने से रोकना और माइगं्रेट लेबर पर ध्यान रखना सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। नशीले पदार्थों का रुझान ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा है, जो नौजवानों को अपनी जकड़ में ले रहा है। एनआरआईज की प्रॉपर्टी पर उनके रिश्तेदार ही कब्जे जमाने में लगे हैं। साइबर क्राइम अभी पंजाब में कम है, लेकिन भविष्य में यह बढ़ सकता है। बैंकों और अन्य जगहों पर डाटा सिक्योरिटी को लेकर पुलिस को सजग रहना होगा। राज्य में राजनीतिक रंजिश को लेकर होने वाले झगड़ों पर भी नकेल कसनी होगी। राजनेता अपने फायदे के लिए गांव और शहरवासियों में झगड़े करवा देते हैं। इस तरफ ध्यान रखना होगा। आतंकवाद का खतरा फिलहाल नहीं है, लेकिन पुलिस को ध्यान रखना होगा कि यह दोबारा सिर न उठाए। माइग्रेंट लेबर का भी पुलिस को ध्यान रखना होगा। पंजाब में वैसे भी लेबर कम होने के कारण महंगी हो रही है। किसानों और माइग्रेंट लेबर में लेनदेन को लेकर विवाद होते रहते हैं। पंजाब में अभी नक्सलवाद का खतरा तो नहीं है, लेकिन इसके लिए पंजाब पुलिस को सावधान रहना होगा, क्योंकि नक्सलवाद का एरिया बढ़ रहा है। दिन प्रतिदिन विभिन्न राज्यों के कई जिले इसकी चपेट में आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश, ओडि़शा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और कई अन्य राज्य इसकी चपेट में आ चुके हैं। पंजाब में बेरोगजार युवक नक्सलवाद की ओर आकर्षित हो सकते हैं। पुलिस को इसका ध्यान रखना होगा।
लोग ट्रैफिक नियम तोडऩा हेकड़ी समझते हैं। पकड़े जाने पर वे या तो किसी बड़े राजनीतिज्ञ से सिफारिश करवा लेते हैं या बड़े घरों से होने के कारण पुलिस उनसे नरम तरीके से पेश आती है। राज्य में ट्रैफिक नियमों का पालन कराने के लिए पुलिस को सख्ती से काम करना होगा। हालांकि जब पंजाब के यही लोग चंडीगढ़ में जाते हैं, तो वहां वे ट्रैफिक नियमों का पूरा पालन करते हैं, क्योंकि वहां ट्रैफिक नियमों के पालन को लेकर सख्ती है। लेकिन यही लोग पंजाब में आकर ट्रैफिक नियमों को तोडऩे में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए पंजाब पुलिस को भी ट्रैफिक नियमों का पालन कराने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे। वैसे भी अगर कोई व्यक्ति ट्रैफिक नियमों का पूरी तरह पालन करता है तो इससे उसके जीवन में भी काफी सुधार आ सकता है। इससे जीवन में अनुशासन में काम करने की आदत पड़ती है। हादसे कम होने से सुरक्षा की भावना बढ़ेगी और शराब पीने की आदत में कमी आएगी।
करप्शन खत्म करने के लिए पुलिस से पहले राजनैतिक इच्छाशक्ति मजबूत होनी चाहिए। पंजाब पुलिस और विजिलेंस करप्शन रोकने में पूरी तरह सक्षम है, बशर्ते इसके लिए पॉलिटिकल विल हो। पहले राजनीतिज्ञों को खुद ईमानदार होना होगा, तब समाज से करप्शन दूर किया जा सकता है। भ्रष्टाचार रोकने का एक ही तरीका है, इसके प्रति जीरो टॉलरेंस हो। पंजाब विजिलेंस के पास भ्रष्टाचार की जो भी शिकायत आए, उस पर बिना किसी सियासी दबाव के तुरंत कार्रवाई की जाए।
-एपी पांडे, रिटायर्ड डीपीजी, पंजाब पुलिस

वर्ष 2011 में पंजाब में हुए अपराध
अपराध रजिस्टर्ड केस ट्रेस आउट कन्विक्टिड
मर्डर 882 743 405
डकैती 28 25 16
सेंंधमारी 2488 1123 618
दंगा 0 0 0
304 आईपीसी 112 108 42
इरादा-ए-कत्ल 997 959 303
हर्टिंग 4757 4695 1309
पॉइजनिंग 36 31 4
किडनैपिंग 355 313 112
भगाना 326 284 23
बलात्कार 479 276 229
चोरी 3582 1787 917
382 आईपीसी 1202 768 264
लूट 236 170 47
411 आईपीसी 1345 1358 740
धोखाधड़ी 3571 3525 696
406-409 आईपीसी 281 276 96
कनाल कट 14 19 14
छिटपुट अपराध 13687 12021 4586
एनडीपीएस एक्ट 5464 5473 3855
आम्र्स एक्ट 831 811 490
करप्शन एक्ट 31 17

रविवार, जून 01, 2014

पंजाब मेें नशाखोरी


पंजाब की याद दिलाते हैं जिसके बारे में सिकंदर महान ने अपनी मां को लिखा था, यह शेरों और बहादुरों की धरती है, जहां की जमीन पर कदम-कदम पर मानो इस्पात की दीवारें हैं, जो मेरे सैनिकों की परीक्षा ले रही है, इसी पंजाब के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा था, यह वह वीर भूमि है, जो किसी भी बाहरी हमले को पहले अपनी नंगी छाती पर झेलती है।चाहे वो मुसलिम शासकों के लगातार हमले झेलना रहा हो। यहां की मिटटी में ही एक एग्रेशन आ चुका है। वहीं दूसरी ओर सुखबीर पंजाब का चेहरा है जो बुरी तरह निस्तेज है, ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर वे कौन से हालात हैं जिनके चलते पंजाब में नशे की ऐसी लहर उठी। 

