सोमवार, अप्रैल 25, 2011

कोरियर के जरिए पहुंचती है नशे की खेप

पंजाब में हैरोइन की नाममात्र खपत, बार्डर से पहुंचती है दिल्ली-मुंबई

भारत-पाक सीमा गांव गज़ल से
शाम के छह बजने को हैं, चारों ओर धुंध पसर चुकी है। मैं डिफेंस ड्रेन के ऊपर खड़ा हूं। मेरे दाएं और बाएं ओर गांव के अधकच्चे मकान हैं। मेरे सामाने यहां से महज आधा किलोमीटर दूर सीमा पर लगी फैंसिंग नजर आ रही है। अभी कुछ लोग एक वृद्धा का दाह-संस्कार का लौटे हैं, जो बेहतर इलाज के इंतजार में दम तोड़ चुकी है। यह वही गांव है, यहां १६ जनवरी की मध्य रात्रि को सुरक्षा बलों ने पांच पैकेट हैरोइन के बरामद किए थे। फायरिंग में धुंध का फायदा उठाकर दो तस्कर वापस पाकिस्तान भागने में सफल रहे थे।
मैंने गांववासियों से यह जानने की कोशिश की कि आखिर तस्कर कैसे इतनी ऊंची बाढ़ को पार कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि इसी गांव के कुछ लोग खेती करने उस पार आते-जाते रहते हैं। सीमा के उस पार पाकिस्तानी गांव लगते हैं। पाक के गांववासी भारतीयों को लालच देकर फंास लेते हैं, इसी के चलते वह कोरियर बनकर नशे की खेप को इस पार पहुंचाते हैं। अधेड़ दिखने वाले गुरदीप ने बताया कि बाहरी क्षेत्र के लोग मिलीभगत कर नशे की खेप भारत में पहुंचा देते है। लेकिन कई बार वह लोग सुरक्षा बलों को देखकर नशे की खेप को पास में लगते खेतों में फेंक कर फरार हो जाते है। ऐसी हरकत में कई बार बीएसएफ व पुलिस खेत मालिक को ही दोषी बनाकर पेश कर देती है, जोकि सरासर गलत है।
ऐसे होता है खेप पहुंचाने का खेल
गांव के ही एक तस्कर ने बताया कि हेरोइन और स्मैक आदि की खेप पहुंचाने के पहले भारतीय युवक (तस्कर) पाकिस्तानी सिम से फोन कर उधर बैठे तस्करों से संपर्क कर लेते हंै। उसी बातचीत के जरिए खेप पहुंचाने का समय तय होता है। फैंसिंग के पार खेतों की देखभाल करने गए भारतीय किसान को  पाकिस्तानी पैसे का लोभ दिखाकर उसे वहां का सिम दे देत हैं। दरअसल वह सिम उन्हें किसी और ने नहीं बल्कि पाकिस्तान में बैठे तस्करों ने उपलब्ध कराया होता है। खेती से लौटते समय वे लोग सिम इस तरह से छुपा लेते हैं, जो चैकिंग के दौरान पकड़ में नहीं आते। कई बार तो इनकी सैटिंग इतनी जबर्दस्त होती है कि उधर से इनके  खेत में ही निर्धारित स्थान पर सिम रखा हुआ मिलता है। सिम मोबाइल में डालते ही एक्टीवेट हो जाता है। और यही पाकिस्तानी सिम तस्करी को अंजाम तक पहुंचाने के लिए इनके संपर्क का जरिया बनता है। इसके बाद तय दिन और स्थान पर माल पहुंचाने की बात हो जाती है। यह सब सेटिंग हो जाने के बाद वे लोग (भारतीय तस्कर) बिना नंबर और मडगार्ड वाली मोटरसाइकिल का इस्तेमाल करते हैं। जाते समय वे लोग इस बाइक को डिफेंस ड्रेन में छुपा देते हंै। खेप पहुंचाने के लिए तस्कर रात का वक्त ही मुनासिब समझते हैं। भारतीय तस्कर सर्च लाइट को धता बताते हुए, जिस वक्त नशे की खेप सीमा पार से इस ओर फेंकी जाती है, तब इधर मौजूद भारतीय तस्कर अंधेरे का फायदा उठाते हुए अपनी बाइक स्टार्ट करता है और माल को सबंधित थाना क्रास करवा देता है। इसके एवज में उसे कोरियर के तौर पर एक बार खेप पहुंचाने के पचास हजार से एक लाख रुपए तक अदा किए जाते हैं। तस्कर ने बताया कि पाकिस्तान से अपने आका से मिले निर्देश के मुताबिक संबंधित थाने को क्रास करते ही आगे एक और व्यक्ति कोरियर के रूप में उसका इंतजार कर रहा होता है। वह सारी खेप उसे थमाकर और उधर से संबंधित कोरियर वाला उसकी पेमैंट अदा कर देता है। अब यह दूसरे कोरियर की जिम्मेदारी होती है कि वह कार या किसी अन्य वाहन में ऐसी जगह नशे की खेप को छुपाए, जो चैकिंग में पकड़ में न आए। संबंधित दूसरा कोरियर को उक्त माल सुरक्षित दिल्ली या मुंबई तय स्थान पर पहुंचाना होता है। इस तरह से यह सारी नशे की खेप पंजाब से निकलते हुए दिल्ली और मुंबई जा पहुंचती है।
फैक्ट : ७० फीसदी नशे का शिकार
जहां तक तरनतारन जिले में नशाखोरी का सवाल है, तो देखने में यह आया है कि यहां पर अधिकतर लोग स्मैक, देसी शराब, कैप्सूल, इंजैक्शन जैसे सस्ते नशे
के आदि है। इनमें से बहुत कम लोग हैं, जो हैरोइन जैसा महंगा नशा करते हंै।

