उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर, शामली, बाघपत, मेरठ, और सहारनपुर जिलों के ग्रामीण इलाकों में सितम्बर के पहले हफ़्ते में हुए दंगों के बाद से हज़ारों मुसलमान चार महीने से राहत शिविरों में रह रहे हैं | पिछले हफ़्ते से, उत्तर प्रदेश सरकार ने जबरन शिविर बंद करने और लोगों को वहाँ से निकालने की नीति अपना ली है| परिणामस्वरूप दंगा-पीड़ित लोग और भी ज़्यादा परेशान और असुरक्षित हो गए हैं |
पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) की तरफ से एकपांच सदस्यीय जांच दल 28 से 30 दिसंबर 2013 के बीच राहत शिविरों का दौरा करने गया | उद्देश्य था कि शिविरों में रह रहे लोगों के हालत और उन्हें हो रही परेशानियों का जायजा लेना | टीम ने 8 शिविरों का दौरा किया और 60 से भी ज्यादा गाँवों के लोगों से बातचीत की | शामली ज़िले में टीम ने मलकपुर, बर्नावी, कांधला, और मदरसा (शामली शहर) शिविरों का दौरा किया | मुज़फ्फरनगर ज़िले में टीम ने लोई, शाहपुर, जोगिया-खेडा और जॉला शिविरों का दौरा किया | इसके साथ, टीम ने 5 अन्य शिविरों के लोगों से मुलाक़ात की | कुल मिलाकर पीयूडीआर. ने 13 शिविरों के लोगों से बातचीत की| टीम ने शामली के ज़िला अधिकारी, मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त ज़िला अधिकारी, फुगाना थाना के थाना अधिकारी, लोई और जोगिया खेडा गाँव के प्रधान, सवास्थ्य-कर्मियों, शिक्षकों, पत्रकारों, धार्मिक संगठनों के सदस्यों, शिविर समितियों के सदस्यों, और अन्य गैर-सरकारी संस्थाओं से जुड़े राहत कर्मियों से बातचीत की |
जबरन राहत शिविरों से दंगा-पीड़ितों का निकाला जाना
दुर्भाग्य से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले की सुनवाई और मीडिया द्वारा पीड़ितों के हालातों के बारे में लगातार ख़बरें दिए जाने का उल्टा असर हुआ है | प्रशासन अब शिविरों को बंद करने पर तुल गया है और लोगों को हटाने के लिए अब तरह-तरह के तरीके अपनाए जा रहे हैं | जैसे कि पीड़ितों के खिलाफ़ सरकारी ज़मीन पर अनधिकृत रूप से रहने के लिए मामला दर्ज़ कराना, राहत शिविर समितियों पर दबाव डालना, बड़े पैमाने पर लोगों को डराने के लिए पुलिस और अफसरों की मौजूदगी और दंगा पीड़ितों कि बड़ी बस्तियों को तोड़ना |
29 और 30 दिसंबर को लोई शिविर में रह रहे खरड गाँव के सौ से भी ज़्यादा परिवारों को किसी सरकारी बैरक में अस्थायी रूप से स्थानांतरित किया जा रहा था | उन्हें यह कहकर हटाया जा रहा था, की ऐसा उन्हें ठण्ड से बचाने और बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए किया जा रहा है | इन्हें अभी तक पुनर्वास मुआवज़ा नहीं मिला है |
यह स्पष्ट है की दंगों के बाद लोग अपने गाँव वापस जाने के ख्याल से ही असुरक्षित महसूस कर रहे हैं | उन मामलों में यह असुरक्षा और भी ज्यादा है जिन में हमलावरों के खिलाफ केस तक दर्ज़ नहीं किया गया है और हमलावर उन्हें धमकाते हुए खुले घूम रहे हैं | इसके बावजूद अन्य गावों के परिवारों को शिविर छोड़कर अपने-अपने गाँव जाने के लिए कहा जा रहा था |
सरकारी एजेंसियों द्वारा राहत मुहैय्या कराने में उदासीनता