यह एक किस्‍सा ही काफी है, पूरे नशे की कहानी बयां करने को। दोआबा में खासकर नवांशहर की बात करें तो यहां मेरा गांव लंगड़ाेआ बहुत बदनाम है। मैं खुद बचपन से अब तक देखता आ रहा हूं कि यहां की सैंसी बिरादरी में महिलाएं बड़े धड़ल्‍ले से स्‍मैक बेचती हैं। कई बार पकड़ी गईं, छूट गई, लेकिन उन महिलाओं ने यह पुश्‍तैनी धंधा नहीं छोड़ा। नतीजतन पूरा गांव की जवानी नशे की चपेट में आ गई। मेरे ही सामने का घर जटटों का है, उनका काफी लंबे-चौड़े खेत हैंं। उनके बड़े बेटे के दो बेटे हैंं। एक मानसिक रूप से अपाहिज और छोटा नवांशहर एक कॉलेज में पढ़ने जाता था। इस दौरान वह कब-कब एक सरदार का बेटा सिगरेट की लत लगा बैठा। फिर स्‍मैक, हेरोइन भी टयूवबेल पर छुप-छुपकर पीने लगा। बाप को पता चला, तो उसका इलाज कराना शुरू किया। आखिरकार एक ही वारिस था वह भी नशे की जद में जा रहा था। मैं जब भी पिंड जाता तो उसका बाप मुझसे कहता कि यार तुम पढे-लिखे हो हम तो अब रिटायर फौजी ठहरे। इसे तुम ही कुछ समझाओ। हमारी तो यह सुनता नहीं है और झूठ बोलता है। ऐसे में यह अपनी ही जिंदगी खराब करेगा। हमारी तो कट गई। मैं उसे उसका दोस्‍त बनके समझाता, वह कहता चाचा हुण तां मैं छडड चुकेआं, हां कदी जरूर कीता सी। खैर फिर उसने अपने इस बेटे को यूके भेज दिया। वहां पर उसका इलाज भी हुआ और वह पढाई के बाद एक अच्‍छी नौकरी भी कर रहा है।

पंजाब में हालात खराब होने की और भी वजहें हैं, इनमें से एक प्रमुख कारण है अफगानिस्तान और पाकिस्तान से इसकी निकटता तथा दुनिया के नशे के कारोबार के नक्शे पर इसकी अहम स्थिति,पाकिस्तान के साथ लगने वाली पंजाब की सीमा के पूरे 553 किलोमीटर के इलाके में बिजली के तारों की घेराबंदी की गई है। लेकिन इसका कोई खास असर नहीं है, क्योंकि इसमें बिजली गर्मियों में शाम छह बजे के बाद और जाड़ों में शाम चार बजे के बाद ही चालू की जाती है, सीमा का कुछ हिस्सा पानी से भरा है, लेकिन वह तस्करों की पसंद का रास्ता नहीं है क्योंकि बिजली बंद होने के कारण पहले वाला रास्ता उनको अधिक मुफीद पड़ता है। अगर आप नशे की लत से जद्दोजहद कर रहे तरनतारन जिले की खेमकरन सीमा चौकी पर जाएंगे तो वहां आपको सडक़ पर यह चेतावनी लिखी नहीं मिलेगी कि शराब पीकर वाहन न चलाएं बल्कि इसके बजाय वहां लिखा होगा कि ड्रग्स लेकर वाहन न चलाएं।

दरअसल पंजाब की सिर्फ भौगोलिक स्थिति राज्य के युवाओं की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं है। एक मायने में हरित क्रांति से आई समृद्धि भी इसके लिए जिम्मेदार है, ग्रामीण इलाकों की शिक्षित-अर्धशिक्षित युवा पीढ़ी अब अपने बाप-दादों की तरह किसानी को आजीविका का साधन बनाना नहीं चाहती। लेकिन विडंबना यह है कि इसके अलावा उनके पास नौकरियां भी नहीं हैं। पंजाब के माझा क्षेत्र में पडऩे वाले ब्रह्मपुर गांव के किसान दलबीर सिंह बताते हैं, मेरे बेटे को कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद बस कंडक्टर का काम करना पड़ा था। अब वह मेरे साथ ही खेत में काम करता है। यहां नौकरियां हैं ही नहीं। यदि ये युवा ऐसे बिना काम के घूमेंगे तो नशे की गिरफ्त में आसानी से पड़ जाएंगे।

दोआबा और माझा इलाके में केवल अफीम की भूसी यानी भुक्की और डोडा का इस्तेमाल नहीं किया जाता बल्कि इससे बनने वाले अन्य नशे मसलन स्मैक और हेरोइन भी यहां खूब चलन में हैं। इतना ही नहीं अधिकारियों के लिए सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि राजनीतिक दलों ने दवा दुकानदारों को खुली छूट दे रखी थी कि वे युवाओं को उनकी मर्जी के मुताबिक खतरनाक नशीली दवाएं दे दें।
पंजाब की इस त्रासदी का एक दूसरा त्रासद पहलू यह है कि इसका समाधान खुद एक बीमारी की तरह फैल रहा है। राज्य में जहां-तहां अवैध नशा मुक्ति केंद्र खुल चुके हैं। इन केंद्रों में ज्यादातर मरीजों का वैज्ञानिक तरीके से इलाज तो होता नहीं है उल्टे पचास फीसदी से ज्यादा मरीज एक बार यहां से छुट्टी मिलने के बाद दोबारा यहां भर्ती जरूर होते हैं। पंजाब में बीते दिनों निजी नशा मुक्ति केंद्रों से जुड़ी हुई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जहां भर्ती मरीजों को प्रबंधन द्वारा शारीरिक प्रताडऩा दी गई। अमृतसर-रोपड़ के कुछ निजी क्लीनिक तो यह भी दावा करते हैं कि वे दो लाख रुपये में लेजर थेरपी से लोगों का नशा छुड़वा सकते हैं। कुछ जगह यह दावा किया जाता है कि एक चिप लगाकर वे लोगों का इलाज कर सकते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पंजाब में ऐसे हास्यास्पद दावे करने वाले क्लीनिक भी लाखों की कमाई कर रहे हैं। मुक्तसर शहर में आदेश अस्पताल के अधीक्षक डॉ एस कृष्णन इसकी वजह बताते हैं कि ज्‍यादातर परिवारवाले नहीं जानते कि वे नशेड़ी आदमी के साथ क्या करें, वे या तो उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं या फिर यह सोचते हैं कि पैसे से वे उसका इलाज करवा सकते हैं। कुछ परिवारों को लगता है कि संबंधित व्यक्ति उनकी प्रतिष्ठा पर धब्बा है। इसलिए उसे इन सेंटरों में रख दिया जाए।