इन्हें चाहिए जिंदगी की संजीवनी


चंदन स्वप्निल
किस्सा : व्यापारी जो रिक्शा चलाने लगा
जालंधर के एक व्यापारी ने बताया उनका कारोबार कोलकाता के बड़े बाजार तक फैला हुआ है। उनका छोटा भाई था। कुछ समय के लिए वह नई दिल्ली पढ़ाई करने गया था। वहां पता नहीं हॉस्टल में कैसी संगत उसे मिली कि वह स्मैक जैसे खतरनाक नशे का आदि हो गया। जब हमें पता चला तो वह घर में ही छुप-छुपकर पीने लगा। हमने उसे नशामुक्ति केंद्र में भर्ती कराया, जब वो थोड़ा ठीक होकर आ गया तो उसकी शादी कर दी। शादी के कुछ दिन सही गुजरे, लेकिन फिर उसने वही क्रम अपना लिया। उसकी इस लत से तंग आकर उसकी पत्नी तलाक देकर चली गई।  वह अपने नशे की पूर्ति के लिए घर में ही चोरी करने लगा। जब हमने उसका ध्यान रखना शुरू किया, तो वह घर से ही भाग गया। दो साल पहले पता चला कि वह दिल्ली में रिक्शा चला रहा था, तब हम उसे वहां से पकडक़र लाए और नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कराया। लेकिन यहां पर भी वह ज्यादा दिन तक नहीं टिका और फिर से भाग खड़ा हुआ और अभी तक उसका कुछ पता नहीं चला है। उसकी वजह से शहर में हमारी बदनामी अलग से हुई।
 फोटो---अस्पताल