हमारी टीम ने पाया की एक भी राहत शिविर ऐसा नहीं था जिसे सरकार ने शुरू किया हो या जिसका प्रबंधन सरकार द्वारा किया जा रहा हो | ज़्यादातर राहत शिविर मुसलमान-बाहुल्य गाँवों के पास पाए गए, जहां पीड़ित लोग दंगों के दौरान भागकर आये थे | हर शिविर में हमें प्रशासन की ओर से राहत सामग्री और सुविधाएं मुहैय्या कराने में उदासीनता के बारे में बताया गया | शिविर शुरू होने के 2 हफ्ते बाद से ही प्रशासन द्वारा राहत सामग्री उपलब्ध कराई जानी शुरू की गयी | 1 अक्टूबर के बाद प्रशासन ने शिविरों में खाद्य सामग्री भेजनी भी बंद कर दी गई, जॉला और जोगिया खेडा शिविरों में भी हमें ऐसा बताया गया | शीत लहर के निकट आने और 21 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रशासन को राहत सामग्री दोबारा मुहैय्या कराने के आदेश के बाद भी गरम कपड़े या कम्बल उपलब्ध नहीं करवाए गए |
दिसंबर में जब प्रार्थियों ने, शिविरों में हुई 39 मौतों के बारे में सबका ध्यान केन्द्रित किया, तब जाकर प्रशासन ने 5 शिविरों में प्रत्येक परिवार के लिए दवाइयाँ और 200मी.ली. दूध बांटना शुरू किया |
शिविरों में बहुत सारे विद्यालय जाने वाले छात्र भी हैं | हालांकि कुछ जगहों पर प्राथमिक विद्यालयों की सुविधाएं उपलब्ध करवाई गईं हैं पर बड़ी कक्षाओं के बच्चों की पढ़ाई रुक गई है | पास के विद्यालयों में दाखिला देने से मना किया जा रहा है | सबसे बुरा प्रभाव तो छात्राओं पर हुआ है | और जिन बच्चों की पिछले साल बोर्ड की परीक्षा थी वे तो इम्तिहान देने का मौका खो ही चुके हैं | इन बच्चों ने न सिर्फ अपना एक साल गवाया है, बल्कि अब इनकी आगे की पढ़ाई बंद हो जाने की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं |स्वास्थ्य सुविधायें न के बराबर हैं | ज़्यादातर शिविरों में थोड़ी-बहुत दवाइयां ही बांटी जा रही हैं | शामली के ज़िला अधिकारी ने इस बात पर खेद भी जताया और इसका दोष खुद के ज़िले में उदासीन स्वास्थ्य सेवाओं पर मढ़ दिया | कई महिलाओं ने शिविरों में ही बच्चों को जन्म दिया है और कई गर्भावस्था के आखिरी पढ़ाव पर हैं | एक अच्छे स्त्रीरोग विशेषज्ञ की सुविधायें पूरे ज़िले में कहीं उपलब्ध नहीं हैं, शिविरों में तो दूर की बात है | इन महिलाओं को पौष्टिक खाना उपलब्ध करवाने का प्रयास भी नहीं किया गया है | फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक समिति का गठन किया गया है जो शिविरों में हुई 34 बच्चों की मृत्यु के कारणों कि जांच कर रही है.
दिसंबर में राज्य सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायलय में दर्ज़ कराये गए एक शपथ-पत्र में कहा गया है की सितम्बर महीने में 58 शिविर चल रहे थे | शपथ-पत्र के अनुसार यह आंकड़ा घटकर दिसंबर में 5 हो गया था (4 शामली में और 1 मुज़फ्फरनगर में ) | हमारी टीम द्वारा यह कथन बिलकुल असत्य पाया गया | शिविर-वासियों ने बताया की 25 गाँवों में राहत शिविर चल रहे हैं | इनमें से कुछ गाँवों में एक से अधिक शिविर भी हैं | हमारी टीम द्वारा 13 ऐसी जगहों का दौरा स्वयं किया गया और अभी भी शिविर चल रहे हैं | कई पीड़ित लोगों को ठण्ड के कारण पास के घरों में शरण दिलाई जा चुकी है | इसलिए जितने लोग हमें शिविरों में दिखे, वे ज़ाहिर तौर पर असल में शिविरों में रह रहे लोंगों से कम ही थे |
30 दिसंबर को लोई शिविर में टीम की मुलाक़ात मुज़फ्फरनगर के अतिरिक्त ज़िला अधिकारी से हुई | उन्होंने जो बताया उससे सबसे ज़्यादा अचम्भित हुए | उनका कहना था कि शाहपुर गाँव में कोई शिविर नहीं चल रहा | ठीक एक घंटे के बाद टीम ने शाहपुर में 3 क्रियाशील शिविर देखे |