कॉलेज जाने वाला हर तीसरा युवा नशा करता है
राज्य में नशे का अंधेरा इतना घना हो चुका है कि दूर-दूर तक उम्मीद की कोई रोशनी नजर नहीं आती। आखिर ऐसा क्यों है। पंजाब के युवाओं में नशे की लत ऐसा कोई रहस्य नहीं है जिसके बारे में किसी को पता न हो। साल 2009 में जब पंजाब की अकाली दल सरकार ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के सामने यह माना था कि राज्य के 75 फीसदी युवा नशे की गिरफ्त में हैं, तब इस मुद्दे पर कुछ सरगर्मी देखी गई थी। लेकिन अपनी पंजाब यात्रा के दौरान जब कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने कहा था कि राज्य के 10 में से 7 युवा नशे के आदी हैं तो इस पर खूब हायतौबा मची। तीन साल पहले कोर्ट में यही तथ्य रखने वाली राज्य सरकार ने इसे हकीकत से दूर और पंजाब की छवि खराब करने वाला गैरजिम्मेदाराना बयान बताकर आलोचना की तो वहीं पंजाब की सरकार में साझेदार भाजपा के एक बड़े तबके ने इसे सच माना।

लेकिन आंकड़ों और तथ्यों की बारीकियों से आगे निकलते हुए जब हम पंजाब में इस समस्या की हकीकत देखने का फैसला करते हैं तो हमें जल्दी ही एहसास हो जाता है कि युवाओं के लिए त्रासदी बन चुकी इस समस्या को आप चाहकर भी अनदेखी नहीं कर सकते। गलियों में आपको जहां इंजेक्शन से नशा करते युवा मिलेंगे, वहीं कुछ लोग सुल्‍फा; खराब गुणवत्ता वाली ब्राउन हशीश बेचते नजर आ जाएंगे।

बहरहाल यह तो एक बड़ी बीमारी की ओर छोटा सा इशारा भर है। पंजाब के दोआबा, माझा और मालवा इलाकों में नशे की समस्या बहुत बढ़ चुकी है। यहां लगभग हर तीसरे परिवार में कोई न कोई ऐसा मिल जाएगा जो नशे का आदी है। स्मैक से लेकर  हेरोइन और सिंथेटिक ड्रग्स तक, बुप्रेनॉर्फाइनए परवॉन स्पाए कोडेक्स सिरप जैसी दवाइयों से लेकर नकली कोएक्सिल और फेनारिमाइन इंजेक्शन तक यहां सब कुछ सुलभ है। पंजाब की जेलों में जितने लोग बंद हैं, उनमें से 30 फीसदी नशे से जुड़े कानूनों के तहत गिरफ्तार किए गए हैं। जो कोएक्सिल की बोतलों और इस्तेमाल की जा चुकी सुइयों से अटी पड़ी है। 16 साल का सुखबीर अपनी मां के पास जाने के लिए हमसे 30 रुपये मांगता है। वह कहता है, आपसे भीख नहीं मांग रहा हूं, बस मदद मांग रहा हूं। मैं एक जाट हूं। मेरा बड़ा सा फार्म है और अगली बार मिलने पर आपके पैसे लौटा दूंगा। सुखबीर इलाके के एक ठीकठाक किसान का बेटा है। हम उसे पैसे देने से इनकार करते हैं तो वह लगभग रोना शुरू कर देता है। आखिर में वह मान लेता है कि उसे एवीएल; फेनारिमाइन मैलेटद्, इंजेक्शन खरीदना है। यह घोड़ों और पालतू पशुओं के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवा है। वह कहता है कि इस दवा में एक मरते हुए घोड़े को दोबारा जिंदा कर देने की ताकत है और इसे लेकर वह भी खुद को जिंदा महसूस करता है। सुखबीर कहता है कि अगर हम उसे 100 रुपये और देंगे तो वह हमें कस्बे की बेहतरीन जगह दिखाएगा। हमारे इनकार करने पर वह छलांग लगाते हुए एक ऐसी जगह में गुम हो जाता है, जिसे होना तो पब्‍लिक टॉयलेट चाहिए, लेकिन जो अब स्मैक व एवीएल इंजेक्शन जैसे नशे लेने वालों का अड्डा बन चुकी है।

एक क्‍लास में 40 थे अब सिर्फ दस बचे
अमतसर के अनगढ़ में जिम चलाने वाले 35 वर्षीय सतबीर सिंह, जो बॉडी बिल्डिंग के नेशनल चैंपियन भी रह चुके हैं।  सुखबीर जैसे लडक़ों को देखकर कहते हैं कि पंजाब का भविष्य पूरी तरह अंधकारमय है और इसका कुछ नहीं किया जा सकता। सतबीर कहते हैं, ल के दिनों में एक ही क्‍लास में हम 40 बच्चे थे। उनमें से मुझे मिलाकर केवल 10 ही जिंदा हैं। बाकी सारे स्मैक और ऐसे ही दूसरे नशों का शिकार बन गए। सुखबीर और सतबीर की जिंदगी में दोगुने का अंतर है। लेकिन ढेर सारी बातें ऐसी हैं, जिनकी आपस में तुलना हो सकती है बल्कि जो आपस में गुंथी हुई है। 16 साल का सुखबीर अगर 21वां जन्मदिन मना लेता है तो वह खुशनसीब होगा। वहीं 35 साल के सतबीर अपने ढेर सारे साथियों को मौत के मुंह में जाते देख चुके हैं। 16 की उम्र का सुखबीर अपने भावी जीवन के बारे में कुछ नहीं सोच पाता। वहीं 35 के सतबीर भविष्य के बॉडी बिल्डर तैयार कर रहे हैं, जो असली मर्द बनकर निखरेंगे। 16 साल का सुखबीर एक दूसरे नशेड़ी के हाथों अपने चेहरे पर ब्लेड के दो वार झेल चुका है। 35 साल के सतबीर अपने चार साल के बेटे पर झूठ-मूठ का मुक्का चलाते हैं और वह किसी प्रशिक्षित मुक्केबाज की तरह खुद को सफलतापूर्वक बचा लेता है। 16 साल का सुखबीर हर रोज अपने गांव से अनगढ़ आता है लेकिन वह किताबें खरीदने नहीं बल्कि अपने लिए नशे का अगला डोज तलाश करने आता है। 35 साल के सतबीर ने यहां जिम इसलिए शुरू किया कि उन्हें कोई दूसरा काम नहीं मिला।


