यह कैसी सियासत है, जो लोकतंत्र की हत्या करने वाले को बचाने में जुटे हैं। आतंकवाद के दौर में जब पंजाब में सभी बड़े नेता या तो डर के भाग गए थे या फिर उनके समर्थक हो उठे थे, उस वक्त बेअंत सिंह ही एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने पंजाब में अकेले कांग्रेस की डोर थामे रखी। पंजाब में अगर आतंकवाद का काला दौर खत्म हो सका तो इसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ बेअंत सिंह को ही जाता है। यह उन्हीं की हिम्मत और दृढ़ता थी कि पंजाब में दोबारा अमन और चैन की बहाली संभव हो सकी। बेशक आतंकवाद करने के लिए पंजाब को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। इस अमन-चैन की एक बड़ी कीमत खुद बेअंत सिंह को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। ऐसे में अमन के इस पेरोकार के हत्यारों को लेकर जो सियासत खेली जा रही है, (जिसमें कि उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी भी शामिल है) कहीं न कहीं उन दहशतगर्दों के लिए सबक होने की बजाए उनके हौसले ही बुलंद करेगा।
३१ अगस्त १९९५ को हुए इस बमकांड में बेअंत सिंह समेत १६ अन्य लोगों की भी मौत हो गई थी। इस हत्याकांड के साजिशकर्ताओं में बलबंत सिंह राजोआणा भी शामिल था। यह वही राजोआणा है, जिसके पिता को आतंकवादियों ने गोलियों से भून डाला था। आतंकवाद पीडि़त परिवार के तौर पर ही राजोआणा को पंजाब पुलिस का सिपाही बना दिया गया था। चंडीगढ़ की जिला अदालत ने बलवंत को फांसी की सजा सुनाई है। पंजाब में स्थिति थोड़ी गंभीर इसलिए हो चली है कि एक वर्ग ऐसा है, जो इस फांसी को रुकवाने में पूरी तरह से सक्रिय हो चुका है। इसी प्रक्रिया के तहत ही जेलर जाखड़ ने भी कानून का ही हवाला देते हुए डेथ वारंट की तामील करने से इंकार करते हुए उच्च अदालत में अपील दायर करने की बात दोहराई है। श्री अकाल तख्त साहिब के सिंह साहिबान ने सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था एसजीपीसी के प्रधान अवतार सिंह मक्कड़ और शिअद प्रधान सुखबीर बादल को आदेश दिया कि वे राजोआणा मामले में हर तरह का प्रयास करें। विभिन्न धार्मिंक स्थलों से रोजाना बलवंत के समर्थन में रोष मार्च निकाले जा रहे हैं। इसमें अहम बात यह है कि पटियाला जेल में बंद राजोआणा ने अपनी फांसी के खिलाफ अपील दायर करने से इंकार कर रखा था। अब हालत यह है कि खुद बेअंत सिंह के परिजन और कांग्रेस भी फांसी के खिलाफ ही खड़े हैं। कांग्रेस शायद मजबूरन इस फैसले का समर्थन कर रही है, क्योंकि ८४ दंगों का भूत अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहा है। लेकिन पंजाब सरकार तो पूरी तरह खुलकर खेल रही है, इस मामले में चाहे फैसला कुछ भी उसके दोनों हाथों में लड्डू आना तय है। हो सकता है कि सरकार अंतिम विकल्प के तौर पर यूटी के साथ हुए समझौते को ही रद कर दे, जिसके तहत चंडीगढ़ के कैदियों को पंजाब की जेलों में रखा जा सकता है। सरकार फांसी देने से यह कहकर इंकार कर दे कि यह चंडीगढ़ के दायरे का मामला है, अत: इसका निपटारा वहीं होना चाहिए।
देखा जाए तो यह बेहद शर्मनाक घटनाक्रम ही कहा जा सकता है कि लोकतंत्र की हत्या करने वाले को उनके अपराध की सजा मिलने की बजाए खेमाबंदी कर राज्य का माहौल खराब करने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं शिअद की सहयोगी पार्टी भाजपा का स्टैंड भी इस मामले में ढुलमुल ही है। अगर देश में आतंकवाद फैलाने वाले कसाब, गुरु और राजोआणा इस तरह माफी या उनके मामले लटकते रहे तो फिर कौन इस देश की रक्षा के लिए आगे खड़ा होगा। जाहिर है कि हमारे सुरक्षा बलों का भी मनोबल इससे गिरेगा। इस मामले में सरकार द्वारा अपनायी जा रही कि धार्मिक कट्टरता कतई उचित नहीं है।
‡ चंदन स्वप्निल ‡