रफी
साहब की थी तमन्ना, गांव में 3-4 शो करवा दो, गांव शहर बन जाएगा
फीको अपने गांव कोटला सुल्तान सिंह के लिए बहुत कुछ करना चाहता था, किसी ने नहीं दिखाई दिलचस्पी
जन्मदिन, 24 दिसंबर, 1924
मृत्यु, 31 जुलाई, 1980
आज रफी साहब का 91वां जन्मदिवस है। अमृतसर जिले के गांव कोटला सुल्तान सिंह में रफी अपने गांव के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन किसी ने कभी कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई। दूसरी बेड़ियां शादी ने ऐसी डाली कि दोबारा गांव का रूख नहीं कर सके सुर सम्राट मोहम्मद रफी। मोहम्मद रफी को गांव में फीको कहकर पुकारा जाता था। फीको बहुत शरारती था। गांव के एलीमेंट्री स्कूल से उन्होंने प्राइमरी तक की पढ़ाई की। रफी साहब पढ़-लिखने में ठीक-ठीक ही थे। कई बार स्कूल में काम नहीं करने या शरारतें करने के कारण उन्हें डांट भी पड़ती थी। जब पढ़ाई समाप्त हो गई, तो वह तीन-चार महीने ऐसे ही बिना काम के घूमा करते थे। वह बाग में फल खाते और खेत से गन्ने तोड़कर चूसते था। फीको के पिता अली मोहम्मद खाना बनाने में माहिर थे। उनमें इतनी कला था कि एक ही देग (बड़ा बर्तन) में सात रंग के चावल पका देते थे। फीको के गले में मां सरस्वती का वास था। यूं कहें तो आवाज उनकी गुलाम थी तो गलत नहीं होगा। एक बार वे कबड्डी खेल रहे थे तो उन्होंने गीदड़ की आवाज से सभी को डरा दिया था।
याद आए तो पेड़ पर नाम पढ़ लेना
समय का पासा पलटा और फीको मोहम्मद रफी के काम से दुनिया में मशहूर हो गया। वह गांव के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे। रफी के बचपन के आड़ी कुंदन सिंह (अब कुंदन सिंह हमारे बीच नहीं रहे) ने बताया था कि 1953 में जब वह अमृतसर के एलेग्जेंड्रा ग्राउंड में शो करने के लिए आए तो वे भी अपने साथियों के साथ उन्हें मिलने के लिए गए। उसकी दिनचर्या इतनी व्यस्त थी कि तीसरे दिन एक सरदारजी ने उनकी मुलाकात करवाई। सरदार जी ने रफी से कहा कि तुहाडे पिंड तों कुज बंदे मिलन आए ने। रफी ने देखा तो झट दोस्त को गले से लगा लिया और बोले कि तुम गांववाले मिलकर मेरे 3-4 शो गांव में ही करवा दो। गांव के पास इतना पैसा हो जाएगा कि हमारा गांव, गांव नहीं शहर बन जाएगा। लेकिन उस समय के सरपंच ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। रिस्पांस नहीं मिलने की सूरत में रफी वहां से लुधियाना अगले शो के लिए चले गए। रफी ने गांव की पंचायत को मुंबई घूमने का न्यौता भी दिया था। फीको और कुंदन सिंह चौथी तक एक साथ पढ़े थे। 1937 में गांव छोड़ते वक्त फीको ने एक आम के पेड़ पर अपना नाम लिखते हुए दोस्त से कहा था कि जब भी मेरी याद आए तो यहां पर आकर मेरा नाम पढ़ लेना। अब वह पेड़ भी काटा जा चुका है।
लाके दंदा च मेखां मौज बंजारा ले गया
रफी साहब ने मुंबई में अपनी दूसरी शादी बिलकिस से रचाई। उसके बाद रफी को गांव की ओर रुख करने की फुर्सत ही न मिली। साल 1972 में रफी का एक शो हुआ था। जिसमें लोगों ने रफी को उनकी पसंद का गीत गाने को कहा तो उन्होंने पंजाबी गीत, लाके दंदा च मेखां मौज बंजारा ले गया, गाकर सभी का दिल लूट लिया था।