पूर्व चीफ इलेक्‍शन कमिश्‍नर एसवाई कुरैशी ने पंजाब में नशे की स्थिति को अनूठा बताते हुए बयान भी दिया था कि उन्होंने जितने राज्यों में चुनाव करवाए हैं, कहीं भी हालात इतने खराब नहीं थे। विधानसभा चुनाव की तारीख से एक सप्ताह पहले चुनाव आयोग के अधिकारियों ने तीन लाख कैप्सूल एविल के 2000 इंजेक्शन और रिकोडेक्स कफ सीरप के 3000 डिब्बे जब्त किए थे। 

खेमकरन के रास्ते में पड़ता है खालड़ा। यह सीमा पर बसा एक छोटा सा कस्बा है, जो नशीले पदार्थों की तस्करी के बड़े केंद्र के रूप में कुख्यात है। स्थानीय किसान कहते हैं कि नशे का ज्यादातर कारोबार बीएसएफ और सीमा के दोनों और मौजूद रेंजरों की नाक के नीचे होता है। नशीले पदार्थों को इधर से उधर करने में सबसे अधिक इस्तेमाल दोनों देशों की सीमाओं में खुलने वाली नाली की पाइपों और महिला तस्करों का होता है इस्‍तेमाल। बीएसएफ अधिकारियों का दावा है कि उन्होंने कई बार स्थानीय महिलाओं को 50 किलो तक हेरोइन अपने शरीर में सिलकर ले जाते पकड़ा है।

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32 साल के विजय पाल सिंह मकबूलपुर के सबसे संपन्न लोगों में से हैं। गांव घुमाने की बात पर वे बड़ी मुश्किल से तैयार होते हैं।गांव से गुजरते हुए हमें आसपास के इलाकों से आए कई मजदूर दिखते हैं जो यहां लाहना यानी देसी शराब केलिए आते हैं और अपने लिए स्मैक लेकर चले जाते हैं। विजय पाल जो खुद एक नशेड़ी हैं, काफी मानमनोव्वल के बाद  इस बारे में बात करने को तैयार होते है।उनकी कहानी अपने आप में उस बुनियादी वजह का खुलासा करती है जिससे राज्य में नशे की लत इस हद तक फैली है। 
विजय पाल के दादा जब 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद भारत आए थे तब उनके पास काफी जमीन थी और आज भी वे यहां के बड़े किसान हैं।हमने जब विजय पाल से यह जानने की कोशिश की कि वे आखिर नशे में अपना जीवन क्यों बर्बाद कर रहे हैं तो वे अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहते हैं कि उनके पिता ने कहा था,पुत्‍तरजब हमारे पास इतनी सारी जमीन है तो तू क्यों काम करना चाहता है, लेकिन क्या वह काम करना चाहते हैं।हमारे यह पूछने पर विजय पाल का जवाब है,कोई यहां काम दिखा दे तो मैं तो करने को तैयार हूं आपको यहां कोई काम दिखता है।बातचीत आगे बढ़ती है तो हमें समझ में आता है कि यह युवा नशे में बहुत बुरी तरह उलझा हुआ है और जहां से फिलहाल वह निकलने की कोशिश भी नहीं करना चाहता।विजय पाल को लगता है कि वह अपने पड़ोसियों से कहीं ऊंचा दर्जा रखता है इसलिए गांव में कोई काम-धंधा शुरू नहीं कर सकता,वह इंग्लैंड जाना चाहता है। लेकिन अपने खिलाफ एक आपराधिक मामले की वजह से नहीं जा पा रहा है।् अपने बच्चों के लिए विजय पाल के  पास कोई सपना नहीं है्,उसे लगता है कि पुरखों की जमीन उसके बच्चों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए काफी है,वह कहता है, देखिएमुझे अपने पिता की इज्जत ऊपर वाले से भी प्यारी है और मैं उस पर दाग नहीं लगने दूंगा।



फैक्ट
पंजाब में 98 निजी नशा मुक्ति केंद्र हैं जिनमें से सिर्फ 17 सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों के हिसाब से पंजीकृत है। अभी तक सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा कहीं नहीं हैण् ऐसे ही हालात रहे तो शायद कुछ ही सालों में पंजाब की वैश्विक पहचान यही समस्या होगी

