युजवेंद्र चहल दुनिया के ऐसे दो गेंदबाजों में शुमार हैं, जिनके नाम ट्वेंटी-20 क्रिकेट में एक मैच में 6 विकेट लेेने का कारनामा दर्ज है। वह क्रिकेट के साथ शतरंज के भी अच्छे खिलाड़ी रह चुके हैं। शतरंज के खेल में भी में भी वे भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
पिता केके चहल वकील हैं। युजवेंद्र ने 7 साल की उम्र में जब खेलों की दुनिया में कदम रखा तो क्रिकेट और शतरंज दोनों में अपनी प्रतिभा का कमाल दिखाना शुरू किया। अंडर 12 वर्ग में युजवेंद्र नेशनल चेस चैंप रह चुके हैं। कोझिकोड में एशियन यूथ चैंपियनशिप में वे भारत की तरफ से शामिल हुए। इसके बाद ग्रीस में वर्ल्ड यूथ चैंपियनशिप में देश के लिए खेले। चेस में उनका उभरता कॅरिअर कोई प्रायोजक नहीं मिल पाने के कारण ठप हो गया। इस खेल को जारी रखने के लिए युजवेंद्र को हर साल लगभग 50 लाख रुपए की जरूरत थी, जोकि बिना किसी प्रायोजक के संभव नहीं था। आखिरकार युजवेंद्र ने शतरंज की बजाय क्रिकेट पर फोकस किया। पिता ने बेटे को अपने डेढ़ एकड़ खेत मेें उसकी प्रैक्टिस के लिए क्रिकेट पिच बनवा दी।
सपना तो विश्वनाथन आनंद बनना था
उसे बचपन से ही क्रिकेट और शतरंज आकर्षित करते रहे। वह शतरंज को लेकर बहुत क्रेजी था और उसका रोल मॉडल विश्वनाथन आनंद थे। आनंद बनने के सपने को पूरा करने के लिए वह जी भरके प्रैक्टिस करता था। जींद में बहुत अच्छे शतरंज के खिलाड़ी नहीं थे और न वहां कोई ट्रेनिंग की सुविधा। चंद स्टेट प्लेयर के साथ ही वह प्रैक्टिस से अपना गेम सुधारने की कोशिश करता था। किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, शुरुआती सफलता मिली, पर स्पांसर नहीं मिला और शतरंज पीछे छूट गया। साल 2003 में वर्ल्ड क्रिकेट कप में भारत फाइनल में आस्ट्रेलिया से हार गया। और यही से चहल शतरंज छोड क्रिकेट की �"र मुड़ गया।
शतरंज के शह-मात से ही क्रिकेट जीता
शह-मात का खेल शतरंज और इसी की रणनीति चहल ने क्रिकेट में बल्लेबाजों को घेरने में बनानी शुरू की। शतरंज में विपक्षी खिलाड़ी की गलती पर भी सधी नजर होती है। यही फलसफा उसने क्रिकेट में अपनाया। इसलिए वो बतौर फिरकी गेंदबाज बल्लेबाज को फांसने की लिए उसी तर्ज पर खेलता है।
इसलिए शतरंज के खिलाड़ी की मानिंद बल्लेबाज के आक्रामक होने के बावजूद वो आनंद के स्टाइल में शांत रहकर अपनी रणनीतियों को अंजाम देता है।
पिता केके चहल वकील हैं। युजवेंद्र ने 7 साल की उम्र में जब खेलों की दुनिया में कदम रखा तो क्रिकेट और शतरंज दोनों में अपनी प्रतिभा का कमाल दिखाना शुरू किया। अंडर 12 वर्ग में युजवेंद्र नेशनल चेस चैंप रह चुके हैं। कोझिकोड में एशियन यूथ चैंपियनशिप में वे भारत की तरफ से शामिल हुए। इसके बाद ग्रीस में वर्ल्ड यूथ चैंपियनशिप में देश के लिए खेले। चेस में उनका उभरता कॅरिअर कोई प्रायोजक नहीं मिल पाने के कारण ठप हो गया। इस खेल को जारी रखने के लिए युजवेंद्र को हर साल लगभग 50 लाख रुपए की जरूरत थी, जोकि बिना किसी प्रायोजक के संभव नहीं था। आखिरकार युजवेंद्र ने शतरंज की बजाय क्रिकेट पर फोकस किया। पिता ने बेटे को अपने डेढ़ एकड़ खेत मेें उसकी प्रैक्टिस के लिए क्रिकेट पिच बनवा दी।
सपना तो विश्वनाथन आनंद बनना था
उसे बचपन से ही क्रिकेट और शतरंज आकर्षित करते रहे। वह शतरंज को लेकर बहुत क्रेजी था और उसका रोल मॉडल विश्वनाथन आनंद थे। आनंद बनने के सपने को पूरा करने के लिए वह जी भरके प्रैक्टिस करता था। जींद में बहुत अच्छे शतरंज के खिलाड़ी नहीं थे और न वहां कोई ट्रेनिंग की सुविधा। चंद स्टेट प्लेयर के साथ ही वह प्रैक्टिस से अपना गेम सुधारने की कोशिश करता था। किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, शुरुआती सफलता मिली, पर स्पांसर नहीं मिला और शतरंज पीछे छूट गया। साल 2003 में वर्ल्ड क्रिकेट कप में भारत फाइनल में आस्ट्रेलिया से हार गया। और यही से चहल शतरंज छोड क्रिकेट की �"र मुड़ गया।
शतरंज के शह-मात से ही क्रिकेट जीता
शह-मात का खेल शतरंज और इसी की रणनीति चहल ने क्रिकेट में बल्लेबाजों को घेरने में बनानी शुरू की। शतरंज में विपक्षी खिलाड़ी की गलती पर भी सधी नजर होती है। यही फलसफा उसने क्रिकेट में अपनाया। इसलिए वो बतौर फिरकी गेंदबाज बल्लेबाज को फांसने की लिए उसी तर्ज पर खेलता है।
इसलिए शतरंज के खिलाड़ी की मानिंद बल्लेबाज के आक्रामक होने के बावजूद वो आनंद के स्टाइल में शांत रहकर अपनी रणनीतियों को अंजाम देता है।
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