नशामुक्ति केंद्र जालंधर जिले का एकमात्र नशा छुड़ाओ केंद्र है। जल्द ही जिले का दूसरा सरकारी नशामुक्ति केंद्र गांव कैरों में खुलने जा रहा है। कुछ साल पहले तक पुलिस ने युवकों में बढ़ती नशे की लत को देखते हुए जिले में पांच प्राइवेट नशामुक्ति केंद्र खोले थे, लेकिन वे केंद्र लोगों के लिए लूट का केंद्र बन गए थे। जिसके चलते एक-एक कर वे बंद होते चले गए। हुआ यंू कि जिले में तत्कालीन एसएसपी नरेंद्र भार्गव ने पांच प्राइवेट नशामुक्ति केंद्र खोले थे। ये केंद्र किसी का भी नशा छुड़ाने में विफल रहे थे, बल्कि इन केंद्रों ने लोगों से मरीजों को ठीक करने के लिए मनमाने पैसे वसूलने शुरू कर दिए थे। इससे लोगों का इनसे मोहभंग हो गया, नतीजतन ये बंद हो गए।
तरनतारन नशामुक्ति केंद्र में इस वक्त कुल सात मरीज भर्ती हैं। मैं जब यहां पहुंचा तो स्टाफ नर्स ने मुझसे पूछा कि क्या नया मरीज है? क्या स्मैक पीते हो? मेरे यह बताने पर कि मैं दैनिक भास्कर से हूं और यहां पर नशामुक्ति केंद्र का जायजा लेने आया हूं। इतना सुनते ही वो खिलखिला कर हंसते हुए बोलीं, माफ करना, दरअसल यहां पर केवल नशा पीडि़त ही आते हैं। नर्स परमिंद्र ने बताया कि इस केंद्र में अधिकतर मरीज भिखीविंड, झब्बाल, पट्टी और खेमकरण से आते हैं। यहां पर कुल १० बेड हैं। किसी भी मरीज को दस दिन के लिए भर्ती किया जाता है, जिसके एवज में दो हजार रुपये फीस ली जाती है। ट्रीटमेंट के दौरान मरीज को दवा के साथ काउंसिलिंग भी की जाती है। दस दिन के बाद मरीज का फालोअप  किया जाता है। यहां पर अपना इलाज करा रहे नवे वरियां गांव के गुरदेव, भगूपुर गांव के जरनैल सिंह, हरिंदरपाल सिंह, बोहडू गांव के चरणजीत सिंह, सरहाली के बलविंदर सिंह ने बताया कि उन्हें कुछ बेहतर महसूस हो रहा है। इसके अलावा वे धीरे-धीरे नशे की गिरफ्त बाहर निकलने का प्रयास कर रहे हैं।
इस तरह बनाते हैं शिकार
बार्डर क्षेत्र में अधिकतर युवा स्मैक, कैप्सूल, इंजैक्शन जैसे नशे के आदि हो चुके हैं। नशे का धंधा करने वाले पहले इन बेरोजगार युवकों को अपनी महफिल में शामिल कर फ्री में पुडिय़ा सप्लाई करते हैं। जब उन्हें लगने लगता है कि अब ये लोग इसके आदि हो चुके होते हैं, तो वे उस युवक से सुविधानुसार सौ से दौ सौ रुपये प्रति पुडिय़ा वसूलना शुरू कर देते हैं। देखने को यह मिला कि इन गांवों में एक नशेड़ी कम से दिन में तीन बार तो पुडिय़ा या इंजैक्शन लेता है। पुलिस और एनजीओज का सर्वे मानें तो करीब ७० फीसदी परिवार नशे की चपेट में हैं। इनमें से अधिकतर ने एकदूसरे की संगत में रहकर नशा करना सीखा। कैप्सूल का नशा मुख्य रूप से वे लोग करते हैं, जब उनके लिए स्मैक जैसे महंगे नशे को खरीद पाना संभव नहीं हो पाता है।
नशा पीडि़तों की दास्तां
झब्बाल के सोनू ने बताया कि उसने स्मैक, कैप्सूल, बूट पॉलिश, आयोडैक्स से लेकर हर तरह का नशा किया। उसके नशे की लत के कारण उसकी पारिवारिक स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती चली गई। आठ साल पहले उसकी शादी हुई थी, जिससे उसके दो बेटियां भी हैं। उसकी नशे की लत इतनी बढ़ गई कि वह घर के बर्तन तक बेचकर आने लगा। हारकर उसकी पत्नी और मां उसे तरनतारन के नशामुक्ति केंद्र लेकर आई। वहां पर लगभग एक साल लगातार इलाज करवाया। बीच-बीच में वह फिर से अपने दोस्तों की संगत में नशा शुरू कर देता। हारकर घरवालों ने उसे बांधकर रखना शुरू कर दिया और साथ में डाक्टर के कहे अनुसार रोजाना दवाई देते रहे। इस तरह अब उसने दो साल से नशे से तौबा कर रखी है। अब वह खेतीबाड़ी के जरिए अपनी दोनों बेटियों का भविष्य संवारना चाहता है। वह कहता है कि अगर आपको कोई फ्री में भी स्मैक की पुडिय़ा दे तो उसे न लें, क्योंकि पहले वो आपको फ्री में पिलाएंगे बाद में लत पड़ जाने पर उसके लिए मनमानी कीमत वसूलेंगे।
तौबा..तौबा...
बादल सैणी (परिवर्तित नाम) बुरी संगत में पडक़र मैं नशे का आदि हो गया था। पहले मैं घरवालों से छुपकर पीता था, लेकिन जब घरवालों को पता चल गया तो मैं खुलआम नशा करने लगा। इसके चलते मेरी आए दिन घरवालों से लड़ाई हो जाती थी। एक दिन मेरे घरवालों ने मुझे जबर्दस्ती नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती करा दिया। उस वक्त तरनतारन जिले में प्राइवेट नशामुक्ति केंद्र हुआ करते थे, जोकि मरीज को ठीक करने के एवज में भारी कीमत वसूलते थे। मुझे एक दिन नशे की तलब जगी और मैं वहां से भाग निकला। काफी दिन मैं इधर-उधर भटकता रहा, एक दिन मेरे घरवालों ने मुझे ढूंढ निकाला और कमरे में ले जाकर विस्तर के साथ संगल लगाकर बांध दिया। फिर मुझे वे लोग सिविल अस्पताल के नशामुक्ति केंद्र ले गए, वहां पर काफी लंबा इलाज चला और अब मैंने पिछले १० महीने से नशे को हाथ भी नहीं लगाया है। अब मैं बीएड की तैयारी में जुट गया हूं। मेरी तमन्ना स्कूल टीचर बनकर आज की पीढ़ी को नशे के खिलाफ जागरूक करना है।