बुधवार, फ़रवरी 05, 2014

अनोखे बैलेंस के खेल, हर हुनर है कमाल का


गांव किला रायपुर ग्रामीण खेल
ये एक ऐसा ओलंपिक है, जिसमें नाच रहे हैं घोड़े, हो रही है कुछ अलग तरह की रेस, बिलकुल अजब अनोखे खेल। ऐसे ओलंपिक जो किसी बड़े शहर में नहीं बल्कि एक गांव में हो रहे हैं, लेकिन इनकी ख्याति दुनिया के हर कोने तक जा फैली है। 1933 से अब तक हो रहे हैं ये ग्रामीण किला रायपुर खेल, जिन्हें मिनी ओलंपिक के नाम से भी जानते हैं। इसके खेल और खिलाड़ी है भी हैं बिल्कुल जुदा। यहां बैलेंस और फर्राटा रेस का कुछ अलग अंदाज में होता है खेल। यहां खिलाड़ी दिखाते हैं अपना दम और पारंपरिक खेल। हैरतंगेज स्टंट, इसमें बड़े-बड़े सितारे तो नहीं लेकिन इनका हुनर कमाल कर देने वाला होता है। यहां उम्र का कोई बंधन नहीं है क्या बुजुर्ग, क्या बच्चे हरेक अपना खेल दिखाता है। यहां बैलगाडिय़ों की फॉर्मूला वन रेस का तो हरेक दीवाना है। इसे देखने के लिए बड़ी भीड़ जुटती है। इतना सबकुछ एक स्टेडियम में एक साथ कई खेलों का प्रदर्शन देख दर्शकों के दिलों में उत्सुकता का ज्वार भाटा ऐसे ठाठें मारता है कि जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। ओलंपिक गांव किला रायपुर स्टेडियम में जब जांघ पर थाप देकर प्रतिद्वंदी टीम को ललकारती है तो हर ओर से सीटियां ही बजती हैं।
एहनां दियां ब्रेकां नईं हुंदियां
बैलगाड़ी रेस शुरू हो रही थी, जिसका इंतजार सुबह से खेल मैदान में मौजूद हर एक दर्शक को था। लौ वीर जी तैयारी पेहली हीट दी... मैदान में यह आवाज सुनाई दी। मारो वी तालियां मेला हुण शुरू होया, और देखते ही देखते तालियों की गडग़ड़ाहट से पूरा मैदान गूंज ऊठा। फिर से आवाज आई छड्ड दियो मदान एहणा दियां ब्रेका नई हुंदियां। नजरें घूमी तो बैलों पर सवार युवा थ्री नॉट थ्री गोली की तरह हवा को मार करते हुए मैदान के एक छोर से फीनिश लाइन तक दौड़ते आ रहे थे। मैदान में जमघट तो सुबह से ही था, लेकिन शोर-शराबा और तालियों को ज्यादा शोर बैलगाड़ी रेस के दौरान सुनाई दिया। मिनी ओलंपिक्स के इतिहास में पहली बार 95 बैलगाडिय़ां ने भाग लिया है। यह भी अब तक का एक रिकॉर्ड दर्ज हुआ है। अजब अनोखे अद्भुत रूरल मिनी ओलंपिक्स का विभिन्न खेलों के साथ-साथ बैलगाडिय़ों की दौड़ के लिए खास रहा। इस मिट्टी के जोशीले हर धावक के जज्बे को सलाम
ये किला रायपुर का ग्रामीण चार दिवसीय खेल मेला था, जो रविवार को खत्म हुआ। यह सिर्फ  एक परंपरा का खेल मेला नहीं, वरन ये पंजाब की सौंधी मिट्टी की खुशबू और उसके लालों की बहादुरी के गीतों भरा एक उत्सव है। यहां जब बैल, घोड़े, खच्चर, ट्रैक्टर, ऊंट दौड़ते हैं, तो उनके आगे हरकारों की तरह मैदान में उपस्थित हर बंदे का जोश छलांगें मार-मारकर दौड़ता है। यहां जब कोई बहादुर, क्या बुजुर्ग-क्या गबरू अपना हैरतंगेज करतब दिखाता है, तो हर जिंदादिल जोरदार शाबाशी दिए बिना नहीं रह पाता है। यहां चीयर करने के लिए किराए के लोगों की जरूरत नहीं होती। जनाब न यहां दर्शकों को बुलाने के लिए किसी दूसरे तमाशों का तामझाम करने की जरूरत पड़ती है। ये तो किला रायपुर के ग्रामीण खेल का आकर्षण है, जो हर शख्स इस चार दिन के उत्सव में खुद-ब-खुद खिंचा चला आया। इसका गवाह देश-विदेश से पहुंचे लाखों दर्शक हैं।
85 साल के जवां तेजा विजेता
गांव फुलावाल के 85 साल के जवां तेजा सिंह ने 100 मीटर की रेस जीती। तेजा सिंह कहते हैं कि वह 20 साल से लगातार इसमें हिस्सा ले रहे हैं और हर बार उन्हें कोई शिकस्त नहीं दे पाया। बकौल तेजा, वो किला रायपुर के अलावा पंजाब की ग्रामीण खेलों में न तो इनाम पाने के लिए दौड़ते हैं और न ही पदक की आस में। उनका दौडऩे के पीछे सिर्फ यही मकसद है कि युवा उन्हें देखकर कुछ सीख सकें। अगर युवा नशे की गिरफ्त से दूर रह सके, तो इस उम्र तक आदमी सेहतमंद रह सकता है।

