शुक्रवार, मार्च 09, 2012

बादल हमेशा बहाव के साथ ही चले


प्रकाश सिंह बादल किस्मत के धनी हैं। 1956 में एसजीपीसी से अपना राजनीतिक कॅरियर शुरू करने वाले बादल बेशक पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। उन्होंने अभी तक एक भी बड़ा काम नहीं किया है, जिसे मील पत्थर कहा जा सके। अपने इस कार्यकाल में वह कुछ ऐसा करें, इसकी आशा की जानी चाहिए।
बादल के राजनीतिक कॅरियर के कई चरण हैं। कई उतार-चढ़ाव भी उन्होंने देखे हैं, लेकिन हर बार उभरकर वह सामने आए हैं। वे हमेशा विवाद से दूर रहते हैं।अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को बड़े कुशल ढंग से किनारे लगाने में उनकी महारत है। ज्ञानी करतार सिंह उन्हें राजनीति में लाए और 1957 में वह पहली बार अकाली दल और कांग्रेस के समझौते में वह कांग्रेस की टिकट पर जीतकर विधानसभा पहुंचे। 1962 में गिदड़बाहा से वह हरचरण सिंह बराड़ से चुनाव हार गए। दो बड़े परिवारों में हुई भीषण राजनीतिक लड़ाई के बाद दोनों ने एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव न लडऩे का फैसला कर लिया। 67 में वह फिर से चुनाव जीत गए और 1970 में पहली बार मुख्यमंत्री बने। इस दौरान वह पार्टी के विभिन्न मोर्चों में भाग लेते रहे।
आपातकाल के दौरान भी उन्हें जेल में जाना पड़ा। 1977 में जब वह फिर सीएम बने तो 78 में हुए निरंकारी कांड के दौरान वह पहली बार विवाद में आए। एसजीपीसी के तत्कालीन प्रधान गुरचरन सिंह टोहरा और जगदेव सिंह तलवंडी ने श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार को एक पत्र लिखकर राजनीतिक भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया। यहीं पहली बार उन्हें आरएसएस के हित साधने वाला बताया गया। 1980 में जब कांग्रेस आई तो उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया है और वह धर्म युद्ध मोर्चा के दौरान जेल चले गए।
वह राजीव लोंगोवाल समझौते के खिलाफ थे, लेकिन जब पार्टी में यह बात आई कि जो भी समझौते के खिलाफ चलेगा उसे टिकट नहीं मिलेगा, तो सभी ने उसे माना। सुरजीत सिंह बरनाला की सरकार में उन्हें स्पीकर बनाने की बात चली, लेकिन वह नहीं माने और मुख्यमंत्री के बाद दूसरा बड़ा पद देने के लिए बरनाला तैयार नहीं थे। ऐसे में जब बरनाला ने दरबार साहिब में पुलिस भेजी तो वह रि-वोल्ट करके सरकार से बाहर आ गए। इसी दौरान जिन लोगों ने खालिस्तान के लिए यूएनओ के महासचिव बुतरस घाली को पत्र लिखा उनमें प्रकाश सिंह बादल के भी हस्ताक्षर थे।
बादल हमेशा बहाव के साथ ही चले हैं। 1994 में जब मिलिटेंसी खत्म हो गई तब उन्होंने जोर आजमाइश शुरू की। अजनाला व गिदड़बाहा उपचुनाव के दौरान उन्हें ऐसा ही मौका मिला। 97 में उन्होंने भाजपा के साथ पूर्ण बहुमत लेकर सरकार बनाई, लेकिन इस सरकार में भी उन्हें गुरचरण सिंह टोहरा से भय सताता रहा। आखिर टोहरा के एक बयान कि मुख्यमंत्री और पार्टी प्रधान का पद किसी एक व्यक्ति के पास नहीं होना चाहिए, को आधार बनाकर उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया। उनके इसी कदम ने उन्हें 2002 में सत्ता से बाहर कर दिया। 2007 में वे फिर से सत्ता में लौटे। अब 2012 में उन्होंने 46 वर्ष का रिकॉर्ड तोड़ा। उसका कारण दलित वोट बैंक का अकाली दल की ओर मुडऩा और हिंदू वर्ग को टिकटें देना रहा है। इसी ने एक ऐसा माहौल बनाया कि किस्मत के धनी प्रकाश सिंह बादल पांचवीं बार मुख्यमंत्री बन रहे हैं।

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