रविवार, जनवरी 31, 2010

क्या है बीटी बैंगन!


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बीटी बैंगन को लेकर इन दिनों काफी  पंगा चल रहा है. हमारी  सरकार विदेशी कंपनियों के दबाव में आकर इसे यहाँ बेचेनी पर उतारू है. इसका जबरदस्त विरोध चल रहा है. मोनसेंटो को कुश करने की कसरत है साडी. अभी तक कवल २५ देशों में ही इसे हरी झंडी मिलती है.आखिर यह बीटी बैंगन है क्या ? इस पौधे की हर कोशिका में एक खास तरह का जहर पैदा करने वाला जीन होगा, जिसे बीटी यानी बेसिलस थिरूंजेनेसिस नामक एक बैक्टेरिया से निकालकर बैंगन की कोशिका में प्रवेश करा दिया गया है। इस जीन को, तत्व को पूरे पौधे में प्रवेश करा देने की सारी प्रक्रिया बहुत ही पेचीदी और बेहद महंगी है। इसी प्रौद्योगिकी को जेनेटिक इंजीनियरिंग का नाम दिया गया है।
 मध्यप्रदेश के जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के खेतों में बीटी बैंगन की प्रयोगात्मक फसलें ली गई थीं। इस बात की जांच की गई कि इसे खाने से कितने कीड़े मरते हैं। जांच से पता चलता कि बैंगन में प्राय: लग सकने वाले 70 प्रतिशत कीट इस बैंगन में मरते हैं। इसे ही सकारात्मक नतीजा माना गया। अब बस इतना ही पता करना शेष था कि इस बीटी बैंगन को खाने से मनुष्य पर क्या असर पड़ेगा? प्राणियों पर भी इसके प्रभाव का अधकचरा अध्ययन हुआ है। ऐसे तथ्य सामने आए हैं कि बीटी बैंगन खाने वाले चूहों के फेफड़ों में सूजन, अमाशय में रक्तस्राव, संतानों की मृत्युदर में वृद्धि जैसे बुरे प्रभाव दिखे हैं।

 स्वतंत्र विशेषज्ञ माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. पुष्प मित्र भार्गव का कहना है कि स्वीकृति से पूर्व आवश्यक माने गए जैव सुरक्षा परीक्षणों में से अधिकांश को तो छोड़ ही दिया गया है। शायद अमेरिका की तरह हमारी सरकार की भी नीति है कि नियमन पर ज्यादा जोर न दिया जाए। वरना विज्ञान और तकनीक का विकास रुक जाएगा।
यह मंत्र बीज कंपनी मोनसेंटो ने दो दशक पूर्व तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश सीनियर को दिया था और उन्होंने उसे मान भी लिया था। तभी से उनकी नियामक संस्था एफडीए अपने भीतर के वैज्ञानिकों की सलाह के विपरीत अमेरिका में इस विवाद भरी तकनीक से बने मक्का, सोया आदि बीजों को स्वीकृति देते जा रही है और इन बीजों को खेत में बोया जा चुका है। अब अमेरिका के लोग इसकी कीमत चुकाने जा रहे हैं।
अमेरिकन एकेडमी ऑफ एनवायर्नमेंट मेडिसिन का कहना है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। विषाक्तता, एलर्जी और प्रतिरक्षण, प्रजनन, स्वास्थ्य, चय-अपचय, पचाने की क्रियाओं पर तथा शरीर और अनुवांशिक मामलों में इन बीजों से उगी फसलें, उनसे बनी खाने-पीने की चीजें भयानक ही होंगी। हमारे देश में इस विचित्र तकनीक से बने कपास के बीच बोए जा चुके हैं। ऐसे खेतों में काम करने वालों में एलर्जी होना आम बात है। यदि पशु ऐसे खेत में चरते हैं तो उनके मरने की आशंका बढ़ती है। भैंसे बीटी बिनौले की चरी खाकर बीमार पड़ी हैं। उनकी चमड़ी खराब हो जाती है व दूध कम हो जाता है। भैंस बीटी बिनौले की खली नहीं खाना चाहती। यूरोप और अमेरिका से खबरें हैं कि मुर्गियां, चूहे, सुअर, बकरी, गाय व कई अन्य पशु जीएम मक्का और अन्य जीएम पदार्थ खाना ही नहीं चाहते। पर हम इन्सानों की दुर्गति तो देखिए जरा।

इन पौधों से जमीन, खेत, जल जहरीला होता है, तितली, केंचुए कम होते हैं तो उन समस्याओं से निबटने के लिए कृषि विज्ञान का और विकास होगा, बॉयोटेकनोलॉजी में सीधा विदेशी निवेश और बढ़ेगा। हम इसी तरह तो विकसित होते जाएंगे! बीटी कपास के खेत के नजदीक यदि देशी कपास बोएं तो उसके फल मुरझा जाते हैं। ऐसा ही बैंगन के साथ भी हो सकता है। प्रकृति और किसानों ने हजारों साल में हजारों किस्म के बैंगन विकसित किए हैं, वह सारा खजाना जीएम बैंगन के फैलने से खत्म हो सकता है। साथ ही उनके औषधि गुण खत्म हो सकते हैं। खुद जीएम बैंगन की अगली पीढ़ियों में पता नहीं कौन से प्रोटीन बनेंगे और उनकी विषाक्तता और एलर्जी पैदा करने वाली ताकत, क्रिया क्या होगी? एक चिंता यह है कि अगर बीटी बैंगन बाजार में आया तो हम पहचानेंगे कैसे कि यह जीएम वाला बैंगन क्या है? आज भी किसानों को गलत और मिलावटी बीज बेचे जाते हैं। उन्हें तीन महीने बात ही पता चलता है कि वे ठगे गए हैं।
केंद्रीय  मंत्री जयराम रमेश इस विषय पर विभिन्न लोगों, विशेषज्ञों, संस्थाओं और सभी राज्य सरकारों की राय मांग रहे हैं। वे खुद भी जून महीने में कह चुके हैं कि मैं जीएम खाद्य के खिलाफ हूं। केरल और उड़ीसा की सरकारें अपने राज्यों को जीएम मुक्त रखना चाहती हैं। जयराम यहाँ भी गए वहां उनका भरी विरोध हुआ. मंत्री ने जीइएसी की स्वीकृति पर अंतिम निर्णय फरवरी 2010 तक लेने की घोषणा की है। यानी इस बारे में चिंता करने वालों के पास थोड़ा वक्त बाकी है।
पिछले चार साल में दुनिया भर के 400 कृषि वैज्ञानिकों ने मिलकर एक आकलन किया है।  उनका निष्कर्ष है कि समाधान जेनेटिक इंजीनियरिंग या नेनो टेक्नॉलाजी जैसे उच्च प्रौद्योगिकी में नहीं है। समाधान तो मिलेगा छोटे पैमाने पर, पर्यावरण की दृष्टि से ठीक खेती में।

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