रविवार, फ़रवरी 05, 2012

आत्महत्या की राह चले


पश्चिम बंगाल में अब 'ममता का राज' है पर किसान सत्ता की बेदर्दी झेल रहे हैं । आलू और धान की तैयार फसल नहीं बिक रही । बिचौलिए हावी हैं और इन्होंने खरीद रोक रखी है । समर्थन मूल्य से बेहद कम कीमत पर भी फसल नहीं बिक रही है । मजबूरन किसान आत्महत्या कर रहे हैं

कोलकाता से दीपक रस्तोगी 

बगाल के किसान सत्ता बदलने में तो कामयाब हो गए पर अपनी किस्मत नहीं बदल पा रहे हैं । सत्ता की अनदेखी के चलते इनकी किस्मत फूटी लग रही है । बढ़ते कर्ज का भार संभालने में असमर्थ सपने कड़वी सचाई के सामने बेपर्दा हो रहे हैं । खेतों में पककर तैयार फसल बिचौलियों के रहमोकरम की बाट जोह रही हैं । उनके परिवारों के सामने अनाहार का संकट मुंह बाए खड़ा है । फूटी किस्मत का रोना रोते किसान अब आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हो रहे हैं।

१३ जनवरी, मालदा का हबीबपुर । १४ जनवरी, बर्द्धमान का पूर्वस्थली । १५ जनवरी, बर्द्धमान का कालना । १६ जनवरी, हुगली का हरीपाल । २९ जनवरी बर्द्धमान का केतुग्राम । ३० जनवरी गाजल । नए साल में शायद ही कोई दिन ऐसा छूटा हो जिसमें कहीं न कहीं, किसी न किसी किसान ने जान न दी हो। किसानों द्वारा फांसी लगा लेने या कीटनाशक पी लेने की खबरें रोजाना छप रही हैं । जांच के नाम पर प्रशासन के रूटीन दावे भी आ रहे हैं - निजी कारणों से जान दी लेकिन दस्तावेजी सबूत और इन किसानों के परिजनों के बयान एक गंभीर स्थिति का खुलासा कर रहे हैं । विडंबना यह कि इन मौतों के तुरंत बाद स्थानीय प्रशासन किसानों के परिजनों से कोई निजी वजह दिखाते हुए स्वीकृति लिखवाने में जुट जाता है।

सरकारी स्तर पर ऐसी घटनाओं को शुरू से ही दबाने की कोशिश की जा रही है जबकि अक्टूबर-नवंबर से ही किसानों की पीड़ा सामने आने लगी थी । बर्द्धमान के भातार इलाके में नवंबर के महीने में पांच किसानों ने आत्महत्या कर ली थी । इन सभी मामलों में परिजनों से बातचीत करने पर प्रशासन के संवेदनहीन रवैए की कहानी सामने आई है । १८ नवंबर को कालटिकारी गांव के १८ साल के युवक किसान सफर मोल्ला ने कीटनाशक पीकर जान दे दी । बंगाल में हाल के सीजन में किसी किसान द्वारा आत्महत्या की यह पहली घटना थी । जब वह १२ साल का था तब उसके पिता बगैर इलाज के चल बसे थे। पिछले छह साल से वह खेती-मजदूरी कर अपना और अपनी मां का खर्च चला रहा था । उसपर ९० हजार रुपए का कर्ज था। उसने दो सौ क्विंटल धान उगाया था लेकिन वह बेच नहीं पा रहा था । सफर की मां रिजा के अनुसार, "कर्ज के चलते मेरा बेटा बेहद तनाव में था। घर खर्च भी चला पाना मुश्किल हो रहा था।" लेकिन इस कांड की जांच करने पहुंची पुलिस ने सफर की मां और पड़ोसियों से "लिखित बयान" ले लिया कि "किसी निजी मसले पर रात को मां से झगड़ा होने के बाद उसने आत्महत्या कर ली ।"

यही कहानी है बर्द्धमान जिले के रसूलपुर के ४० वर्षीय अमीय साहा की । उसके पास पांच बीघा जमीन थी जिससे उसका बेहद जुड़ाव था । कर्ज के चलते उसे जमीन का कुछ हिस्सा बेचना पड़ा था । उसकी जमीन पर ही चार जनवरी को उसका शव पड़ा मिला । उसने कीटनाशक पी लिया था । इस मामले में पुलिस ने उसकी पत्नी झरना और अन्य घरवालों से कुछ इस तरह का बयान हासिल किया, "परिवारिक विवाद में उसने आत्महत्या की ।" बर्द्धमान के भातार इलाके के एक किसान शेख नूरुल इस्लाम कहते हैं, "मेरे घर में करीब ३४० क्विंटल धान का अंबार लगा है । मैं बेच नहीं पा रहा हूं । दो लाख रुपए का कर्ज है । प्रशासन से कोई मदद नहीं मिल रही । ऐसे में मेरे जैसे लोगों के सामने सूदखोरों से बचने का आत्महत्या ही एकमात्र रास्ता है ।
विडंबना 