बुधवार, जनवरी 08, 2014

शामली-मुज़फ्फरनगर के दंगा राहत शिविर के हालात

उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर, शामली, बाघपत, मेरठ, और सहारनपुर जिलों के ग्रामीण इलाकों में सितम्बर के पहले हफ़्ते में हुए दंगों के बाद से हज़ारों मुसलमान चार महीने से राहत शिविरों में रह रहे हैं | पिछले हफ़्ते से, उत्तर प्रदेश सरकार ने जबरन शिविर बंद करने और लोगों को वहाँ से निकालने की नीति अपना ली है| परिणामस्वरूप दंगा-पीड़ित लोग और भी ज़्यादा परेशान और असुरक्षित हो गए हैं |
पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) की तरफ से एकपांच सदस्यीय जांच दल  28 से 30 दिसंबर 2013 के बीच राहत शिविरों का दौरा करने गया | उद्देश्य था कि शिविरों में रह रहे लोगों के हालत और उन्हें हो रही परेशानियों का जायजा लेना | टीम ने 8 शिविरों का दौरा किया और 60 से भी ज्यादा गाँवों के लोगों से बातचीत की | शामली ज़िले में टीम ने मलकपुर, बर्नावी, कांधला, और मदरसा (शामली शहर) शिविरों का दौरा किया | मुज़फ्फरनगर ज़िले में टीम ने लोई, शाहपुर, जोगिया-खेडा और जॉला शिविरों का दौरा किया | इसके साथ, टीम ने 5 अन्य शिविरों के लोगों से मुलाक़ात की | कुल मिलाकर पीयूडीआर. ने 13 शिविरों के लोगों से बातचीत की| टीम ने शामली के ज़िला अधिकारी, मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त ज़िला अधिकारी, फुगाना थाना के थाना अधिकारी, लोई और जोगिया खेडा गाँव के प्रधान, सवास्थ्य-कर्मियों, शिक्षकों, पत्रकारों, धार्मिक संगठनों के सदस्यों, शिविर समितियों के सदस्यों, और अन्य गैर-सरकारी संस्थाओं से जुड़े राहत कर्मियों से बातचीत की |
 जबरन राहत शिविरों से दंगा-पीड़ितों का निकाला जाना
दुर्भाग्य से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले की सुनवाई और मीडिया द्वारा पीड़ितों के हालातों के बारे में लगातार ख़बरें दिए जाने का उल्टा असर हुआ है | प्रशासन अब शिविरों को बंद करने पर तुल गया है और लोगों को हटाने के लिए अब तरह-तरह के तरीके अपनाए जा रहे हैं | जैसे कि पीड़ितों के खिलाफ़ सरकारी ज़मीन पर अनधिकृत रूप से रहने के लिए मामला दर्ज़ कराना, राहत शिविर समितियों पर दबाव डालना, बड़े पैमाने पर लोगों को डराने के लिए पुलिस और अफसरों की मौजूदगी और दंगा पीड़ितों कि बड़ी बस्तियों को तोड़ना |
29 और 30 दिसंबर को लोई शिविर में रह रहे खरड गाँव के सौ से भी ज़्यादा परिवारों को किसी सरकारी बैरक में अस्थायी रूप से स्थानांतरित किया जा रहा था | उन्हें यह कहकर हटाया जा रहा था, की ऐसा उन्हें ठण्ड से बचाने और बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए किया जा रहा है | इन्हें अभी तक पुनर्वास मुआवज़ा नहीं मिला है |
यह स्पष्ट है की दंगों के बाद लोग अपने गाँव वापस जाने के ख्याल से ही असुरक्षित महसूस कर रहे हैं | उन मामलों में यह असुरक्षा और भी ज्यादा है जिन में हमलावरों के खिलाफ केस तक दर्ज़ नहीं किया गया है और हमलावर उन्हें धमकाते हुए खुले घूम रहे हैं | इसके बावजूद अन्य गावों के परिवारों को शिविर छोड़कर अपने-अपने गाँव जाने के लिए कहा जा रहा था  |
 सरकारी एजेंसियों द्वारा राहत मुहैय्या कराने में उदासीनता
हमारी टीम ने पाया की एक भी राहत शिविर ऐसा नहीं था जिसे सरकार ने शुरू किया हो या जिसका प्रबंधन सरकार द्वारा किया जा रहा हो | ज़्यादातर राहत शिविर मुसलमान-बाहुल्य गाँवों के पास पाए गए, जहां पीड़ित लोग दंगों के दौरान भागकर आये थे | हर शिविर में हमें प्रशासन की ओर से राहत सामग्री और सुविधाएं मुहैय्या कराने में उदासीनता के बारे में बताया गया | शिविर शुरू होने के 2 हफ्ते बाद से ही प्रशासन द्वारा राहत सामग्री उपलब्ध कराई जानी शुरू की गयी | 1 अक्टूबर के बाद प्रशासन ने शिविरों में खाद्य सामग्री भेजनी भी बंद कर दी गई, जॉला और जोगिया खेडा शिविरों में भी हमें ऐसा बताया गया | शीत लहर के निकट आने और 21 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रशासन को राहत सामग्री दोबारा मुहैय्या कराने के आदेश के बाद भी गरम कपड़े या कम्बल उपलब्ध नहीं करवाए गए |
दिसंबर में जब प्रार्थियों ने, शिविरों में हुई 39 मौतों के बारे में सबका ध्यान केन्द्रित किया, तब जाकर प्रशासन ने 5 शिविरों में प्रत्येक परिवार के लिए दवाइयाँ और 200मी.ली. दूध बांटना शुरू किया |
शिविरों में बहुत सारे विद्यालय जाने वाले छात्र भी हैं | हालांकि कुछ जगहों पर प्राथमिक विद्यालयों की सुविधाएं उपलब्ध करवाई गईं हैं पर बड़ी कक्षाओं के बच्चों की पढ़ाई रुक गई है | पास के विद्यालयों में दाखिला देने से मना किया जा रहा है | सबसे बुरा प्रभाव तो छात्राओं पर हुआ है | और जिन बच्चों की पिछले साल बोर्ड की परीक्षा थी वे तो इम्तिहान देने का मौका खो ही चुके हैं | इन बच्चों ने न सिर्फ अपना एक साल गवाया है, बल्कि अब इनकी आगे की पढ़ाई बंद हो जाने की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं |स्वास्थ्य सुविधायें न के बराबर हैं | ज़्यादातर शिविरों में थोड़ी-बहुत दवाइयां ही बांटी जा रही  हैं | शामली के ज़िला अधिकारी ने इस बात पर खेद भी जताया और इसका दोष खुद के ज़िले में उदासीन स्वास्थ्य सेवाओं पर मढ़ दिया | कई महिलाओं ने शिविरों में ही बच्चों को जन्म दिया है और कई गर्भावस्था के आखिरी पढ़ाव पर हैं | एक अच्छे स्त्रीरोग विशेषज्ञ की सुविधायें पूरे ज़िले में कहीं उपलब्ध नहीं हैं, शिविरों में तो दूर की बात है | इन महिलाओं को पौष्टिक खाना उपलब्ध करवाने का प्रयास भी नहीं किया गया है | फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक समिति का गठन किया गया है जो शिविरों में हुई 34 बच्चों की मृत्यु के कारणों कि जांच कर रही है.
दिसंबर में राज्य सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायलय में दर्ज़ कराये गए एक शपथ-पत्र में कहा गया है की सितम्बर महीने में 58 शिविर चल रहे थे | शपथ-पत्र के अनुसार यह आंकड़ा घटकर दिसंबर में 5 हो गया था (4 शामली में और 1 मुज़फ्फरनगर में ) | हमारी टीम द्वारा यह कथन बिलकुल असत्य पाया गया | शिविर-वासियों ने बताया की 25 गाँवों में राहत शिविर चल रहे हैं | इनमें से कुछ गाँवों में एक से अधिक शिविर भी हैं | हमारी टीम द्वारा 13 ऐसी जगहों का दौरा स्वयं किया गया और अभी भी शिविर चल रहे हैं | कई पीड़ित लोगों को ठण्ड के कारण पास के घरों में शरण दिलाई जा चुकी है | इसलिए जितने लोग हमें शिविरों में दिखे, वे ज़ाहिर तौर पर असल में शिविरों में रह रहे लोंगों से कम ही थे |
30 दिसंबर को लोई शिविर में टीम की मुलाक़ात मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त ज़िला अधिकारी से हुई | उन्होंने जो बताया उससे सबसे ज़्यादा अचम्भित हुए | उनका कहना था कि शाहपुर गाँव में कोई शिविर नहीं चल रहा | ठीक एक घंटे के बाद टीम ने शाहपुर में 3 क्रियाशील शिविर देखे |
सरकारी सूची से इतने सारे शिविरों का छूट जाना प्रशासन के बेरुखे व्यवहार को दर्शाता है | परिणामस्वरूप हज़ारों पीड़ित लोग राहत के लिए निजी संस्थाओं पर निर्भर हैं | यह खुले तौर पर जनता को गुमराह करने का प्रयास है |
दंगा प्रभावित लोगों के गुमराह करने वाले आंकडे
राहत शिविरों में जिला प्रशासन द्वारा स्वयं निरीक्षण न किए जाने का एक परिणाम यह हुआ है कि दंगा-पीड़ितों की संख्या का कोई एक निष्पक्ष आंकड़ा नहीं है | 4अक्टूबर 2013 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित हार्मनी कमिटी द्वारा अपनी रिपोर्ट में कुल आतंरिक तौर पर विस्थापित लोगों की संख्या 33,696 बताई गई है | इनमें लगभग 74% लोग मुज़फ्फरनगर के शिविरों में रह रहे थे, 22% कैराना, 3.3 % शामली और 0.7 % बागपत के शिविरों में | दिसंबर तक सर्वोच्च न्यायलय में जमा किये गए सरकारी शपथ-पत्र में शिविरों में रह रहे कुल पीड़ितों की संख्या 5,024घोषित की गई |
इस आंकड़े की असत्यता राहत शिविरों पर उपलब्ध शिविर-वासियों के रिकॉर्ड से साफ़ साबित हो जाती है | राहत सामग्री के आबंटन के दौरान, प्रत्येक शिविर में राहत समिति द्वारा बनाए गए पीड़ितों के रिकॉर्ड, एकमात्र सबसे सटीक रिकॉर्ड हैं | सिटीजन फार जस्टिस एंड पीस बनाम उत्तर प्रदेश सरकार  (याचिका क्र. 170 वर्ष 2013) के मामले में प्रार्थियों द्वारा दर्ज़ कराये गए अतिरिक्त शपथ-पत्र के अनुसार 6 दिसंबर तक राहत शिविरों में 27,882 लोग रह रहे थे | हमारी टीम द्वारा 13 शिविरों के दौरे के बाद विस्थापित लोगों का जो अनुमानित आंकड़ा निकाला गया है, वह लगभग इस आंकड़े से मेल खाता है |

