उनकी आजादी मात्र 12 घंटे की है। दिन ढलने के बाद उनकी जिंदगी सिर्फ गांव के चारों ओर ही घूमती है। उन्होंने बीस बरस में एक भी रात स्वछंद होकर नहीं गुजारी। फाजिल्का तहसील का एक ऐसा गांव मुहार जमशेर उर्फ दिलावर भैणी।
फाजिल्का से 10 किमी. दूर मुहार जमशेर के तीन तरफ पाकिस्तान सरहद है तो चौथी तरफ से सतलुज दरिया है। दरिया पर ग्रामीणों ने अस्थाई पुल बना रखा है। वे दरिया पार करके पंजाब के शेष हिस्से से जुड़ते हैं लेकिन यहां भी उनकी मुश्किलें कम नहीं होतीं। इसके पीछे बीएसएफ की ओर से बनाया गया लौहे का दरवाजा। इस पार करना आसान नहीं है। गांववालों के लिए बकायदा पहचान कार्ड बनाए गए हैं। दरवाजे के अंदर जाना हो तो कार्ड बीएसएफ द्वारा जमा कर लिया जाता है और लौटते समय दे दिया जाता है। अगर ग्रामीण कार्ड साथ लाना भूल जाए तो वह 18 फीट का दरवाजा पार नहीं कर सकता। इसी शाम अगर लौटने में देरी हो जाए तो गेट बंद होने से वह अपने घर नहीं पहुंच सकता। इसके लिए उन्हें सुबह होने का इंतजार करना पड़ता है। अगर गांववालों का कोई रिश्तेदार आ जाए तो और मुसीबत। इस पर ग्रामीण को अपना और रिश्तेदार का नाम दर्ज कराना पड़ता है। अगर शिनाख्ती कार्ड न हो तो सरपंच से शिनाख्त कराई जाती है। यह सब झेलने के बाद बीएसएफ जवानों की ओर से ग्रामीणों की तलाशी ली जाती है। उसके कपड़े—बर्तन चेक किए जाते हैं। यह सब झेलते वक्त उन्हें ऐसा महसूस होता है, जैसे वे भारत के नागरिक ही नहीं हैं या फिर आजाद देश के ‘गुलाम’।
मुहार जमशेर जेलनुमा: नब्बे के दशक में भारत—पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा पर जब फिरोजपुर, अमृतसर और गुरदासपुर में सुरक्षा के लिए तारबंदी कराई गई तो गलती से ठेकेदारों ने इसे पाकिस्तान का गांव मान लिया और गांव के बाहर तारबंदी कर दी गई। गांव वासियों ने इसके विरोध में आवाज उठाई। आखिर उनका संघर्ष रंग लाया और इसे भारत का गांव मान कर इसके दूसरी तरफ तारबंदी कर दी गई, लेकिन पहले की गई तारबंदी नहीं हटाई गई। और इस तरह मुहार जमशेर जेलनुमा गांव बन गया।
फाजिल्का से 10 किमी. दूर मुहार जमशेर के तीन तरफ पाकिस्तान सरहद है तो चौथी तरफ से सतलुज दरिया है। दरिया पर ग्रामीणों ने अस्थाई पुल बना रखा है। वे दरिया पार करके पंजाब के शेष हिस्से से जुड़ते हैं लेकिन यहां भी उनकी मुश्किलें कम नहीं होतीं। इसके पीछे बीएसएफ की ओर से बनाया गया लौहे का दरवाजा। इस पार करना आसान नहीं है। गांववालों के लिए बकायदा पहचान कार्ड बनाए गए हैं। दरवाजे के अंदर जाना हो तो कार्ड बीएसएफ द्वारा जमा कर लिया जाता है और लौटते समय दे दिया जाता है। अगर ग्रामीण कार्ड साथ लाना भूल जाए तो वह 18 फीट का दरवाजा पार नहीं कर सकता। इसी शाम अगर लौटने में देरी हो जाए तो गेट बंद होने से वह अपने घर नहीं पहुंच सकता। इसके लिए उन्हें सुबह होने का इंतजार करना पड़ता है। अगर गांववालों का कोई रिश्तेदार आ जाए तो और मुसीबत। इस पर ग्रामीण को अपना और रिश्तेदार का नाम दर्ज कराना पड़ता है। अगर शिनाख्ती कार्ड न हो तो सरपंच से शिनाख्त कराई जाती है। यह सब झेलने के बाद बीएसएफ जवानों की ओर से ग्रामीणों की तलाशी ली जाती है। उसके कपड़े—बर्तन चेक किए जाते हैं। यह सब झेलते वक्त उन्हें ऐसा महसूस होता है, जैसे वे भारत के नागरिक ही नहीं हैं या फिर आजाद देश के ‘गुलाम’।
मुहार जमशेर जेलनुमा: नब्बे के दशक में भारत—पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा पर जब फिरोजपुर, अमृतसर और गुरदासपुर में सुरक्षा के लिए तारबंदी कराई गई तो गलती से ठेकेदारों ने इसे पाकिस्तान का गांव मान लिया और गांव के बाहर तारबंदी कर दी गई। गांव वासियों ने इसके विरोध में आवाज उठाई। आखिर उनका संघर्ष रंग लाया और इसे भारत का गांव मान कर इसके दूसरी तरफ तारबंदी कर दी गई, लेकिन पहले की गई तारबंदी नहीं हटाई गई। और इस तरह मुहार जमशेर जेलनुमा गांव बन गया।
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