फीको अपने गांव कोटला सुल्तान सिंह के लिए बहुत कुछ करना चाहता था, किसी ने नहीं दिखाई दिलचस्पी
जन्मदिन, 24 दिसंबर, 1924
मृत्यु, 31 जुलाई, 1980
आज रफी साहब का 91वां जन्मदिवस है। अमृतसर जिले के गांव कोटला सुल्तान सिंह में रफी अपने गांव के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन किसी ने कभी कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई। दूसरी बेड़ियां शादी ने ऐसी डाली कि दोबारा गांव का रूख नहीं कर सके सुर सम्राट मोहम्मद रफी। मोहम्मद रफी को गांव में फीको कहकर पुकारा जाता था। फीको बहुत शरारती था। गांव के एलीमेंट्री स्कूल से उन्होंने प्राइमरी तक की पढ़ाई की। रफी साहब पढ़-लिखने में ठीक-ठीक ही थे। कई बार स्कूल में काम नहीं करने या शरारतें करने के कारण उन्हें डांट भी पड़ती थी। जब पढ़ाई समाप्त हो गई, तो वह तीन-चार महीने ऐसे ही बिना काम के घूमा करते थे। वह बाग में फल खाते और खेत से गन्ने तोड़कर चूसते था। फीको के पिता अली मोहम्मद खाना बनाने में माहिर थे। उनमें इतनी कला था कि एक ही देग (बड़ा बर्तन) में सात रंग के चावल पका देते थे। फीको के गले में मां सरस्वती का वास था। यूं कहें तो आवाज उनकी गुलाम थी तो गलत नहीं होगा। एक बार वे कबड्डी खेल रहे थे तो उन्होंने गीदड़ की आवाज से सभी को डरा दिया था।
याद आए तो पेड़ पर नाम पढ़ लेना
समय का पासा पलटा और फीको मोहम्मद रफी के काम से दुनिया में मशहूर हो गया। वह गांव के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे। रफी के बचपन के आड़ी कुंदन सिंह (अब कुंदन सिंह हमारे बीच नहीं रहे) ने बताया था कि 1953 में जब वह अमृतसर के एलेग्जेंड्रा ग्राउंड में शो करने के लिए आए तो वे भी अपने साथियों के साथ उन्हें मिलने के लिए गए। उसकी दिनचर्या इतनी व्यस्त थी कि तीसरे दिन एक सरदारजी ने उनकी मुलाकात करवाई। सरदार जी ने रफी से कहा कि तुहाडे पिंड तों कुज बंदे मिलन आए ने। रफी ने देखा तो झट दोस्त को गले से लगा लिया और बोले कि तुम गांववाले मिलकर मेरे 3-4 शो गांव में ही करवा दो। गांव के पास इतना पैसा हो जाएगा कि हमारा गांव, गांव नहीं शहर बन जाएगा। लेकिन उस समय के सरपंच ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। रिस्पांस नहीं मिलने की सूरत में रफी वहां से लुधियाना अगले शो के लिए चले गए। रफी ने गांव की पंचायत को मुंबई घूमने का न्यौता भी दिया था। फीको और कुंदन सिंह चौथी तक एक साथ पढ़े थे। 1937 में गांव छोड़ते वक्त फीको ने एक आम के पेड़ पर अपना नाम लिखते हुए दोस्त से कहा था कि जब भी मेरी याद आए तो यहां पर आकर मेरा नाम पढ़ लेना। अब वह पेड़ भी काटा जा चुका है।
लाके दंदा च मेखां मौज बंजारा ले गया
रफी साहब ने मुंबई में अपनी दूसरी शादी बिलकिस से रचाई। उसके बाद रफी को गांव की ओर रुख करने की फुर्सत ही न मिली। साल 1972 में रफी का एक शो हुआ था। जिसमें लोगों ने रफी को उनकी पसंद का गीत गाने को कहा तो उन्होंने पंजाबी गीत, लाके दंदा च मेखां मौज बंजारा ले गया, गाकर सभी का दिल लूट लिया था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
thanx 4 yr view. keep reading chandanswapnil.blogspot.com