सरकारी बैंकों से लिया गया कर्ज अब भी बाकी है । मौजूदा मौसम की पैदावार कटने के बाद बाजार में बेच नहीं पा रहे बंगाल के किसान निराशा में आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हो रहे हैं । आत्महत्या करने वाले किसानों का आंकड़ा अब ३० पार करने चला है । "चावल का कटोरा" कहे जाने वाले बर्द्धमान जिले में २२ किसान मौत को गले लगा चुके हैं । सभी मामलों में प्रशासन के पास लिखित बयान वाले "सबूत" मौजूद हैं कि आत्महत्या की वजहें पारिवारिक थीं या फिर उनमें से कोई-कोई मानसिक रूप से बीमार था जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है । बर्द्धमान में १२ लाख मीट्रिक टन धान की सरप्लस पैदावार हुई है जबकि चावल की सरकारी खरीद का अभियान अपने लक्ष्य से २० लाख मीट्रिक टन पीछे है । सरकारी मशीनरी अभी तक विपणन समितियां तक नहीं बना सकी हैं जबकि दावे सैकड़ों समितियों के गठन के किए जा रहे हैं । कुछेक जगहों पर समितियां बनी भी हैं और धान बेचा भी गया है तो किसानों को भुगतान नहीं मिल सका है। उधारी पर धान बिका है या फिर चेक मिले हैं, जो बाउंस हो रहे हैं । चावल मिलों के मालिक न्यूनतम समर्थन मूल्य देने को तैयार नहीं क्योंकि पड़ोसी राज्यों से छह सौ से आठ सौ रुपए क्विंटल की दर पर धान मिल रहा है ।

अर्थशास्त्री दीपांकर दासगुप्त के अनुसार, "राज्य सरकार ने एक तो वाममोर्चा सरकार के जमाने में गठित विपणन समितियों को भंग कर दिया और नई समितियां ठीक से गठित नहीं हो पाईं । दूसरे, किसानों को बैंक एकाउंट के जरिए भुगतान का नियम बना दिया । ऐसे में किसान दोतरफा मार खा रहे हैं । जिन्हें बैंक एकाउंट से लेना-देना नहीं, वे चेक भुनाने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं या फिर उनके चेक बाउंस हो रहे हैं । इस साल धान की फसल १५० लाख टन हुई है जो पिछले साल की तुलना में २० लाख टन अधिक है । ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा से किसानों को कोई फायदा नहीं क्योंकि सरकार अपनी खरीद के लक्ष्य में काफी पीछे है ।

इन स्थितियों में बिचौलियों की बन आई है । खाद्य व जनआपूर्ति विभाग के पास बिचौलियों की गतिविधियों के बारे में शिकायतों का अंबार लग रहा है । किसानों का गुस्सा सड़कों पर आ रहा है । बिचौलियों के साथ सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत के तथ्य सामने आ रहे हैं । हावड़ा के श्यामपुर इलाके में दो विपणन समितियों को किसानों से धान खरीदने का काम मंत्रालय से मिला । इन समितियों ने बिचौलियों के माध्यम से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीदे । वह फसल झारखंड के किसानों से छह सौ रुपए प्रति क्विंटल की दर पर खरीदी गई थी । धोखाधड़ी का आलम यह है जिन किसानों के एकाउंट खुलवाए गए हैं, उनसे बैंक के "विदड्रॉल स्लिप" पर समर्थन मूल्य की दर १,०८० रुपए के हिसाब से भरवाई जा रही है । पैसा निकालने के बाद उन्हें छह सौ से ८३० रुपए की दर से नकद दिया जा रहा है । लिखित शिकायतें पाने के बाद प्रशासन अपनी जांच की औपचारिकताएं पूरी करने में लगा है । राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर ऐसे आरोप मढ़ने में व्यस्त हैं । धान और आलू की फसल के मामले में जमीनी हकीकत बिचौलियों पर राजनीतिक वरदहस्त की कहानी बयान करते हैं । समर्थन मूल्य चाहे जो भी हो, वाममोर्चा के जमाने में माकपा की लोकल समितियां अपने हिसाब से मूल्य निर्धारित करती थीं और राइस मिलों को धान बिकवा देती थीं या कोल्ड स्टोरेज से आलू निकालकर बाजार में बेचने की प्रक्रिया तैयार हो गई थी । वाममोर्चा सरकार के जमाने में स्वयंसेवी समूहों के जरिए खरीद की जाती थी । इस नेटवर्क में किसान रच-बस गए थे । स्वयंसेवी समूहों से खरीदने में कारोबारियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देना पड़ता था लेकिन ममता बनर्जी की नई सरकार ने विभिन्न सरकारी एजेंसियों- नेशनल को-ऑपरेटिव कंज्यूमर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया, नेशनल एग्रीकल्चरल को-ऑपरेटिव, एसेंशियल कमोडिटिज सप्लाई कॉरपोरेशन, बेनफेड और कॉन्फेड के जरिए फसल की खरीद का एलान किया है ।