लोगों के पैसे लेकर भाग गया
भिखीविंड के इंद्रजीत (परिवर्तित नाम) की दास्तां बड़ी दर्दनाक है। इंद्रजीत की मां गुरशरण कौर की आंखें लगभग भर आती हैं, जब वो अपने एकमात्र बेटे को याद करती हैं। वह बताती हैं कि करीब चार साल पहले इंद्र ने दिल्ली की एक लडक़ी से लव मैरिज की थी। शादी के कुछ दिन तक बड़ा ठीकठाक चलता रहा, इंद्र अपने कम्प्यूटर सेंटर पर बैठा करता था। यहीं पर उसकी दोस्ती कुछ बुरी संगत वालों से हो गई। बकौल गुरशरण हमें यह पता ही नहीं चला कि कब उनका बेटा नशे की चपेट में आ गया। वो कई दफा बिन बताए घर से गायब रहने लगा। एक दिन वह कई चला गया। हमने सोचा कि फिर लौट आएगा, सात-आठ दिन बीतने के बाद एक व्यक्ति हमारे घर आया और कहने लगा कि इंद्रजीत ने उससे दो लाख रुपये उधार लिए थे, कह रहा था कि कि कुछ कप्यूटर पाट्र्स खरीदने है। इसके बाद गुरशरण ने कई जगह तलाशा लेकिन उसका कहीं कोई पता नहीं चला। दरअसल इंद्रजीत कई लोगों से इसी तरह से पैसे लेकर नशे में उड़ा चुका है, जिन लोगों ने उसे पैसे दिए थे, वे बार-बार मुझसे तकादा करने आते हैं। मुझे नहीं पता मेरा बेटा कहां और किस हालत में है। उसकी पत्नी भी अपने मायके वापस चली गई है।
कई बार छोड़ा नशे को
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गांव धरमकोट सिंह के ३६ वर्षीय सतपाल सिंह ने बताया कि वह पिछले आठ दिन से तरनतारन के नशामुक्ति केंद्र में जाकर अपनी दवा ले रहा है। वह दिन में तीन बार इंजैक्शन लगाने का आदि है। ये इंजैक्शन पहले उसे दस रुपये में उपलब्ध था, जो अब ४० रुपये में मिलता है। गांव की मित्र मंडली की संगत में ही उसने स्मैक लेनी शुरू की थी, जब स्मैक खरीदने की उसकी हैसियत नहीं रही तो उसने इंजैक्शन लगाने शुरू कर लिए। उसकी दो बेटियां हैं, जो दूसरी और पांचवीं कक्षा में पढ़ती हैं। गत पांच साल में उसने नशे की लत में लाखों रुपये फूंक डाले। इसके चलते उसकी अक्सर घर में लड़ाई होती रहती है। इससे उसे बड़ी आत्मग्लानि महसूस हुई और उसने किसी से नशामुक्ति केंद्र के बारे में सुन रखा था। वहां जाकर वह दवाई लेने लगा, इसका असर यह होने लगा कि वह दो-चार महीने के लिए नशे से तौबा कर लेता था, लेकिन स्थायी तौर पर कभी इसको सलाम नहीं कर पाया। पत्नी कंवलजिंद्र कौर कहती है कि वह अपने पति को काफी समझाती है कि आप कोई काम भी नहीं करते हो। बुढ़ापे में पिता ही खेतीबाड़ी करके घर चला रहे हैं। वह अपने पति को नशे की जद से बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहित करती है। इसके चलते वह कई बार उस पर पाबंदी भी लगा देती है। उसे उम्मीद है कि इस ट्रीटमेंट से वह ठीक हो जाएगा। सतपाल कहता है कि इस अंचल में नशे की जड़ सभी मंत्री और नेता हैं। नेताओं ने अपना तस्करी का कारोबार बढ़ाने के लिए सभी ठेके बंद करा दिए। वे धड़ल्ले से अफीम का कारोबार बढ़ा रहे हैं। नए-नए में नशा छोडऩा आसान है, लेकिन जब अधिक अभ्यस्त हो जाते हैं तो फिर इसे छोडऩा बढ़ा मुश्किल होता है।
पहले फ्री पिलाकर बनाते हैं शिकार
पंजाबी में एक कहावत है खेती खसमा सेती, खेती के ऊपर पति है और यह भी मेहनत मांगती है। और हमारे युवाओं ने अपने ख्वाब बड़े लंबे-चौड़े पाल लिए हैं, उसे पूरा करने के लिए मेहनत करने की हिम्मत उनमें नहीं बची है। यह कहना है बार्डर क्षेत्र में नशे के खिलाफ लोगों को जागरूक करने में जुटी सरहदी लोक सेवा समिति के प्रदेश महामंत्री राजीव नेब का। राजीव बताते हैं कि बेरोजगार मेहनत कर नहीं सकते और नशा ही करना उन्हें आसान दिखता है। कुछ जमीदारों का जब कारोबार अच्छा चल निकला, तो गांव में अपनी शान दिखाने के लिए देसी से अंग्रेजी शराब पीनी शुरू कर दी और इतनी पीने लगे कि उसकी ज़द में समा गए। नशा बढऩे की जड़ शौक में एक दूसरे को पिलाने से शुरू होती है। नशे की टोली के भी अपने उसूल हैं, जो टोली आज नशा करने बैठती है, वह अगले दिन की बैठकी की जगह तय करके ही उठती है। राजीव बताते हैं कि पहले नशे की खेप अफगानिस्तान से पाकिस्तान समुद्री राह के जरिए भारत पहुंचती थी, लेकिन वहां पर सख्ती अधिक होने के चलते अब यह खेप पंजाब सीमा से पहुंचती है। सुरक्षा एजेंसियों और जनता में अविश्वास घर कर गया है। इस तस्करी के लिए दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराते हैं। हम यह भूल गए हैं कि हम इसके खिलाफ संघर्ष करना चाहते हैं या बदलना। ऐसे रोंके : केंद्र सरकार का विकास के लिए काफी धन आता है, जो बिना खर्चे वापस चला जाता है। दरअसल हमारे नेता खुद इसमें लिप्त हैं, तो कैसे यह काम रुक सकता है।
फैक्ट : शिकार
हैरोइन ३ फीसदी
स्मैक  २७ फीसदी
इंजैक्शन, कैप्सूल ६० फीसदी