सरकारी सूची से इतने सारे शिविरों का छूट जाना प्रशासन के बेरुखे व्यवहार को दर्शाता है | परिणामस्वरूप हज़ारों पीड़ित लोग राहत के लिए निजी संस्थाओं पर निर्भर हैं | यह खुले तौर पर जनता को गुमराह करने का प्रयास है |
दंगा प्रभावित लोगों के गुमराह करने वाले आंकडे
राहत शिविरों में जिला प्रशासन द्वारा स्वयं निरीक्षण न किए जाने का एक परिणाम यह हुआ है कि दंगा-पीड़ितों की संख्या का कोई एक निष्पक्ष आंकड़ा नहीं है | 4अक्टूबर 2013 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित हार्मनी कमिटी द्वारा अपनी रिपोर्ट में कुल आतंरिक तौर पर विस्थापित लोगों की संख्या 33,696 बताई गई है | इनमें लगभग 74% लोग मुज़फ्फरनगर के शिविरों में रह रहे थे, 22% कैराना, 3.3 % शामली और 0.7 % बागपत के शिविरों में | दिसंबर तक सर्वोच्च न्यायलय में जमा किये गए सरकारी शपथ-पत्र में शिविरों में रह रहे कुल पीड़ितों की संख्या 5,024घोषित की गई |
इस आंकड़े की असत्यता राहत शिविरों पर उपलब्ध शिविर-वासियों के रिकॉर्ड से साफ़ साबित हो जाती है | राहत सामग्री के आबंटन के दौरान, प्रत्येक शिविर में राहत समिति द्वारा बनाए गए पीड़ितों के रिकॉर्ड, एकमात्र सबसे सटीक रिकॉर्ड हैं | सिटीजन फार जस्टिस एंड पीस बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (याचिका क्र. 170 वर्ष 2013) के मामले में प्रार्थियों द्वारा दर्ज़ कराये गए अतिरिक्त शपथ-पत्र के अनुसार 6 दिसंबर तक राहत शिविरों में 27,882 लोग रह रहे थे | हमारी टीम द्वारा 13 शिविरों के दौरे के बाद विस्थापित लोगों का जो अनुमानित आंकड़ा निकाला गया है, वह लगभग इस आंकड़े से मेल खाता है |
'दंगा-पीड़ित' गाँवों और लोगों कि श्रेणी में डाले जाने में खामियां
राहत समितियों द्वारा हमें बताया गया की 162 गाँव के परिवारों ने अपना घर छोड़कर शिविरों में शरण ली है | स्वयं हमने 60 गाँवों के लोगों से बातचीत की | हालांकि सरकारी तौर पर सिर्फ 9 गाँव ही दंगा-ग्रस्त करार दिए गए | इसलिए सिर्फ 9 ही गाँवों के लोगों को सरकारी पुनर्वास पैकेज का फायदा मिल सकता है |
सबसे अधिक हत्याएं होने के आधार पर जो 9 गाँव दंगा-ग्रस्त घोषित किये गए हैं, उनके नाम हैं - लाक, लिसाड़, बहावड़ी, कुटबा, कुटबी, मोहम्मदपुर रायसिंह, काकरा,फुगाना, और मुंडभर | सरकारी पैकेज के अनुसार इन 9 गाँवों से लगभग 1800परिवारों को दंगा-ग्रस्त चिन्हित किया गया है | ये सभी सरकारी पैकेज के तहत एक मुश्त राशि 5,00,000 रूपए प्राप्त करने के हक़दार हैं |
पर इन 9 गाँवों के लोगों के अलावा भी कई ऐसे लोग हैं जो अपने घर लौटने की स्थिति में नहीं है | उन्होंने अपने हिन्दू पड़ोसियों द्वारा धमकियों और बेइज्ज़ति का सामना किया है | सशस्त्र दंगाइयों द्वारा उनके घरों में तोड़-फोड़ और औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया गया है | जब वे पुलिस के साथ अपने घर वापस गए तो उनके घरलूटे जा चुके थे | और कुछ मामलों में जहां परिवार के लोग दंगों के दौरान भाग कर नहीं आ सके थे, वे अब तक (तीन महीने बाद भी) लापता हैं |
ये गाँव और यहाँ के मुसलमानों को दंगा-ग्रस्त नहीं माना जा रहा है और इसलिए वे पुनर्वास के हक़दार नहीं हैं | इनमें से कई लोगों ने, जिनसे हमारी टीम ने बात के दौरान बताया कि वे 7 या 8 सितम्बर की रात को घर से खाली हाथ, सिर्फ दो कपड़ों में भागकर आये थे |