पैदावार का मूल्य किसानों को नहीं मिल पाने के मुद्दे पर वाममोर्चा ही नहीं, सत्ताधारी गठबंधन की सहयोगी पार्टी कांग्रेस भी सड़कों पर है । मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत तृणमूल कांग्रेस के तमाम नेता एक सुर में किसानों के मुद्दे को "अतिशयोक्ति" बताते हुए इसे वामो-कांग्रेस का मिला-जुला षड्यंत्र बता रहे हैंसरकारी बैंकों से लिया गया कर्ज अब भी बाकी है । मौजूदा मौसम की पैदावार कटने के बाद बाजार में बेच नहीं पा रहे बंगाल के किसान निराशा में आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हो रहे हैं । आत्महत्या करने वाले किसानों का आंकड़ा अब ३० पार करने चला है । "चावल का कटोरा" कहे जाने वाले बर्द्धमान जिले में २२ किसान मौत को गले लगा चुके हैं । सभी मामलों में प्रशासन के पास लिखित बयान वाले "सबूत" मौजूद हैं कि आत्महत्या की वजहें पारिवारिक थीं या फिर उनमें से कोई-कोई मानसिक रूप से बीमार था जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है । बर्द्धमान में १२ लाख मीट्रिक टन धान की सरप्लस पैदावार हुई है जबकि चावल की सरकारी खरीद का अभियान अपने लक्ष्य से २० लाख मीट्रिक टन पीछे है । सरकारी मशीनरी अभी तक विपणन समितियां तक नहीं बना सकी हैं जबकि दावे सैकड़ों समितियों के गठन के किए जा रहे हैं । कुछेक जगहों पर समितियां बनी भी हैं और धान बेचा भी गया है तो किसानों को भुगतान नहीं मिल सका है। उधारी पर धान बिका है या फिर चेक मिले हैं, जो बाउंस हो रहे हैं । चावल मिलों के मालिक न्यूनतम समर्थन मूल्य देने को तैयार नहीं क्योंकि पड़ोसी राज्यों से छह सौ से आठ सौ रुपए क्विंटल की दर पर धान मिल रहा है ।

राज्य सरकार के स्तर पर कवायद आदेश जारी करने और घोषणाओं तक ही सीमित है । इन एजेंसियों के साथ को-ऑर्डिनेशन की चेन नदारद है । बिचौलिए हावी हो रहे हैं । बिचौलियों के नेटवर्क में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता हावी हैं । ऐसे में राइस मिल या कोल्ड स्टोर चला रहे कारोबारी जमकर मोल-भाव कर रहे हैं । १० हजार से अधिक राइस मिलों ने धान की खरीद रोक रखी है । खरीद हो भी रही है तो भविष्य में दाम चुकाने की शर्त पर । दूसरी ओर, आलू की नई फसल आ गई है और कोल्ड स्टोरेज में पिछली फसल का २५ लाख बस्ता आलू पड़ा हुआ है । जिन बिचौलियों ने बस्ते जमा कर रखे हैं, वे इसे निकाल नहीं रहे । दूसरी ओर, राज्य सरकार की कवायद इस आलू को दूसरे राज्यों और विदेश में निर्यात कराने के एलान तक ही सीमित है । आलू व्यवसायी समिति के अमर सरकार, बापीनाथ चक्रवर्ती, जगबंधु घोष जैसे किसानों का कहना है कि घोषणा के बावजूद सरकारी मार्केट समितियां सक्रिय नहीं हुई हैं । 




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