रसोई गैस चाहिए, पर अब भी दिल्ली दूर है

सिलेंडर के लिए ५० किलोमीटर का फासला
पहाड़ी और सीमावर्ती इलाकों में गैस दूर की बात

गुरदासपुर सीमा से
आजादी के छह दशक कहने को विकास के लिए एक लंबा पड़ाव। लेकिन गुरदासपुर के सीमावर्ती गांवों में बेशक विकास के कुछ छींटे यहां पर पड़े हैं, लेकिन मूलभूत समस्याएं जस की तस कायम हैं। एजेंसी से रसोई गैस का सिलेंडर मिलना, जैसे इनके लिए अब भी सपना है। पूरे गुरदासपुर जिले में २५ गैस एजेंसिया हैं, जिसमें ३,२१,९७५ कनेक्शन धारक हैं।
जयंतीपुर से डलहौजी की सीमा तक 150 किलोमीटर के दायरे में फैले गुरदासपुर जिले के एक तिहाई हिस्से में अब भी गैस एजेंसियां नहीं खुली हैं। यहां के लोगों को ब्लैक में ६०० से ७०० रुपये में सिलेंडर खरीदना पड़ता है। खासकर सीमा से सटे इलाके उज्ज दरिया पार, ढींडा, खोजकीचक्क, बमियाल, नरोटजैमल सिंह, सरोक, सलांच आदि गांववासियों को करीब ५० किलोमीटर दूर जाकर एजेंसी से सिलेंडर लाना पड़ता है। कुलविंदर सैनी के मुताबिक इसकी वजह इन इलाकों में गैस एजेंसी का नहीं होना है। यही नहीं इन्हें चूल्हा जलाने के लिए कोयला और लकड़ी के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ती है। अकसर चुनावों के दौरान नेता वोट पाने की खातिर उनलोगों से गैस एजेंसी खुलवाने का वादा कर जाते हैं।
सीमा पर स्थित डेरा बाबा नानक धार्मिक नजरिए से काफी महत्वपूर्ण कसबा है। हैरत की बात यह है कि यहां पर भी कोई गैस एजेंसी नहीं है। लोगों को कलानौर या गुरदासपुर जाना पड़ता है। सीमांत इलाका घरोटा में भी कोई गैस एजेंसी नहीं है। यहां के लोग दीनानगर(दूरी 22 किलोमीटर) या गुरदासपुर गैस लेने जाते हैं। कसबा दुनेरा पठानकोट से 40 किलोमीटर दूर है। पहाड़ी इलाका होने के चलते लोगों को पठानकोट तक यह दूरी तय करने में करीब दो घंट लग जाते हैं। इस इलाके में होम डिलीवरी भी एजेंसियों के लिए काफी टेढ़ी खीर है।
नियमानुसार ५० किलोमीटर के दायरे में दूसरी गैस एजेंसी खोलने के लिए इलाकाई
सांसद को लोकसभा में यह मामला उठाना होता है। इसके बाद केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय संबंधित कंपनी को एजेंसी खोलने की प्रक्रिया शुरू करती है। हैरत की बात यह है कि पूर्व सांसद विनोद खन्ना और मौजूदा सांसद प्रताप सिंह बाजवा ने भी कभी यह सवाल लोकसभा में नहीं उठाया। यहां के निवासियों का कहना है कि सांसद ने कभी उनकी इस समस्या को समझने का प्रयास ही नहीं किया। जाहिर है कि रसोई गैस के लिए अभी दिल्ली दूर ही है।