संदिग्ध पुनर्वास पैकेज और उसकी शर्तें
राज्य सरकार का हर परिवार के लिए 5 लाख रुपयों के एक मुश्त पुनर्वास पैकेज में बहुत समस्याएँ हैं | यह पैकेज न तो गाँव में घर के आकर पर आधारित है और न ही घर में बसे परिवारों की संख्या पर | इसलिए 9 चिन्हित गावों में से भी, शिविर में रह रहे हर परिवार को 5 लाख रूपए नहीं मिल पाए हैं | जहां एक ही घर में एक से ज़्यादा परिवार रह रहे थे, वहाँ यह परेशानी सबसे ज्यादा देखने को मिली | इन परिवारों में, सिर्फ परिवार के मुखिया को ही रूपए दिए गए और सयुंक्त परिवार के बाकी छोटे परिवारों को नहीं दिए गए |
इसके अलावा, पुनर्वास की शर्तों के अनुसार अगर लाभार्थी कभी भी अपने घर वापस जाते हैं, तो उन्हें यह 5 लाख रूपए लौटाने पड़ेंगे | पीड़ितों के पास मौजूदा स्थिति में, जहां वे खुले आसमान के नीचे टेंटों में रह रहे हैं और घर वापस लौटने की उम्मीद बहुत कम है, पुनर्वास स्वीकार करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है | इसके बाद एक बार अगर उनसे यह रुपये खर्च हो जाते हैं, तो मजदूरी करने वाले ये परिवार कभी इन रुपयों को लौटा नहीं पाएंगे | इस प्रकार सरकारी नीति यह सुनिश्चित करती है की पीड़ित व्यक्ति कभी अपने घर लौट ही न पाएं | ऐसे में यह पुनर्वास पैकेज वास्तव में एक ऐसा क्षतिपूरक पैकेज है जो हर तरह से लोगों को हुई उनकी क्षति की भरपाई करने में नाकामयाब साबित होता है |
दूसरी तरफ, सरकार ने पीड़ितों के घरों और सामुदायिक संपत्ति जैसे मस्जिद, ईदगाह, मदरसे, कब्रिस्तान आदि की सुरक्षा के लिए कोई ज़िक्र नहीं किया है | ये संपत्तियां समय के साथ उन्हीं लोगों के हाथों में पड़ जाएंगी जो मुसलामानों के खिलाफ हिंसा करने के लिए ज़िम्मेदार हैं | इससे भविष्य में साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने के लिए एक अच्छे आर्थिक फायदे के रूप में भी देखा जा सकता है |
आखिर में, इस पूरी प्रक्रिया में जो बात बिलकुल छिप जाती है वह है राज्य कीअभियोज्यता | मुख्य रूप से, क्योंकि राज्य पीड़ितों को साम्प्रदायिक हिंसा से बचा नहीं पाया, क्योंकि अपराधी आज भी आज़ाद घूम रहे हैं, और क्योंकि पीड़ितों को अच्छी सुरक्षा नहीं मिल पा रही है, इसीलिए आज पीड़ित अपनी जिंदगियों में वापस लौटने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं | ऐसे में यह पुनर्वास पैकेज और कुछ नहीं बस राज्य की असफलता को छिपाने के लिए एक चाल नज़र आती है |
हत्या, बलात्कार, आगजनी, और लूट के मामलों में पुलिस की बेहद ढीली पड़ताल
फैक्ट-फाइंडिंग टीम को ज्ञात हुआ की पुलिस जान-बूझकर सबूत मिटाने और पड़ताल को विलंबित करने का प्रयास कर रही है | इस तरह से, सी आर पी सी के सेक्शन167(2) में पड़ताल के लिए निर्धारित अधिकतम अवधि (90 दिन) निकलती जा रही है | और जघन्य अपराधों के दोषी बेल पर छूट रहे हैं | सिटीजन फार जस्टिस एंड पीस बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (याचिका क्र. 170 वर्ष 2013) के मामले में प्रार्थियों द्वारा दर्ज़ कराये गए अतिरिक्त शपथ-पत्र के अनुसार कम से कम 5 ऐसे दोषियों को बेल मिल भी चुकी है और अब इनको बिना कोर्ट वॉरेंट के गिरफ्तार करना असम्भव है | निम्नलिखित कम से दो ऐसे मामलों में पुलिस की संदिग्ध भूमिका स्पष्ट होती है |