  'दंगा-पीड़ित' गाँवों और लोगों कि श्रेणी में डाले जाने में खामियां
राहत समितियों द्वारा हमें बताया गया की 162 गाँव के परिवारों ने अपना घर छोड़कर शिविरों में शरण ली है | स्वयं हमने 60 गाँवों के लोगों से बातचीत की | हालांकि सरकारी तौर पर सिर्फ 9 गाँव ही दंगा-ग्रस्त करार दिए गए | इसलिए सिर्फ 9 ही गाँवों के लोगों को सरकारी पुनर्वास पैकेज का फायदा मिल सकता है |
सबसे अधिक हत्याएं होने के आधार पर जो 9 गाँव दंगा-ग्रस्त घोषित किये गए हैं, उनके नाम हैं - लाक, लिसाड़, बहावड़ी, कुटबा, कुटबी, मोहम्मदपुर रायसिंह, काकरा,फुगाना, और मुंडभर | सरकारी पैकेज के अनुसार इन 9 गाँवों से लगभग 1800परिवारों को दंगा-ग्रस्त चिन्हित किया गया है | ये सभी सरकारी पैकेज के तहत एक मुश्त राशि 5,00,000 रूपए प्राप्त करने के हक़दार हैं |
पर इन 9 गाँवों के लोगों के अलावा भी कई ऐसे लोग हैं जो अपने घर लौटने की स्थिति में नहीं है | उन्होंने अपने हिन्दू पड़ोसियों द्वारा धमकियों और बेइज्ज़ति का सामना किया है | सशस्त्र दंगाइयों द्वारा उनके घरों में तोड़-फोड़ और औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया गया है | जब वे पुलिस के साथ अपने घर वापस गए तो उनके घरलूटे जा चुके थे | और कुछ मामलों में जहां परिवार के लोग दंगों के दौरान भाग कर नहीं आ सके थे, वे अब तक (तीन महीने बाद भी) लापता हैं |
ये गाँव और यहाँ के मुसलमानों को दंगा-ग्रस्त नहीं माना जा रहा है और इसलिए वे पुनर्वास के हक़दार नहीं हैं | इनमें से कई लोगों ने, जिनसे हमारी टीम ने बात के दौरान बताया कि वे 7 या 8 सितम्बर की रात को घर से खाली हाथ, सिर्फ दो कपड़ों में भागकर आये थे |
  संदिग्ध पुनर्वास पैकेज और उसकी शर्तें
राज्य सरकार का हर परिवार के लिए 5 लाख रुपयों के एक मुश्त पुनर्वास पैकेज में बहुत समस्याएँ हैं | यह पैकेज न तो गाँव में घर के आकर पर आधारित है और न ही घर में बसे परिवारों की संख्या पर | इसलिए 9 चिन्हित गावों में से भी, शिविर में रह रहे हर परिवार को 5 लाख रूपए नहीं मिल पाए हैं | जहां एक ही घर में एक से ज़्यादा परिवार रह रहे थे, वहाँ यह परेशानी सबसे ज्यादा देखने को मिली | इन परिवारों में, सिर्फ परिवार के मुखिया को ही रूपए दिए गए और सयुंक्त परिवार के बाकी छोटे परिवारों को नहीं दिए गए |
इसके अलावा, पुनर्वास की शर्तों के अनुसार अगर लाभार्थी कभी भी अपने घर वापस जाते हैं, तो उन्हें यह 5 लाख रूपए लौटाने पड़ेंगे | पीड़ितों के पास मौजूदा स्थिति में, जहां वे खुले आसमान के नीचे टेंटों में रह रहे हैं और घर वापस लौटने की उम्मीद बहुत कम है, पुनर्वास स्वीकार करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है | इसके बाद एक बार अगर उनसे यह रुपये खर्च हो जाते हैं, तो मजदूरी करने वाले ये परिवार कभी इन रुपयों को लौटा नहीं पाएंगे | इस प्रकार सरकारी नीति यह सुनिश्चित करती है की पीड़ित व्यक्ति कभी अपने घर लौट ही न पाएं | ऐसे में यह पुनर्वास पैकेज वास्तव में एक ऐसा क्षतिपूरक पैकेज है जो हर तरह से लोगों को हुई उनकी क्षति की भरपाई करने में नाकामयाब साबित होता है |
दूसरी तरफ, सरकार ने पीड़ितों के घरों और सामुदायिक संपत्ति जैसे मस्जिद, ईदगाह, मदरसे, कब्रिस्तान आदि की सुरक्षा के लिए कोई ज़िक्र नहीं किया है | ये संपत्तियां समय के साथ उन्हीं लोगों के हाथों में पड़ जाएंगी जो मुसलामानों के खिलाफ हिंसा करने के लिए ज़िम्मेदार हैं | इससे भविष्य में साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने के लिए एक अच्छे आर्थिक फायदे के रूप में भी देखा जा सकता है |
आखिर में, इस पूरी प्रक्रिया में जो बात बिलकुल छिप जाती है वह है राज्य कीअभियोज्यता | मुख्य रूप से, क्योंकि राज्य पीड़ितों को साम्प्रदायिक हिंसा से बचा नहीं पाया, क्योंकि अपराधी आज भी आज़ाद घूम रहे हैं, और क्योंकि पीड़ितों को अच्छी सुरक्षा नहीं मिल पा रही है, इसीलिए आज पीड़ित अपनी जिंदगियों में वापस लौटने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं | ऐसे में यह पुनर्वास पैकेज और कुछ नहीं बस राज्य की असफलता को छिपाने के लिए एक चाल नज़र आती है |
  हत्या, बलात्कार, आगजनी, और लूट के मामलों में पुलिस की बेहद ढीली पड़ताल
फैक्ट-फाइंडिंग टीम को ज्ञात हुआ की पुलिस जान-बूझकर सबूत मिटाने और पड़ताल को विलंबित करने का प्रयास कर रही है | इस तरह से, सी आर पी सी के सेक्शन167(2) में पड़ताल के लिए निर्धारित अधिकतम अवधि (90 दिन) निकलती जा रही है | और जघन्य अपराधों के दोषी बेल पर छूट रहे हैं | सिटीजन फार जस्टिस एंड पीस बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (याचिका क्र. 170 वर्ष 2013) के मामले में प्रार्थियों द्वारा दर्ज़ कराये गए अतिरिक्त शपथ-पत्र के अनुसार कम से कम 5 ऐसे दोषियों को बेल मिल भी चुकी है और अब इनको बिना कोर्ट वॉरेंट के गिरफ्तार करना असम्भव है | निम्नलिखित कम से दो ऐसे मामलों में पुलिस की संदिग्ध भूमिका स्पष्ट होती है |