सूचना क्रांति तो दूर रही अखबार भी नहीं पहुंचता



भारत-पाक सीमांत गांवों से

खुशहाल कहे जाने वाले पंजाब राज्य के सीमावर्ती गांवों में ऐसे हजारों लोग जिनकी सुबह कभी अखबार से शुरू ही नहीं हुई। देश में सूचना क्रांति की धूम है और यह क्रांति अखबार के रूप में सीमावर्ती गांवों में अभी तक पहुंच नहीं सकी है। इन गांवों में शिक्षा का प्रसार काफी कम होने के कारण ज्यादातर लोगों की अखबार पढऩे में भी दिलचस्पी नहीं है। अगर इन गांवों के कुछ लोग अखबार पढऩे में दिलचस्पी रखते भी हैं, तो हॉकर इसमें कोई रुचि नहीं दिखाता। क्योंकि चंद अखबार भेजने के लिए सीमावर्ती गांवों में जाना उनके लिए काफी मुश्किल है।
फिरोजपुर का सीमावर्ती गांव टेंडीवाला की आबादी करीब २०00 है। यहां किसी के घर अखबार नहीं आता। गांव के 35 वर्षीय जगीर सिंह कहते हैं कि उनकी हम उम्र वालों ने तो गांव में अखबार लाने की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, लेकिन अब अपने बच्चों के लिए अखबार लगाने की जरूर सोच रहे हैं, ताकि उनके बच्चे सूचना का अभाव में न रह सकें। उन्हें सरकार की नीतियों और समाज में आ रहे बदलावों के बारे में अवगत होना बहुत जरूरी है। वह बताते हैं कि उनके गांव तक हाकर नहीं आता है। इसलिए वे लोग सोच रहे हैं कि सुबह उनके घरों से दूध ले जाने वाले दोधियो पर यह कंडीशन लगाएं कि अगर उन्हें गांव से दूध चाहिए तो गांव के लिए अपने साथ अखबार जरूर लेकर आएं।
तरनतारन जिले के सीमांत वासियों ने दोधियों को ही अखबार लाने की जिम्मेदारी दे रखी है। टेंडीवाला के साथ लगते गांव कालूवाल में भी अखबार नहीं आता है।
गुरदासपुर के सीमावर्ती गांवों की भी यही स्थिति है। ४०० आबादी वाले गांव सलांच के लोगों की सुबह भी अखबार के साथ शुरू नहीं होती। गांव में दो-तीन युवक ही दसवीं पास हैं और उन्हें अखबार की जरूरत महसूस नहीं होती। गांव चौंतरा में सिर्फ सरपंच के घर ही अखबार आता है। इसकी वजह उनका बीए पास होना है। सलांच के 45 वर्षीय तारा सिंह बताते हैं कि गांव में मनोरंजन के लिए कई लोगों ने टीवी खरीद रखे हैं, लेकिन आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण वह टीवी भी नहीं ले सका है। उसके बच्चे उसके भाई के घर टीवी देखने जाते हैं। हालांकि कई बार उसका दिल भी टीवी देखने को करता है, लेकिन भाई की बहुओं के कारण वह वहां टीवी देखने भी नहीं जा पाता। ऐसे कई परिवार हैं,  जिनका पास टीवी भी नहीं है।
सीमावर्ती गांवों के लोगों की सीमित मोबिलिटी होने के कारण यहां के ज्यादातर लोगों को सीधे तौर पर दूसरे जिलों में आ रहे बदलाव के बारे जानकारी नहीं मिल पाती है। गांवों के कई लोग डीटीएच सेवा जरिए बाहर की दुनिया से जुड़े हुए हैं। इसी से मनोरंजन और जानकारी हासिल करते हैं।

चार माह का राशन जमा करना मजबूरी उनकी


गुरदासपुर उज्ज दरिया से

उज्ज दरिया के उस पार २० हजार की आबादी वाले करीब १५ गांव पड़ते हैं। यहां के लोगों की मांग थी कि दरिया पर एक पुल का निर्माण किया जाए, क्योंकि बारिश के दिनों में इस इलाके के सभी गांव करीब चार महीने के लिए हर तरह के संपर्क से कट जाते हैं। इसे देखते हुए अब यहां पर पुल निर्माण का काम शुरू हुआ है। इस इलाके में गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वाले लोगों की संख्या अधिक है। रोजगार की समस्या तो उनके सामने है। वहीं मूलभूत समस्या भी कम नहीं है। उज्ज दरिया के वासियों को सेहत समस्या से लेकर आम परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है। यहां पर अधिकतर घरों में अब भी लकड़ी वाला चूल्हा ही जलता है। लोगों को यहांरसोई गैस सिलेंडर ६०० से ७०० रुपए ब्लैक में मिलता है।  पुल बनने के बाद अमृतसर से जम्मू जाने वालों के लिए दूरी कम हो जाएगी। यही नहीं अमरनाथ यात्रा के दौरान ट्रैफिक कंजेशन हो जाने पर उसे इस ओर से निकाला जा सकेगा।
ढिंडा गांव के सरपंच कुलदीप सिंह अपना दर्द कुछ इस तरह जाहिर करते हैं कि उज्ज दरिया पर पुल बनना तो शुरू हो चुका है, अब देखना यह है कि यह कब तक बनकर तैयार होता है। फिलहाल अस्थायी पुल से ही काम चलाना पड़ रहा है, लेकिन बारिश के दिनों में यह पुल भी हटा लिया जाता है। बारिश आएगी और रावी नदी अपना कहर फिर बरपाएगी। हर बार की तरह इस दफा भी उन्हें करीब चार महीने का राशन पहले ही भंडार करके रखना पड़ेगा। यहां जिंदगी की गुजर- बसर बेहद मुश्किल है। इन गांवों में कोई डाक्टर भी मौजूद नहीं है। जिले से संपंर्क टूटने पर इलाज के लिए भी कोई विकल्प नहीं रह जाता। इस समय दौरान वे किसी कामकाज  से भी नहीं जा सकते हैं।
वह कहते हैं कि बमियाल के उज्ज दरिया के इस पार १५ गांव पड़ते हैं। सरकारी मदद नाममात्र ही मिलती है। किसानों के पास रोजगार मिल जाए तो ठीक हैं, नहीं तो मजदूरी के लिए भी बमियाल के पार जाना पड़ता है। इधर गांववासी छोटे-मोटे काम जैसे लोहार, बढ़ईगिरी का काम करके गुजर बसर करते हैं। इस इलाके में एकमात्र कठुआ वाली ही लोकल बस आती है या फिर कोई ऑटोरिक्शा वाला भूल भटके इधर आ जाता है, तो उन्हें आने-जाने में आसानी हो जाती है। हां, यह पुल बन जाने का उन्हें बड़ा फायदा मिलेगा। कम से कम वे रोजगार के लिए बाहर जा सकेंगे साथ ही राशन जमा करने से निजात मिल जाएगी।
गांव धनवाल की श्रेष्ठा देवी ने बताया कि अगर कोई दरिया के तेज बहाव को किश्ती से पार करने की कोशिश करता है, तो उसे सांप के डंसने की आशंका बनी रहती है। उनके इलाके में कई मौतें हो चुकी हैं। कुछ महीने पहले ही एक महिला इस तेज बहाव में बह गई थी और उसकी लाश  पाकिस्तान पहुंच गई थी। उज्ज दरिया पर पिछले साल से करीब दस करोड़ रुपए की लागत से स्थायी पुल बनना शुरू हो चुका है। यह पुल इस साल में पूरा होने की उम्मीद है। इस पुल के बनने से सालों से रावी का कहर झेल रहे लोगों को काफी राहत मिलेगी।
ये हैं गांव
धनवाल, दोस्तपुर, सरोश, मलोहत्र, कोट भट्टियां, खोजकी चक्क, खोजकी चक्क छोटा, ढिंडा, सिंबल, सकोल, कोटली जवाहर, पलाह छोटा, पलाह बड़ा, कलोत्र आदि मुख्य गांव हैं।