डूंगर गाँव के मेहेरुदीन (पुत्र रफीक) का मामला ऐसा ही है | डूंगर गाँव मुज़फ्फरनगर ज़िले के फुगाना थाने में पड़ता है | मेहरुदीन का शव 8 सितम्बर को, निर्वस्त्र अवस्था में उन्हीं के गाँव के पवन जाट के घर में गले से लटका हुआ पाया गया था | ग्राम प्रधान और अन्य प्रभावशाली जाटों के दबाव में शव को गाँव के पास के कब्रिस्तान में दफ़नवा दिया गया था | आज मेहेरुदीन का परिवार कहता है की उनकी मृत्यु बीमारी के कारण हुई थी | परिवार अब शिविर छोड़कर कांधला शहर में रह रहा है | पर इसी गाँव के तीन लोग इस पूरी घटना के साक्षी थे और उनका वर्णन एफ़.आई.आर. में भी है | उनको जान की धमकियां भी आने लगी हैं | इनके बयान वीडियो पर रिकॉर्ड किये गए हैं और एफ़.आई.आर. के साथ जमा किये गए हैं | पुलिस अधिकारियों को एक अलग पत्र लिखकर शव का पोस्ट-मोर्टेम करने के लिए अनुरोध भी किया गया है, पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं की गयी है | विधि के अनुसार पुलिस को चाहिए था की वह वारदात के मौके पर एक पंचनामा बनाती और परिवार के अनुसार बताये गए मृत्यु के कारण को उसमें दर्ज करती | पर इस मामले कोई पंचनामा बनाया ही नहीं गया है | एफ़.आई.आर. दर्ज़ कराने के बाद भी पोस्ट-मोर्टेम के लिए शव को खोद कर निकला नहीं गया है|
एक अन्य मामले में भी पुलिस की दुष्टता सामने आती है | आमिर खान (पुत्र रैसुद्दीन) जो की अन्छाढ़ गाँव, थाना बिनौली, बाघपत ज़िले के निवासी थे, 8 सितम्बर को अपने माता, पिता, बीवी, और छोटे भाई के साथ अपना गाँव छोड़कर शेखपुरा में अपने रिश्तेदार के घर चले गए थे | 12 सितम्बर को परिवार से सलाह करके आमिर अपने गाँव वापस यह देखने के लिए गये कि हालात सामान्य हुए हैं या नहीं | जब आमिर देर शाम तक वापस नहीं लौटे, तब उनके माता, पिता और बीवी ने गाँव जाकर देखने का फैसला किया | 6 बजे के आस पास जब वे अपने घर पहुंचे तब उन्होंने आमिर के शव को छत से लटका हुआ पाया | उनकी चीखें सुनकर लोग इकठ्ठा हो गए और ग्राम प्रधान को बुलवाया गया | दो ग्राम निवासियों, संजीव और उसके पिता जगबीरा ने आमिर के परिवार को गाली देना शुरु कर दिया और आमिर द्वारा उधार लिए हुए 80,000 रूपए लौटाने को कहने लगे | ग्राम प्रधान समरपाल ने आमिर का शव दफ़नवा दिया और घोषित कर दिया कि किसी के भी पूछने पर यही कहा जाए कि आमिर की मृत्यु बीमारी से हुई थी | जाट परिवारों द्वारा पुलिस को बुलवाया गया और यही बताया गया | आमिर के परिवार द्वारा लगातार पोस्ट-मोर्टेम किये जाने के अनुरोध को नज़रंदाज़ कर दिया गया और उनसे जबरन अंगूठे के निशान ले लिए गए | इन तीन लोगों को फिर अपने ही घर में, उधार चुकाने के एवज में संजीव, जगबीरा और समरपाल द्वारा, बंधक बना कर रखा गया | जब 30 सितम्बर को उन्होंने अपने रिश्तेदारों की मदद से रूपए लौटाए तब उन्हें छोड़ा गया | इसके बाद परिवार जॉला गाँव के शिविर में चला गया, जो की बुद्धाना थाना, ज़िला मुज़फ्फरनगर में पड़ता है | परिवार ने फिर से पुलिस को पोस्ट-मोर्टेम करवाने के लिए कहा है पर अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है |
डी. मंजीत और आसीश गुप्ता, सचिव, PUDR, संपर्क - 9868471143, 9873315447
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