डूंगर गाँव के मेहेरुदीन (पुत्र रफीक) का मामला ऐसा ही है | डूंगर गाँव मुज़फ्फरनगर ज़िले के फुगाना थाने में पड़ता है | मेहरुदीन का शव 8 सितम्बर को, निर्वस्त्र अवस्था में उन्हीं के गाँव के पवन जाट के घर में गले से लटका हुआ पाया गया था | ग्राम प्रधान और अन्य प्रभावशाली जाटों के दबाव में शव को गाँव के पास के कब्रिस्तान में दफ़नवा दिया गया था | आज मेहेरुदीन का परिवार कहता है की उनकी मृत्यु बीमारी के कारण हुई थी | परिवार अब शिविर छोड़कर कांधला शहर में रह रहा है | पर इसी गाँव के तीन लोग इस पूरी घटना के साक्षी थे और उनका वर्णन एफ़.आई.आर. में भी है | उनको जान की धमकियां भी आने लगी हैं | इनके बयान वीडियो पर रिकॉर्ड किये गए हैं और एफ़.आई.आर. के साथ जमा किये गए हैं | पुलिस अधिकारियों को एक अलग पत्र लिखकर शव का पोस्ट-मोर्टेम करने के लिए अनुरोध भी किया गया है, पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं की गयी है | विधि के अनुसार पुलिस को चाहिए था की वह वारदात के मौके पर एक पंचनामा बनाती और परिवार के अनुसार बताये गए मृत्यु के कारण को उसमें दर्ज करती | पर इस मामले कोई पंचनामा बनाया ही नहीं गया है | एफ़.आई.आर. दर्ज़ कराने के बाद भी पोस्ट-मोर्टेम के लिए शव को खोद कर निकला नहीं गया है|

एक अन्य मामले में भी पुलिस की दुष्टता सामने आती है | आमिर खान (पुत्र रैसुद्दीन) जो की अन्छाढ़ गाँव, थाना बिनौली, बाघपत ज़िले के निवासी थे, 8 सितम्बर को अपने माता, पिता, बीवी, और छोटे भाई के साथ अपना गाँव छोड़कर शेखपुरा में अपने रिश्तेदार के घर चले गए थे | 12 सितम्बर को परिवार से सलाह करके आमिर अपने गाँव वापस यह देखने के लिए गये कि हालात सामान्य हुए हैं या नहीं | जब आमिर देर शाम तक वापस नहीं लौटे, तब उनके माता, पिता और बीवी ने गाँव जाकर देखने का फैसला किया | 6 बजे के आस पास जब वे अपने घर पहुंचे तब उन्होंने आमिर के शव को छत से लटका हुआ पाया | उनकी चीखें सुनकर लोग इकठ्ठा हो गए और ग्राम प्रधान को बुलवाया गया | दो ग्राम निवासियों, संजीव और उसके पिता जगबीरा ने आमिर के परिवार को गाली देना शुरु कर दिया और आमिर द्वारा उधार लिए हुए 80,000 रूपए लौटाने को कहने लगे | ग्राम प्रधान समरपाल ने आमिर का शव दफ़नवा दिया और घोषित कर दिया कि किसी के भी पूछने पर यही कहा जाए कि आमिर की मृत्यु बीमारी से हुई थी | जाट परिवारों द्वारा पुलिस को बुलवाया गया और यही बताया गया | आमिर के परिवार द्वारा लगातार पोस्ट-मोर्टेम किये जाने के अनुरोध को नज़रंदाज़ कर दिया गया और उनसे जबरन अंगूठे के निशान ले लिए गए | इन तीन लोगों को फिर अपने ही घर में, उधार चुकाने के एवज में संजीव, जगबीरा और समरपाल द्वारा, बंधक बना कर रखा गया | जब 30 सितम्बर को उन्होंने अपने रिश्तेदारों की मदद से रूपए लौटाए तब उन्हें छोड़ा गया | इसके बाद परिवार जॉला गाँव के शिविर में चला गया, जो की बुद्धाना थाना, ज़िला मुज़फ्फरनगर में पड़ता है | परिवार ने फिर से पुलिस को पोस्ट-मोर्टेम करवाने के लिए कहा है पर अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है |
डी. मंजीत और आसीश गुप्ता, सचिव, PUDR, संपर्क - 9868471143, 9873315447

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