रोजगार के नहीं है साधन


कोई तकनीकी योजना नहीं होने से यहां पर रोजगार का साधन ही नहीं पनप सका है। मजदूरी है इनकी रोजी-रोटी की आस।
गांवों में नहीं पहुंची बीपीएल स्कीम : सरपंचों ने बताया कि उनके गांवों को बीपीएल के लिए लाभपात्र में शामिल ही नहीं किया गया।
१९७५ में मैंने बीए पास की थी। दरअसल देखा जाए तो सीमा पर बहुत ज्यादा दिक्कतें नहीं हैं। हमने अपनी ख्वाहिशों का दायरा बढ़ा लिया है। अब घरवालों को मोबाइल, वाशिंग मशीन, बाइक सबकुछ चाहिए। लेकिन इन सबके लिए यहां पर पैसा जुटाना काफी मुश्किल है। हमारे लिए यहां पर सिवाय खेतीबाड़ी के आय का और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। युद्ध की आशंका के बादल सदा मंडराते रहते हैं, यही वजह है कि इधर सडक़ें भी कच्ची हैं।
सरपंच निशान सिंह, गांव चौंतरा, गुरदासपुर

इस गांव में सरकार को चाहिए कि वह पक्के मकान बनाकर दे। छप्पड़ भी विवाद की जड़ हैं, उसे निपटाया जाए। कारगिल युद्ध के दौरान यह गांव उजड़ गए थे, जो फिर दोबारा बसाए गए हैं। अभी तक गांव में ५० शौचालय बनाए गए हैं। वल्र्ड बैंक का प्रोजेक्ट मिला है, गांव में पानी की टंकी लगवाने के लिए। लेकिन गांव की पंचायत के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपनी हिस्सेदारी इसमें दे सके। गांव से केवल १३ हजार रुपए जमा हुए हैं और १२ हजार जुट नहीं पा रहे हैं, ऐसे में यह प्रोजेक्ट भी इस गांव के हाथ से फिसल जाएगा।
सरपंच लखबीर कौर, थेह कलां
गृहिणी तरविंदर कौर कहती है कि महंगाई ने उनकी कमर तोडक़र रख दी है। सस्ता राशन कहीं भी नहीं मिलता है। ऐसे में वे दाल का स्वाद भूल ही गए हैं। गांव डलीरी में सबकी रसोई मजदूरी पर ही चलती है।
बारिश में तबाह होती है फसल
गट्टी राजोके और इसके साथ लगते सभी गांव दरिया की जमीन पर बसे हैं। अधिकतर लोगों ने गिरदवारी करवा रखी है। बारिश के दिनों में दरिया उफान पर होता है और इसके साथ लगती सारी फसल तबाह हो जाती है। इन गांवों में लोगों को नित्य क्रिया भी खेतों में जाकर निपटानी पड़ती है, यहां पर कोई भी शौचालय सरकार ने नहीं बनवाया है।



गलती सर्वशिक्षा अभियान की, भुगतते बच्चे :


