बुधवार, मई 09, 2012

बैरिस्टर से महात्मा बना दिया इस अफ्रीकी जेल ने


अभिजित मिश्रत्न सेल नंबर-4, कांस्टीट्यूशन हिल्स (जोहांसबर्ग)।

नीचे उतरती सीढिय़ों की छत पर लिखा है - जब तक आप जेल में न रहे हों, आप उस देश की सही तस्वीर नहीं जान सकते।
दो कदम नीचे उतरता हूं। संदेश का अगला हिस्सा - किसी देश की पहचान इससे नहीं होती कि वह अपने विशिष्ट नागरिकों के साथ कैसा सलूक करता है, बल्कि देखना यह चाहिए कि वह निचले पायदान पर खड़े व्यक्तियों से कैसा बर्ताव करता है।
सीढिय़ां खत्म होने को हैं। संदेश की अंतिम लाइन - और दक्षिण अफ्रीका ने अपने अफ्रीकी नागरिकों के साथ ऐसा सलूक किया, जैसे वे जानवर हों। संदेश के अंत में 
लेखक का नाम दर्ज है- नेल्सन मंडेला।
जोहांसबर्ग की ब्रामफोटेंन पहाड़ी पर बने ओल्र्ड फोर्ट प्रिजन कांघ्लेक्स की जिन सीढिय़ों का जिक्र हो रहा है वो सीधे सेल नंबर - 4 को जाती हैं, जहां एक बैरिस्टर के महात्मा बनने की कहानी खाली बैरकों में आज भी गूंज रही है। आज यह किला कांस्टीट्यूशनल हिल्स कोर्ट कांघ्लेक्स में तब्दील हो चुका है, लेकिन इसके काफी बड़े हिस्से को बतौर विरासत पुराने स्वरूप में कायम रखा गया है। यह हिस्सा सेल नंबर 4-5, वीमेंस सेल व अवेटिंग ट्रायल बिल्ंिडग को समेटे हुए है। धडक़ते दिल से चार नंबर सेल में प्रवेश करता हूं, जिसके दरवाजे पर अब किसी ने लिख दिया है - लाइफ इन ए सेल। कमरे की फर्श पर रोल किए हुए कुछ बिस्तर ऐसे पड़े हैं, मानो कैदी लेटे हुए हैं। एक कोने में एक फुट की आड़ में शौचालय है। इस सेल के ठीक सामने वाली कोठरी में अब पुराने कैदियों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगा दी गई हैं। एक सवाल के साथ - हू इज द क्रिमिनल। एक तस्वीर हमारे बापू की भी है। कसूर भी दर्ज है - अश्वेत लोगों के साथ भेदभाव करने वाले कानून के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन का नेतृत्व! बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को यहां 1908 से 1913 के बीच किस्तों में सात महीने दस दिन की सजा काटनी पड़ी।
भेदभाव की इंतहा घ् 1902 से 1904 के दौरान खास तौर पर अश्वेत कैदियों के लिए बनाए गए सेल नंबर 4-5 में बापू ने जो देखा-जो झेला, उसका अंदाजा इतिहास में दर्ज हो चुके कैदियों के बयानों से लगाया जा सकता है। 907 कैदियों की क्षमता वाले सेल नंबर 4-5 में 2200 से 'यादा कैदी ठूंस दिए गए थे। जिन कोठरियों में अधिकतम 30 कैदियों को रखा जाना था, वहां 60 कैदियों को दिन के 23 घंटे बिताने पड़ते थे। गोरे कैदियों को एक दीवान, एक मैट्रेस, एक पिलो, तीन कंबल, चार चादरें, दो पिलो कवर व एक बिछौना दिया जाता था। वहीं अश्वेतों को सिर्फ दो चटाई व तीन फटे-पुराने कंबलों से संतोष करना पड़ता था। इतना ही नहीं, खाने में भी जमीन आसमान का अंतर रखा जाता था। अश्वेत कैदियों को मांस के नाम पर सड़ी-गली उबली मछलियां दी जाती थीं, जिसकी बदबू उल्टियां करने पर मजबूर कर देती थी। खाना इतनी देर में मिलता था कि आंतें कटने लगती थीं और फिर वह बदबूदार खाना भी नियामत जैसा लगता था। ये खाना भी टीन की निहायत गंदी जूठन लगी घ्लेटों में परोसा जाता था। इंसानों के साथ जानवरों जैसे सलूक के ऐसे कई किस्से दीवारों पर चस्पा हैं।
दिन-रात जुल्म घ् रंगभेद चरम पर था। पुलिस दिन व रात में कई बार अश्वेत कैदियों के पास पहुंचती थी। उन्हें पूछताछ के बहाने पीटा जाता था। फिंगर प्रिंट लिए जाते थे। गर्मी हो या जाड़ा, नंगा करके तलाशी ली जाती थी। यहां तक कि जेल वार्डन उन्हें घुटनों के बल झुका कर सुनिश्चित करते थे कि कहीं उन्होंने गुदा में कुछ छिपा तो नहीं रखा है। कुछ युवा कैदियों के यौन उत्पीडऩ के किस्से भी यहां दर्ज हैंं। विरोध करने वाले कैदियों को काल कोठरी (डीप डार्क होल) में महीने भर के लिए फेंक दिया जाता था। खाने के नाम पर सिर्फ उबले चावल का पानी। इन सेल में रोशनी व हवा का कोई इंतजाम नहीं होता था। जेल अफसर कालकोठरी का इस्तेमाल कैदी का मनोबल तोडक़र उन्हें नए कानून के सामने झुकने पर मजबूर करने के लिए करते थे। लेकिन, सलाम उस ज'बे को। ये काल कोठरियां कैदियों के जुनून को परवान चढ़ाने लगीं। कैदी यहां विरोध के नारे और गीत गाने लगे। चलते-चलते जेल की दीवारों को सहलाता हूं। अजीब का रोमांच होता है। आखिर कुछ तो रहा होगा इन पत्थरों में जिन्होंने एक दुबले-पतले साधारण से इंसान में फौलाद भर दिया। बाहर आने के बाद भी जैसे कानों में बापू के शब्द गूंज रहे हैं - ...मैं इसका जवाब जरूर दूंगा। मैं अपना संदेश अपने लोगों तक हर हाल में पहुंचाउंगा। उत्पीडऩ का यह दंश मेरे बहुंत भीतर तक उतर गया है। यह बाहर नहीं निकलेगा। अब जो रास्ता मुझे दिखाई दे रहा है, मुझे उस रास्ते से कोई डिगा नहीं सकता...। जेल के बाहर हवा नम है, लेकिन आजादी के इन परवानों की स्मृति में जल रही आग की तपिश बरकरार।

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