गांव टेंडीवाला के प्राइमरी स्कूल में टीचर बच्चों को पढ़ाता है कि जन गन मन..हमारा राष्ट्रगान है, लेकिन इसे राष्ट्रगीत भी कहा जाता है। जब टीचर को बताया कि वह बच्चों को गलत जानकारी दे रहे हैं, तो वे सर्वशिक्षा अभियान की ओर से प्रकाशित किताब का हवाला देते हुए दिखाते हैं कि इसमें जो लिखा गया है, हम वही पढ़ा रहे हैं। अब इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां पर शिक्षा का कैसा स्तर है और जो बच्चे यहां से पढ़ लिखकर निकलेंगे, उनका ज्ञान भी कैसा होगा।

एक तस्वीर यह भी : खुशहाल जमींदार
यहां का किसान काफी खुशहाल दिखता है। हरित क्रांति का भरपूर फायदा मिला है। जमींदार मोटरसाइकिल पर सवार होकर आता है। इस क्षेत्र में दो तरह के किसान हैं, पहला सुस्त दूसरा चुस्त। सुस्त किसान गेहूं जैसी फसल लगाकर अराम फरमाता है। इसमें कोई तीन से चार बार पानी लगाना पड़ता है। दूसरा किसान अपने खेत में तीन प्यालियां बनाकर तीन तरह की सब्जियां उगाता है।
 जमींदार तरसेम सिंह मोटरसाइकिल पर सवार होकर आता है। अपने साथ चाय बनाने के लिए लाया दूध नीम के पेड़ के नीचे रखता है। दोपहर की रोटी वह पेड़ की एक डाल के साथ बांधकर टांग देता है। बिजली की तार पर कुंडी डालकर मोटर को चालू करता है। हुसैनीवाला बार्डर के गांवों पर जिधर नजर पड़ती थी, उधर लहलहाती फसल नजर आती थी।
इस क्षेत्र में दो तरह के किसान हैं, पहला सुस्त दूसरा चुस्त। सुस्त किसान गेहूं जैसी फसल लगाकर अराम फरमाता है। इसमें कोई तीन से चार बार पानी लगाना पड़ता है। दूसरा किसान अपने खेत में तीन प्यालियां बनाकर तीन तरह की सब्जियां उगाता है। इसके लिए तरसेम जैसे किसानों को खूब मेहनत करनी पड़ती है। वह सुबह ही आकर जहां खेत में जुट जाता है, फिर शाम ढलते ही जैसे ही बीएसएफ की सीटी बजती है, अपना काम खत्म कर घर के लिए रुखसत हो जाता है। महीने भर में उसकी फसल तैयार हो जाएगी और उसका अपनी लागत से तिगुना फायदा मिल जाएगा। अभी उसने बैंगनी, खीरा बीज रखा है और कुछ दिनों बाद उसके यहां खीरा इतना पैदा हो जाएगा कि उसे रोज २५ मजदूर लगाकर इसे तोडक़र मंडी में बेचने जाना पड़ेगा।

उस पार खेती, बर्बाद कर जाते हैं पाकिस्तानी सूअर : कई किसानों की खेती फेंसिंग के उस पार है। जब बीएसएफ गेट खोलती है, तो वे उस पार जाते हैं। उनकी फसल को कई बार उस पार सूअर नष्ट कर जाते हैं।

मंगलवार, मार्च 01, 2011

गुमनाम




ये मीटिंग, ये स्टोरीज, ये वेल्यू एडिशन की दुनिया
ये इंसां के दुश्मन, कवार्क-पेजमेकर की दुनिया
ये डेडलाइन के भूखे एडिटर्स की दुनिया
ये पेज अगर बन भी जाए तो क्या है


यहां एक खिलौना है सब एडिटर की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा रिपोटर्रो की बस्ती
यहां पर तो रेजेज से इंफ्लेशन ही सस्ती
ये अपरेजल अगर हो भी जाए तो क्या है

हर एक कंप्यूटर है घायल, हर एक न्यूज बासी
डिजाइनर्स में उलझन, फोटोजर्नलिस्ट में उदासी
ये आफिस है या प्रापर्टी मैनेजमेंट की
सर्कुलेशन अगर बढ़ भी जाए तो क्या है

जला दो जला दो, फूंक डालो ये मॉनिटर
मेरे नाम का बस हटा दो ये आईएमएस यूजर
तुम्हारा है तुम भी संभालो ये कंप्यूटर
ये पेपर अगर चल भी जाए तो क्या है

ये चैनल का ड्रामा छिछोरी सी मस्ती
यहां मौत बिकती जिंदगी फिर भी सस्ती
नए चैनल पर बासी से चेहरे, उदासी से गहरे
कोई चैनल अगर चल भी जाए तो क्या है



यहां खाकी बदनाम :- नशा तस्करों से मोटी रकम वसूलने वाले सहायक थानेदार और सिपाही नामजद, दोनों फरार

यहां खाकी बदनाम :- नशा तस्करों से मोटी रकम वसूलने वाले सहायक थानेदार और सिपाही नामजद, दोनों फरार एसटीएफ की कार्रवाई में आरोपियों से...